Tuesday, March 20, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 5



5

सुममुम बुक्मुम उमयुन कह के, फ़हेम के देते हो ताने,
दिल में मरज़ बढ़ा के मौला, चले हो हम को समझाने.

लम यालिद वलम यूलद, तुम हम जैसे मख़लूक़ नहीं,
धमकाने, फुसलाने की, ये चाल कहाँ से हो जाने?

कभी अमन से भरी निदाएँ, कभी जेहादों के ग़मज़े,
आपस में ख़ुद टकराते हैं, तुम्हरे ये ताने बाने.

कितना मेक अप करते हो तुम, बे सर पैर की बातों को,
मुतरज्जिम, तफ़सीर निगारो! "बड़ बड़" में भर के मअने.

आज नमाज़ें, रोज़े, हज, ख़ैरात नहीं, बर हक़ ऐ हक़!
मेहनत, ग़ैरत, इज़्ज़त, का युग आया है रब दीवाने.

बड़े मसाइल हैं रोज़ी के, इल्म बहुत ही सीखने हैं,
कहाँ है फ़ुरसत सुनने की अब, फ़लक ओ हशर के अफ़साने.

कैसे इनकी, उनकी समझें, अपनी समझ से बाहर है,
इनके उनके सच में "मुंकिर" अलग अलग से हैं मअने.

नोट-पहले तीन शेरों में शायर सीधा अल्लाह से मुखातिब है , चौथे में उसके एजेंटों से 
और आखिरी तीन शेरों में आप सब से. अर्थ गूढ़ हैं, काश कि कोई सच्चा इस्लामी विद्वान् आप को समझा सके.

سُمّم ،بُکمُم ، اُمیُن کہکے، فَہم کے دیتے ہو تعانے، 
دل میں مرَض بڑھا کے مولہ ، چلے ہو ہم کو سمجھانے ٠ 

لَم یَلِد ولَم یولَد ، تم ہم جیسی مخلوق نہیں، 
دھمکانے ، پُھسلنے کی یہ چال ، کہاں سے ہو جانے ٠ 

کبھی امن سے بھری ندایں ، کبھی جہادوں کے غمزے، 
آپس میں ٹکراتے ہیں ، تمہرے یہ تانے بانے ٠ 

کتنا میکپ کرتے ہو تم، بے سر پیر کی باتوں کو، 
متَرجّم ، تفسیر نگارو ، بڑ بڑ میں بھر کے معنے ٠ 

آج نمازیں، روزے، حج، خیرات نہیں بر حق، اے حق! 
محنت، غیرت، عزت کا یُگ آیا ہے، رب دیوانے ٠ 

بڑے مسائل ہیں روزی کے ،علم بہت سے باقی ہیں، 
کہاں ہے فرصت سننے کی ، اب فلق و حشر کے افسانے ٠ 

کیسے اِنکی اُنکی سمجھیں ، اپنی سمجھ سے باہر ہے، 
اِنکے اُنکے سچ میں منکر ، الگ الگ سے ہیں معنے ٠ 

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