Saturday, March 3, 2018

जुंबिशें - - - नईं अज़ान



नईं अज़ान 

यह धर्म और मज़हब इंसान के लिए अगर कारगर होते तो सदियों पहले आदमी इंसान बन चुका होता.
दर अस्ल इसने हमेशा इंसान और इंसानियत का बुरा ही किया है. 
जितना इंसानी ख़ून मज़ाहिब ने पिया है उतना किसी दूसरी तहरीक ने नहीं. अवतारों और पयम्बरों के ज़माने में ही बड़ी बड़ी जंगें हुईं, 
महा भारत हुईं है जिनको धर्म युद्ध अथवा जिहाद का नाम देकर पवित्र कर लिया गया.
धर्म गुरुओं ने कभी भी आदमी को इन्सान बन कर इंसानी आज़ादी नहीं दी.
बस मनवाया है पहले अपने गढ़े हुए ख़ुदा को, बाद में ख़ुद को.
इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलेगी कि देश में मज़हबी हुकूमत क़ायम हुई हो और पड़ोस में अमन रहा हो. रातों को भेस बदल कर अपनी रिआया का दुःख दर्द समझने वाले हुक्मराँ, 
दिन में दूसरे मुल्क पर हमला करने का फ़रमान जारी किया करते थे.
मौजूदा बड़े बड़े देवालय और बारगाहें लूट मार से वसूली गई दौलत से बनी हुई हैं. 
अजीब बात हुवा करती थी कि अपना धर्म को दूसरे पर थोपें, 
न माने तो गर्दन उड़ा दें, उसके बाद इस ज़ुल्म को जिहाद का नाम दें.
नया युग आ गया है. आप  पूरा यक़ीन कर सकते हैं कि अतीत की ग़ैर फ़ितरी (अलौकिक) मज़हबी बातें,जन्नत और दोज़ख कोरी कल्पनाएँ हैं. वैज्ञानिक खोजें इन मीनारों को ध्वस्त कर चुकी हैं, फिर भी इनका भूत आप के पिंडों को नहीं छोड़ता. यह कब तक चलेगा, हम कब तक झूट को जीते रहेंगे.
पेश किताब से मैंने शाइरी के तसव्वुत (माध्यम) से इंसानी ज़ेहन को 'जुंबिशें' दी है.
मैं नहीं जानता कि मैं शायर हूँ भी कि नहीं, मगर मैंने इतना ज़रूर जाना है कि अपनी बातें दो लाइन में कहने के लिए शायरी से बेहतर कोई माध्यम नहीं.
शेर ऐसा कैप्शूल है जिसे आसानी से निगला जा सकता है.
तवील मज़ामीन को पढ़ने के लिए किसी के पास वक़्त नहीं.
मेरे अशआर रंगीन, संगीन और ग़मगीन कैप्शूलों में बंद हैं, किसी तरह भी इनके असरात लोगों के दिमागों में पहूँचे और हलचल पैदा करे.
मौजूदा समाज को ज़ेहनी इलाज के लिए 'जुंबिशें' दे रहा हूँ.
मैं ख़ूब जानता हूँ कि सोए हुए व्यक्ति को जुंबिशें नागवार गुज़रती हैं, 
उनकी नींद में ख़लल जो पड़ता है.
वह झिंझोड़ने वाले को लाल पीली नज़रों से तो देखते ही हैं, 
फिर होश संभाल कर बैठ जाते है. 
मुझे पूरी उम्मीद है कि "जुंबिशें" उनको जब पूरी तरह से जगा देंगी तो वह मेरे अच्छे दोस्त बन जाएँगे.
जुंबिशें मेरी उरियां (नग्न) सदाक़तों की रोशनाई से लिखी हुई इबारतें हैं. 
मैंने कहीं कोई मस्लेहत और लिहाज़ नहीं बरती. 
मेरे हिसाब से यह बुज़दिली की अलामतें हैं. 
इन्हीं की वजह से मरज़ के जरासीम पनपते हैं.
जुंबिशें बहुत सा पड़ाव पेश करती हैं, हर पड़ाव पर आपको रुकना होगा, एक लंबी सांस लेकर फ़ितरत को निहारना होगा, आपको अपनी हस्ती का पता मिलेगा जो कि कहीं खोई हुई है. जब आप अपने आपको पा जाएँगे तो आपको किसी की ज़रुरत नहीं होगी. 
यह कितना बड़ा सनेहा (विडंबना) कि आप ख़ुद अपने आपसे नहीं मिलते.
जुन्बिशों की घटनाओं को आप अपने अन्दर घट जाने दें, 
आपको नज़रयाती गुलामी से नजात मिल जाएगी. 
उसके बाद आप होंगे और उसके बाद भी सिर्फ़ आप ही होंगे. 
इंसान ख़ुद को पा जाए तो यह उसके लिए सबसे बड़ा इनआम है. 
धर्म व मज़हब, ज़ात पात से मुक्त हो जाएँगे, कोई पराया न रह जाएगा. वजूद पर लदे इन तमाम बोझों से सुबुक दोशी होगी. 
ला महदूदयत (अनन्त) मज़ा आने लगेगा. न आपका कोई हक्वारा होगा न आप किसी पर ग़ालिब होना पसंद करेंगे. 
कोई झूट आपसे नज़रें मिलाने की हिम्मत न कर सकेगा. 
हम सभी कायनात के एक ज़र्रे हैं, 
बहुत कम वक़्त के लिए इसके दायरे में आए हैं,

पाई है हम ने जहाँ में गुल की मानिंद ज़िदगी,
रंग बन कर आए हैं, बू बन के उड़ जाएँगे हम.

कुछ देर के लिए स्टेज पर आए हैं, अपने रोल करके चले जाएँगे. 
स्टेज पर डेरा नहीं डालेंगे.
मैं तमाम  ख़ल्क़ का ख़ैर ख्वाह हूँ. 
हमारे इंसानी मज़हब में अदावत हराम है.
साथ साथ ग़लत को क़ायम रखना भी  हमें गवारा नहीं.
आइए हम सब मिल कर इंसान और सिर्फ़ इंसान बन जाएं.
इंसान के सिवा कुछ भी बाक़ी न बचें.
हर ज़ेहन में इंसानियत की रूह फूकें.
हर तरफ इंसानियत की खुशबू बिखेरें.
बिरादराना एकता से परे, 
ओछी पहचानो से दूर, 
सरहदी हद बंदियों से बेख़बर,
हम मुसलसल इंसानी आबादी बन जाएं.
पाषाण युग की तरह अतीत के धर्म व मज़हब को इतिहास के अजायब घर में रख दें. हमारा मज़हब एक, बस मज़हब ए इंसानियत हो.
इसकी ज़रुरत सिर्फ़ मानव जाति को ही नहीं, बल्कि धरती के हर जीव को है.
मेहनत हमारा दीन हो,
इन्साफ़ की रोटी हमारा ईमान हो,
इंसानी हुक़ूक़ की भरपाई हमारी पूजा हो और इबादत हो.
इस धरती को सजाना और संवारना हमारा मक़सद ए हयात हो.
इससे ज़्यादा और क्या चाहिए हमारी नस्लों को ?
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1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (05-03-2018) को ) "बैंगन होते खास" (चर्चा अंक-2900) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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