Saturday, March 31, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 15




15

हक्क़ुल इबाद से ये, लबरेज़ है न छलके,
राह ए अमल में थोड़ा, मेरे पिसर संभल के.

ऐ शाख़ ए गुल निखर के, थोड़ा सा और फल के,
अपने फलों को लादे, कुछ और थोड़ा ढल के.

अपने ख़ुदा को ख़ुद मैं, चुन लूँगा बाबा जानी,
मुझ में सिन ए  बलूग़त, कुछ और थोड़ा झलके.

लम्हात ज़िन्दगी के, हरकत में क्यूँ न आए,
तुम हाथ थे उठाए, चलते बने हो मल के.

कहते हो उनको काफ़िर  जो थे तुम्हारे पुरखे,
है तुम में ख़ून उनका, लोंडे अभी हो कल के.

मेहनत कशों की बस्ती, में बेचो मत दुआएँ,
"मुंकिर" ये पूछता है, तुम हो भी कुछ अमल के.

हक्कुल इबाद =मानव अधिकार

،حق العباد سے یہ، لبریزہے، نہ چھلکے 
گامِ عمل میں تھوڑا، میرے پِسر سنبھل کے٠ 

،ائے شاخِ گل سنبھل کے، تھوڑااور پھل کے، 
اپنے پھلوں کو لادے، رہنا زرہ سا ڈھل کے٠ 

،اپنے خدا کو خود میں، چُن لونگا بابا جانی، 
مجھ میں سنِ بلوغت، تھوڑا سا اور جھلکے٠ 

لمحاتِ زندگی کے، حرکت میں کیوں نہ آے؟ 
تم ہاتھ تھے اُٹھاۓ، چلتے بنے ہو مل کے٠ 

 ،کہتے ہو ان کو کافر جو تھے تہارے پرکھے

ہے تم میں خون اُنکا، لونڈے ابھی ہو کل کے٠ 

،محنت کشوں کی بستی، میں بیچو مت دعا ئیں، 
منکر یہ پوچھتا ہے، تم ہو بھی کچھ عمل کے ٠ 

Friday, March 30, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 14




14

देखो पत्थर पे घास उग आई, अच्छे मौसम की सर परस्ती है,
ऐ क़यादत1 कि बाद क़ुदरत के, मेरी आंखों में तेरी हस्ती है.

भाग्य को गर, न कर तू बैसाखी, तुझ को छोटा सा एक चिंतन दूँ,
सर्व संपन्न के बराबर ही, सर्वहारा की एक बस्ती है.

दहकाँ2 मोहताज दाने दाने का, और मज़दूर भी परीशाँ है,
सुनता किसकी दुआ है तेरा रब, उसकी रहमत कहाँ बरसती है.

ज़िन्दा लाशों में एक को खोजो, जिस में सुनने का होश बाक़ी हो,
उस से कह दो कि नींद महंगी है, उस से कह दो कि जंग सस्ती है.

मेरे हिन्दोस्तां का ज़ेहनी सफ़र, दूर दर्शन पे रोज़ है दिखता,
किसी चैनल पे धर्म कि पुड़िया, किसी चैनल पे मौज मस्ती है.

ज़ब्त बस ज़हर से ज़रा कम है, सब्र इक ख़ुद कुशी कि सूरत है,
इन को खा पी के उम्र भर 'मुंकिर' ज़िन्दगी मौत को तरसती है.

१-सरकार २-किसान

،دیکھو پتّھر پہ گھاس اُگ آی، اچھے موسم کی سر پرستی ہے
ائے قیادت! کہ بعد قدرت کے، میری آنکھوں میں تیری ہستی ہے٠ 

،بھا گیہ کو گر نہ کر تو بیساکھی، تُجھ کو چھوٹا ساایک چنتن دوں 
سرو سنپنن کے برابر ہی، سرو ہارا کی ایک بستی ہے٠ 

،دہقاں محتاج دانہ دانہ ہے، اور مزدور بھی پریشاں ہے
سُنتا کس کی دعا ئیں ہے یارب! تیری رحمت کہاں برستی ہے٠ 

،زندہ لاشوں میں ایک کو ڈھونڈھو، جو سماعت کا ہوش رکھتی ہو
اس سے کہہ دو کہ نیند مہنگی ہے، اس سے کہہ دو کہ جنگ سستی ہے٠ 

،،اپنے ہندوستان کا ذہنی سفر، دور درشن پہ روز دکھتا ہے 
کسی چینل پہ دھرم کی پُڑیہ، کسی چینل پہ موج مستی ہے. 

،ضبط بس زہر سے زرہ کم ہے، صبر اک خود کشی کی صورت ہے
جسکو کھا پی کے عمر بھر منکر، زندگی موت کو ترستی ہے٠ 

Thursday, March 29, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 13




13

तू है एक रुक्न अंजुमन , तेरी अपनी एक ख़ू है,
मैं अलग हूँ अंजुमन से, मेरा अपना रंग व् बू है.

वतो इज़ज़ो मन तोशाए, वतो ज़िल्लो मन तोशाए,
जो था शर पे, सुर्ख़ रू है, बेक़ुसूर ज़र्द रू है.

तेरा दीं सुना सुनाया, है मिला लिखा लिखाया,
मेरे ज़ेहन की इबारत, मेरी अपनी जुस्तुजू है.

मुझे खौ़फ़ है ख़ुदा का, न ही एहतियात ए शैताँ,
न ही खौ़फ़ दोज़खो़ का, न बहिश्त आरज़ू है.

वोह नहीं पसंद करते, जो हैं सर्द मुल्क वाले,
तेरी जन्नतों के नीचे, वो जो बहती आब ए जू है.

तेरे ध्यान की ये डुबकी, है सरल बहुत ही जोगी ,
कि बहुत सी भंग पी लूँ , तो ये पाऊँ तू ही तू है.

* वतो इज़जो मन तोशाए, वतो ज़िल्लो मन तोशाए=
खुदा जिसको चाहे इज्ज़त दे,जिसको काहे जिल्लत.

تو ہے
، ایک رکنِ انجمن ، تری اپنی ایک خو ہے 
  
میں الگ ہوں انجمن سے، مرا اپنا رنگ بو ہے٠ 

، وَتُعزو مَن تشاؤ ، وَتُزللو مَن تُشاؤ 
جو تھا شَر پہ، سُرخرو ہے، بے قصور زرد رو ہے٠ 

، ترا دیں سنا سنایا ، ہے ملا لکھا لکھایا
مرے ذہن کی عبارت، مری اپنی جستجو ہے٠ 

، مجھے خوف نہ خدا کا، نہ ہی احتیاطِ شیطاں
نہ ہی خوف دوزخوں کا، نہ بہشت آرزو ہے٠ 

، وہ نہیں پسند کرتے، جو ہیں سرد ملک والے
ترے جنّتوں کے نیچے، وہ جو بہتی اب جو ہے٠ 

، ترے دھیان کی یہ ڈُبکی، ہے بہت سرل سی جوگی  
کہ ذرا سی بھنگ پی لوں، تو یہ پاؤں تو ہی تو ہے٠ 



Wednesday, March 28, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 12




12

साफ़ सुथरी सी काएनात मिले,
तंग ज़ेहनो से कुछ, नजात मिले.

संस्कारों में, धर्म और मज़हब,
न विरासत में ज़ात, पात मिले.

आप की मजलिस ए मुक़द्दस1 में,
सिर्फ़ फ़ितनों के, कुछ नुक़ात2 मिले.

तुझ से मिल कर गुमान होता है,
बस की जैसे, ख़ुदा की ज़ात मिले.

उलझी गुत्थी है, सांस की गर्दिश,
एक सुलझी हुई, हयात मिले.

हर्फ़ ए आख़ीर हैं, तेरी बातें,
इस में ढूंडा कि कोई बात मिले.

१-सदभाव-सभा २-षड़यंत्र-सूत्र

،صاف سُتھری سی کائنات ملے   
تنگ ذہنوں سے کُچھ نجات ملے٠ 

،سَنسکاروں میں دھرم نہ مذہب 
نہ وراثت میں ذات پات ملے٠ 

،تُجھ سے مل کر گُمان ہوتا ہے
بس کہ جیسے خدا کی ذات ملے٠ 

،اُلجھی گُتّھی ہے سانس کی گردش 
ایک سُلجھی ہوئی حیات ملے٠ 

،آپ کی مجلسِ مقدّس میں 
بس کہ فتنوں کے کُچھ نُکا ت ملے٠ 

،حرفِ آخیر ہیں تیری باتیں 
اس میں ڈھونڈھا کہ کوئی بات ملے٠ 

Tuesday, March 27, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 11



11

वह्म का परदा उठा क्या, हक़ था सर में आ गया,
दावा ऐ पैग़म्बरी, हद्दे बशर में आ गया.

खौ़फ़ के बेजा तसल्लुत1, ने बग़ावत कर दिया,
डर का वो आलम जो ग़ालिब था, हुनर में आ गया.

यादे जानाँ तक थी बेहतर, आक़बत2 की फ़िक्र से,
क्यूं दिल ए  नादाँ, तू ज़ाहिद के असर में आ गया.

जितनी शिद्दत से, दुआओं की सदा कश्ती में थी,
उतनी तेज़ी से सफ़ीना, क्यूँ भंवर में आ गया.

छोड़ कर हर काम, मेरी जान तू लाहौल3 पढ़,
मन्दिर व् मस्जिद का शैताँ, फिर नगर में आ गया.

एक दीन इक बे हुनर, बे इल्म और काहिल वजूद,
लेके पुडि़या दीन की "मुंकिर" के घर में आ गया.

१-लदान २ -परलोक ३-धिक्कार मन्त्र

،وہم کا پردہ اُٹھا کیا، حق تھا سر میں آ گیا 
دعوهء پیغمبری، حدِّ بشر میں آ گیا٠ 

،خوف کے بے جہ تسلّط نے بغاوت کر دیا
ڈر کا وہ عالم جو غالب تھا، ہُنر میں آ گیا٠ 

،یادِ جاناں تک تھی بہتر، عاقبت کی فکر سے 
کیوں دلِ ناداں تو زاہد کے اثر میں آ گیا٠ 

،جِتنی شدّت سے دعا وں کی صدا کشتی میں تھی 
اُتنی تیزی سے سفینہ کیوں بھنور میں آ گیا٠ 

،چھوڑ کر ہر کام میری جان تو لاحول پڑھ 
مندرو مسجد کا شیطاں، پھر نگر میں آ گیا٠ 

،ایک دن اِک بے ہنر، بے علم اور کاہل وجود 
لے کے پُڑ یہ دین کی، منکر کے گھر میں آ گیا٠ 

Monday, March 26, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 10




10

उफ़! दाम ए मग्फ़िरत1 में, बहुत मुब्तिला था ये,
नादाँ था दिल, तलाशे ख़ुदा में पड़ा था ये.

महरूम रह गया हूँ, मैं छोटे गुनाह से,
किस दर्जा पुर फ़रेब, यक़ीन ए जज़ा2 था ये.

पुर अम्न थी ज़मीन ये, कुछ रोज़ के लिए,
तारीख़ी वाक़ेओं में, बड़ा वक़ेआ का था ये.

मानी सभी थे दफ़्न, समाअत की क़ब्र में,
अल्फ़ाज़ ही न पैदा हुए, सानेहा था ये.

हर ऐरे गैरे बुत को, हरम से हटा दिए,
तेरा4 लगा दिया था, कि सब से बड़ा था ये.

'मुंकिर' पड़ा है क़ब्र में, तुम ग़म में हो पड़े,
तिफ़ली5 अदावतों का नतीजा मिला था ये.

 اُف! دام مغفرت میں بہت مبتلا تھا یہ،
 ناداں تھا دل، تلاشِ خدا میں پڑا تھا یہ٠ 

محروم رہ گیا ہوں میں جھوٹے گناہوں سے، 
کس درجہ پُر فریب یقینِ جزا تھا یہ٠  

پُر امن تھی زمین یہ کچھ روز کے لئے، 
تاریخی واقعوں میں بڑا واقعہ تھا یہ٠ 

معانی سبھی تھے دفن ، سماعت کی قبر میں،
الفاظ ہی نہ پیدا ہوئے، سانحہ تھا یہ٠ 

ہر عیرے غیرے بُت کو حرم سے ہٹادئے، 
تیرا لگا دیا تھا، کہ سب سے بڑا تھا یہ٠ 

منکر پڑا تھا قبر میں، تم غم میں تھے پڑے، 
طِفلی عداوتوں کا نتیجہ ملا تھا یہ٠ 

Saturday, March 24, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 9



9

तेरे मुबाहिसों का,ये लब्बो लुबाब है,
रुस्वाए हश्र* हैं सभी, तू कामयाब है.

आंखों पे है यक़ीन, न कानों पे एतबार,
सदियों से क़ौम आला$, ज़रा मह्व ए ख़्वाब है.  

दुन्या समर भी पाए, जो चूसो ज़मीं का ख़ून,
जज़्बा ज़मीं का है, तो यह हरकत सवाब है. 

अफ़सोस मैं किसी की, समाअत3 न बन सका,
चारो तरफ़ ही मेरे, सवालो जवाब है.

पुरसाने हाल बन के, मेरे दिल को मत दुखा,
मुझ में संभलने, उठने और चलने की ताब है.

दर परदा ए ख़ुलूस, कहीं सांप है छिपा,
'मुंकिर' है बूए ज़हर, यह कैसी शराब है.

रुस्वाए हश्र *=प्रलय के पापी $=इशारा मुसलमान ३-श्रवण शक्ति

،تیرے مباحثوں کا یہ لب و لُباب ہے 
رُسواے حشر ہیں سبھی، تو کامیاب ہے٠ 

آنکھوں پہ ہے یقین، نہ کانوں پہ اعتبار 
صدیوں سے قومِ آلہ، ذرا محوِ خواب ہے٠ 

،دنیا ثمر بھی پاۓ، جو چوسو زمین کا خون 
جزبہ شجر کا ہے، تو یہ حرکت ثواب ہے٠ 

،افسوس میں کسی کا سماعت نہ بن سکا 
چارو طرف ہی میرے، سوال و جواب ہے٠ 

،پُرسا ن حال بن کے میرے دل کو مت دُکھا 
مجھ میں سنبھلنے،اٹھنے، سنورنے کی تاب٠ 

،در پردہ خُلوص کہیں سانپ چھپا ہے 
منکر ہے بوۓ زہر، یہ کیسی شراب ہے٠ 

Friday, March 23, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 8



8

अगर ख़ुद को समझ पाओ, तो ख़ुद अपने ख़ुदा हो तुम,
कहाँ किन किन के बतलाए हुओं में, मुब्तिला हो तुम.

है अपने आप में ही खींचा-तानी, तुम लड़ोगे क्या ?
इकट्ठा कर लो ख़ुद को, मुन्तशिर हो, जा बजा1 हो तुम.

मरे माज़ी2 का अपने, ऐ ढिंढोरा पीटने वालो!
बहुत शर्मिन्दा है ये हाल, जिस के सानेहा3 हो तुम.

तुम अपने ज़हर के सौग़ात को, वापस ही ले जाओ,
कहाँ इतने बड़े हो? तोह्फ़ा दो, मुझ को, गदा4 हो तुम.

फ़लक  पर आक़बत 5 की, खेतियों को जोतने वालो,
ज़मीं कहती है इस पर एक, दाग़े बद नुमा हो तुम.

चलो वीराने में 'मुंकिर' कि फ़ुर्सत हो ख़ुदाओं से,
बहुत मुमकिन है मिल जाए ख़ुदाई भी, बजा हो तुम.

१-बिखरे हुए २-अतीत ३-विडम्बना ४-भिखरी ५-परलोक


، اگر خود کو سمجھ پاؤ، تو خود اپنے خدا ہو تم
کہاں کن کن کے بتلاۓ ہوؤں میں، مبتلا ہو تو٠ 

، ہے اپنے آپ میں ہی کھینچا تانی، تم لڑوگے کیا 
اکٹّھا کر لو خود کو، منتشر ہو جا بجا ہو تو. 

، مَرے ماضی کا اپنے، ائے ڈھنڈھو را پیٹنے والو
بہت شرمندہ ہے یہ حال، جس کا سانحہ ہو تو٠ 

، تم اپنے زہر کے سوغات کو واپس ہی لے جاؤ  
کہاں اتنے بڑے ہو، تحفه دو، مجھ کو، گدا ہو تو٠ 

، فلک پر عاقبت کی کھیتیوں کو جوتنے والو 
زمیں کہتی ہے اس پہ ایک داغِ بدنما ہو تو٠ 

، چلو ویرانے میں منکر کہ فرصت ہو خداؤں سے 
بہت ممکن ہے مل جاۓ خدائی ہی، بجا ہو تو٠

Thursday, March 22, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 7



7

हैं मसअले ज़मीनी, हलहाए आसमानी,
नीचे से बेख़बर है, ऊपर की लन तरानी.

फ़रमान सीधे सादे, पुर पेच तर्जुमानी,
उफ़! क़ूवते समाअत* उफ़! हद्दे बे ज़ुबानी.

ना जेबा तसल्लुत1 है, बेजा यक़ीं दहानी2,
ख़ुद बन गई है दुन्या, या कोई इसका बानी.

मैं सच को ढो रहा था, तुम क़ब्र खोदते थे,
आख़िर ज़मीं ने उगले, सच्चाइयों के मअनी.

कर लूँ शिकार तेरा, या तू मुझे करेगा,
बन जा तू ईं जहानी3, या बन जा आँ जहानी4.

ईमान ए अस्ल शायद, तस्लीम का चुका है,
वह आग आग हस्ती, "मुंकिर" है पानी पानी.

* श्रवण-शक्ति १-लदान २-विशवास दिलाना ३-इस जहान के ४-उस जहान के

،ہیں مسئلے زمینی، حل ہاۓ آسمانی 
نیچے سے بے خبر ہے، اوپر کی لَن ترانی٠ 

،فرمان سیدھے سادے، پر پیچ ترجُمانی 
اُف قووت سماعت، اُف حدِ بے زبانی٠ 

،نا زیبہ تسلّط ہے، بے جہ یقیں دہانی 
خود بن گئی ہے دُنیا، یا کوئی اِسکا بانی٠ 

،میں سچ کو ڈھو رہا تھا، تم قبر کھودتے تھے 
آخر زمیں نے اُگلے، سچائیوں کے معنی٠ 

کر لووں شکار تیرا، یا تو مجھے کریگا؟ 
بن جا تو ایں جہانی، یا بن جا آں جہانی ٠ 

،ایمانِ اصل شاید تسلیم کر چکا ہے 
وہ آگ آگ ہستی منکر ہے پانی پانی٠ 

Wednesday, March 21, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 6




6 

तअलीम नई जेह्ल1 मिटाने पे तुली है,
रूहानी वबा है, कि लुभाने पे तुली है.

बेदार शरीअत3 की ज़रूरत है ज़मीं को,
अफ़लाक4 की लोरी ये सुलाने पे तुली है.

जो तोड़ सकेगा, वो बनाएगा नया घर,
तरकीबे रफ़ू, उम्र बिताने पे तुली है.

वह कौन है लोगों की जमाअत कि ज़मीं पर ,
बस ज़िन्दगी का जश्न, मनाने पे तुली है.

मैं इल्म की दौलत को, जुटाने पे तुला हूँ,
क़ीमत को मेरी भीड़, घटाने पे तुली है.

'मुंकिर' की तराज़ू पे, अनल हक़5 वज़न है,
"जुंबिश"है कि तस्बीह के दाने पे तुली है.

१-अंध विशवास २-आध्यात्मिक रोग ३-बेदार शरीअत=जगी हुई नियमावली ४-आकाश ५- मैं ख़ुदा हूँ 


،تعلیم نئی جہل مٹانے پہ تُلی ہے
روحانی وبا ہے کہ لُبھانے پہ تُلی ہے٠ 

،جو توڑ سکےگا وہ بناۓ گا نیا گھر
ترکیبِ رفو عمر بتانے پہ تُلی ہے. 

،بیدار شریعت کی ضرورت ہے زمیں کو
 کی یہ لوری سُلانے پہ تُلی ہے٠ افلاک

،وہ کون ہے لوگوں جماعت کہ زمیں پر 
بس زندگی کا جشن منانے پہ تُلی ہے٠ 

،میں علم کی دولت کو جُٹانے پہ تُلا ھوں 
قیمت کو میری بھیڑ گھٹانے پہ تُلی ہے٠ 

،منکر کے ترازو پہ انلحق کا وزن ہے
جنبش ہے کہ تصبیح کے دانے پہ تُلی ہے٠

Tuesday, March 20, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 5



5

सुममुम बुक्मुम उमयुन कह के, फ़हेम के देते हो ताने,
दिल में मरज़ बढ़ा के मौला, चले हो हम को समझाने.

लम यालिद वलम यूलद, तुम हम जैसे मख़लूक़ नहीं,
धमकाने, फुसलाने की, ये चाल कहाँ से हो जाने?

कभी अमन से भरी निदाएँ, कभी जेहादों के ग़मज़े,
आपस में ख़ुद टकराते हैं, तुम्हरे ये ताने बाने.

कितना मेक अप करते हो तुम, बे सर पैर की बातों को,
मुतरज्जिम, तफ़सीर निगारो! "बड़ बड़" में भर के मअने.

आज नमाज़ें, रोज़े, हज, ख़ैरात नहीं, बर हक़ ऐ हक़!
मेहनत, ग़ैरत, इज़्ज़त, का युग आया है रब दीवाने.

बड़े मसाइल हैं रोज़ी के, इल्म बहुत ही सीखने हैं,
कहाँ है फ़ुरसत सुनने की अब, फ़लक ओ हशर के अफ़साने.

कैसे इनकी, उनकी समझें, अपनी समझ से बाहर है,
इनके उनके सच में "मुंकिर" अलग अलग से हैं मअने.

नोट-पहले तीन शेरों में शायर सीधा अल्लाह से मुखातिब है , चौथे में उसके एजेंटों से 
और आखिरी तीन शेरों में आप सब से. अर्थ गूढ़ हैं, काश कि कोई सच्चा इस्लामी विद्वान् आप को समझा सके.

سُمّم ،بُکمُم ، اُمیُن کہکے، فَہم کے دیتے ہو تعانے، 
دل میں مرَض بڑھا کے مولہ ، چلے ہو ہم کو سمجھانے ٠ 

لَم یَلِد ولَم یولَد ، تم ہم جیسی مخلوق نہیں، 
دھمکانے ، پُھسلنے کی یہ چال ، کہاں سے ہو جانے ٠ 

کبھی امن سے بھری ندایں ، کبھی جہادوں کے غمزے، 
آپس میں ٹکراتے ہیں ، تمہرے یہ تانے بانے ٠ 

کتنا میکپ کرتے ہو تم، بے سر پیر کی باتوں کو، 
متَرجّم ، تفسیر نگارو ، بڑ بڑ میں بھر کے معنے ٠ 

آج نمازیں، روزے، حج، خیرات نہیں بر حق، اے حق! 
محنت، غیرت، عزت کا یُگ آیا ہے، رب دیوانے ٠ 

بڑے مسائل ہیں روزی کے ،علم بہت سے باقی ہیں، 
کہاں ہے فرصت سننے کی ، اب فلق و حشر کے افسانے ٠ 

کیسے اِنکی اُنکی سمجھیں ، اپنی سمجھ سے باہر ہے، 
اِنکے اُنکے سچ میں منکر ، الگ الگ سے ہیں معنے ٠ 

Monday, March 19, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 4




4

पोथी समाए भेजे में, तब कुछ यक़ीं भी हो,
ऐ गूंगी कायनात ! ज़रा नुक़ता चीं भी हो.

खोदा है इल्मे नव ने, अक़ीदत के फ़र्श को,
अब अगले मोर्चे पे, वह अर्श ए बरीं2 भी हो.

साइंस दाँ हैं बानी, नए आसमान के,
पैग़म्बरों के पास ही, इन की ज़मीं भी हो.

ऐ इश्तेराक़3 ठहर भी, जागा है इन्फ़्राद4,
कहता है थोडी पूँजी, सभी की कहीं भी हो.

बारूद पर ज़मीन , हथेली पे आग है,
है अम्न का तक़ाज़ा, कि हाँ हो, नहीं भी हो.

'मुंकिर' भी चाहता है, सदाक़त5 पे हो फ़िदा,
इन्साफ़ व् आगाही6 को लिए, तेरा दीं7 भी हो.

२-सातवाँ आसमान ३-साम्यवाद ४-व्यक्तिवाद ५-सच्चाई ६न्याय एवं विज्ञप्ति ७-धर्म

،پوتھی سماۓ بھیجے میں، تب کچھ یقی بھی ہو 
ائے گونگی کائنات ! ذرا نقطہ چیں بھی ہو٠ 

،کھودا ہے علم نو نے، عقیدت کی قبر کو 
اب اگلے مورچہ پہ، یہ عرشِ بریں بھی ہو٠ 

،سائنس داں ہیں بانی، نئے آسمان کے 
پیغمبروں کے ساتھ ہی، انکی زمیں بھی ہو٠ 

،ائے اشتراق ٹھہر بھی ، جاگا ہے انفراد 
کہتا ہے تھوڑی پونجی، سبھی کی کہیں بھی ہو٠ 

،بارود پر زمیں ہے ، ہتھیلی پہ آگ ہے 
ہے امن کا تقاضہ کہ، ہاں بھی ، نہیں بھی ہو٠ 

،منکر بھی چاہتا ہے، صداقت پہ ہو فدا 
انصاف و آگہی کو لئے، تیرا دین بھی ہو٠ 

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 3




3

सब रवाँ मिर्रीख़ पर, और आप का यह दर्स ए दीन,
काफ़िरीन व् मुशरिकीन व् मुनकिरीन व् मोमनीन3.

रौशनी कुछ सर पे कर लो, ताकि परछाईं का क़द,
छोटा हो जाए, तुम्हें कुछ अपने क़द पर हो यक़ीन.

सीखते क्या हो, इबादत और शरीअत के उसूल,
है ख़ुदा तो चाहता होगा, क़तार ए ग़ाफ़िलीन.

तालिबाने अफ़ग़नी, और कार सेवक हैं अडे़,
वह बजाएं, अपनी ढपली, यह बजाएं अपनी बीन.

जाने कितने काम बाक़ी हैं, जहाँ में और भी,
थोड़ी सी फ़ुर्सत उसे, दे दे ख़याल ए  नाज़नीन.

साहबे ईमाँ! तुम्हारे हक़ में है 'मुंकिर' की राह,
सैकड़ों सालों से, ग़ालिब हैं, ये तुम पर फ़ासिक़ीन4

१-मंगल ग्रह पर २-धर्म-शास्त्र दर्शन ३-शास्त्र-शीर्षक ४-झूठे


،سب رواں مِرّیخ پر، اور آپ کا یہ درسِ دین، 
کافرین و مُشرکین و منکرین و مومنین٠ 

،روشنی کچھ سر پہ کر لو، تاکہ پرچھائیں کا قد 
چھوٹا ہو جاۓ، تمہیں کچھ اپنے قد پر ہو یقین٠ 

،سیکھتے کیا ہوعبادت اورشریعت کے اُصول 
.ہے خدا تو جاہتا ہوگا قطارِ غافلین 

,طالبانِ افغنی اور کار سیوک ہیں اڑے 
.یہ بجائیں اپنی ڈفلی، وہ بجائیں اپنی بین 

،جانے کتنے کام باقی ہیں، جہاں میں اور بھی 
.تھوڑی سی فرصت اسے دےدے ، خیالِ نازنین 

،صاحبِ ایماں تمہارے حق میں ہے منکر کی راہ 
سیکڑوں سالوں سے غالب ہیں یہ تم فاسقین٠

Saturday, March 17, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 2



शोर ए किब्रियाई1 है, और स्वर हरे ! हरे !!
बख़्श दे इन्हें ख़ुदा, ईशवर उन्हें तरे.

वह है सच जो तूर पर, माइले ए कलाम है?2
या कि उस पहाड़ पर, जो कि है जटा धरे??

आसमाँ पर वह उड़ा, आप का यक़ीं अरे?
कैसा आदमी था वह, अपनी ज़ात से परे?

क़ब्र को खिला रहे हो, तुम सवाब की ग़िज़ा,
तुम को क्या ज़मीन, पर कोई भूक से मरे.

यह ख़ुदा का घर नहीं है, तेरे घर में है ख़ुदा,
क्यूँ भटक रहा है तू, काबा काशी बाँवरे.

है ख़बर कि चल पड़े, दोनों तेरी राह पर,
ये ख़बर भी आएगी, दोनों फिर से लड़ मरे.

१-ईश वंदना का शोर २-अर्थात मूसा जो तूर पर्वत पर जाकर ईश्वर से बातें करते थेs

!شورِ کِبریائی ہے اور سوَر ہرے! ہرے 
اِنکو خدا نجات دے، اُنکو ا یشور ترے٠ 

وہ ہے سچ جوطور  پر مائلِ کلام ہے
یا کہ اُس پہاڑ پر جو کہ ہے جٹا دھرے٠ 

آسماں پہ وہ اُڑا ؟ آپ یقیں ارے!  
کیسا آدمی تھا وہ؟ اپنی ذات سے پرے٠ 

قبر کو کھلا رہے ہو تم، ثواب کی غذا 
تم کو کیا زمین پر، کوئی بھوک سے مرے٠ 

یہ خدا کا گھر نہیں ہے، تیرے گھر میں ہے خدا
کیوں بھٹک رہا تو، کعبہ کاشی بانورے

ہے خبر کہ چل پڑے، دونوں تیری راہ پر 
یہ خبربھی آیگی، باہمی وہ لڑ مرے٠ 

Friday, March 16, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 1




1

किताब सर से उतारा है, कहे देता हूँ,
हमारे सर में भी पारा है, कहे देता हूँ.

फ़क़त नहीं वह तुम्हारा है, कहे देता हूँ,
सभी का उस पे इजारा है, कहे देता हूँ.

सवाब पढ़ के पढ़ा के मिले, तो लअनत है,
सवाब जीना गवारा है, कहे देता हूँ.

हिफ्ज़ ए रूदाद ऐ हाफ़िज़ है तज़ीउल वक़ती,
यह सर का भारी ख़सारा1 है, कहे देता हूँ.

दिमाग़ माने, कोई धर्म या कोई मज़हब,
लहू में पुरखों की धारा है, कहे देता हूँ.

यही इनकार तो 'मुंकिर'की जमा पूँजी है,
इसी ने उसको संवारा है, कहे देता हूँ.

हिफ्ज़ ए रूदाद =दास्तान कंठस्त , तज़ीउल वक़ती=समय की बर्बादी १-हानि 

کتاب سر سے اُتارا ہے، کہے دیتا ہوں، 
ہمارے سر میں بھی، پارہ ہے کہے دیتا ہوں. 

فقط نہیں وہ تمہارا ہے کہے دیتا ہوں، 
سبھی کا اُس پہ اِجارہ ہے کہے دیتا ہوں. 

ثواب پڑھ کے پڑھا کے ملے تو لعنت ہے، 
ثواب جینا گوارہ ہے کہے دیتا ہوں. 

حفظِ روداد ائےحافظ! ہےتضیع الوقتی، 
یہ سر کا بھاری خسارہ ہے کہے دیتا ہوں. 

دماغ مانگے کوئی دھرم، یا کوئی مذہب، 
لہو میں پُرکھوں کی دھارا ہے کہے دیتا ہوں. 

یہی انکار تو منکر کی جمع پونجی ہے، 
اِسی نے اُسکو سنوارا ہے کہے دیتا ہوں٠

जुंबिशें - - - तमहीद




मअज़रत

मेरे यारो ! न गर बुरा मानो,
देर तक मेरे पास मत बैठो,
मेरी दुल्हन उदास होती है,
तनहा पाकर ही पास होती है. 

मेरी दुल्हन है मेरी तन्हाई,
लेके आती है ऐसी अंगड़ाई,
कायनातों का राज़ देती है,
शेर माँगूं बयाज़2 देती है. 
१ क्षमा याचना २ कविता-पोथी 

معذرت

میرے یارو نہ گر بُرا مانو، 
دیر تک میرے پاس مت بیٹھو، 
میری دُ لہن اُداس ہوتی ہے، 
تنہا پا کر ہی پاس ہوتی ہے.
میری دُلہن ہے میری تنہائی، 
لے کے آتی ہے ایسی انگڑائی، 
کائناتوں کا راز دیتی ہے، 
شعر مانگوں، بیاض دیتی ہے٠

जुंबिशें - - - तअर्रुफ़






हिन्दू के लिए मैं इक, मुस्लिम ही हूँ आख़िर,
मुस्लिम ये समझते हैं, गुमराह है काफ़िर,
इंसान भी होते हैं, कुछ लोग जहाँ में,
गफ़लत में हैं ये दोनों, समझाएगा 'मुंकिर'.  



ہندو کے لئے میں اک مسلم ہی ہوں آخر، 
مسلم یہ سمجھتے ہیں، گمراہ ہے کافر،
انسان بھی ہوتے ہیں کچھ لوگ جہاں میں،
غفلت میں ہیں یہ دونوں، سمجھاۓ گا 'منکر'٠ 

Saturday, March 3, 2018

जुंबिशें - - - सलाम उन पर



सलाम उन पर - - -

अपनी माँ सुग़रा बेगम पर सलाम, जिनको कि उनके बच्चे बीबी कहते थे.
बहुत धुंधली सी सूरत उनकी मेरे ज़ेहन में बसी है.
मैं पांच छः साल का था कि वह चल बसीं.
अपनी प्यारी नानी पर सलाम जिनका ज़िक्र मैं पहले कर चुका हूँ,
जिनका रंग रूप और रूह मेरे वजूद में बसा हुवा है.
नानी के भाई नाना निसार ख़ान पर सलाम जिनकी तक़रीरों से मेरी मालूमात की बुन्यादें पड़ीं.
भाई मुहम्मद अजमल ख़ान पर सलाम जिनकी खट्टी मीठी यादगारें मेरे ज़ेहन पर नक्श हैं.
मामा मुंशी आफ़ाक़ पर सलाम जो मेरे उस्ताद भी थे.
स्वर्गीय राम आश्रय मिश्र पर सलाम जो सर्वोदय विद्या पीठ इंटर कालेज सलोन के प्रिंसपल थे, (साहब) मेरे आदर्श रहे, मैं उनका प्रिय था.
अपने बचपन के दोस्तों, फुससन, रज़ी, अतहर, सामिन को सलाम भेजता हूँ जो आज भी मुझे माज़ी की वादियों में पहुंचा देते हैं.
मेरे चतीते नफ़ीस और मुबीब भाई को सलाम 
और मेरे रहबर दोस्त शरीफ़ भाई (जिन्होंने ने मुझे दहरियत के ख़ला में ढकेल कर ख़ुद कनारे खड़े हो गए.) पर  सलाम. 
अतीक़ बरकाती को सलाम जो लोगों के काम आते रहते हैं और लोग उनके.
मास्टर शहिद को सलाम जो बहर हाल मुझे अज़ीज़ हैं.
जनाब फ़ारूक़ अहमद जायसी को ख़ुसूसी सलाम जिन्हों ने मेरी शायरी के मुंह पर अरूज़ी लगाम लगा दिया.
आख़ीर में उन सभी परियों को सलाम जिनसे कभी मेरा साहब सलाम हुवा करता था.
सलाम के बाद उन मासूमों को दुआएं जो मेरा मुस्तकबिल हैं.
डा. आसिया चौधरी अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर की हैसियत से नस्लों को इल्म  बाट रही है,
कहते हैं हर मर्द की कामयाबी में किसी औरत का हाथ होता है,
मगर आसिया की कामयाबी में उसके मर्द शिक़वत अली "ग़यास" का हाथ है. दोनों को दुआओं के साथ साथ उनके बच्चों अशअर और सारिया को दुआएं.
दुआएँ मेरी छोटी बेटी फ़रह ख़ान को, जो अपने शौहर कर्नल अशरफ़ ख़ान, अपने बेटी अनमोल और बेटे अरमान के साथ मुमबासा में क़याम  करती है .
अनमोल नें मेरे ख़्वाबों को साकार किया है,
मास्को में स्पेस साइंस (अंतरिक्ष विज्ञान) में तालीम हासिल कर रही है.
बड़ा बेटा फ़ैज़ी चौधरी अपने परिवार के साथ UK जा बसा. ज़ायान और सारा हमारे पोते और पोती को दुआएँ.
आख़ीर में दुआएं अपने छोटे बेटे मंज़र चौधरी (बाबर) को
जो बैंगलुरू में अपने परिवार अतिया दो बच्चे ज़ारा और जिबरान के साथ करता है.   

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जुंबिशें - - - नईं अज़ान



नईं अज़ान 

यह धर्म और मज़हब इंसान के लिए अगर कारगर होते तो सदियों पहले आदमी इंसान बन चुका होता.
दर अस्ल इसने हमेशा इंसान और इंसानियत का बुरा ही किया है. 
जितना इंसानी ख़ून मज़ाहिब ने पिया है उतना किसी दूसरी तहरीक ने नहीं. अवतारों और पयम्बरों के ज़माने में ही बड़ी बड़ी जंगें हुईं, 
महा भारत हुईं है जिनको धर्म युद्ध अथवा जिहाद का नाम देकर पवित्र कर लिया गया.
धर्म गुरुओं ने कभी भी आदमी को इन्सान बन कर इंसानी आज़ादी नहीं दी.
बस मनवाया है पहले अपने गढ़े हुए ख़ुदा को, बाद में ख़ुद को.
इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलेगी कि देश में मज़हबी हुकूमत क़ायम हुई हो और पड़ोस में अमन रहा हो. रातों को भेस बदल कर अपनी रिआया का दुःख दर्द समझने वाले हुक्मराँ, 
दिन में दूसरे मुल्क पर हमला करने का फ़रमान जारी किया करते थे.
मौजूदा बड़े बड़े देवालय और बारगाहें लूट मार से वसूली गई दौलत से बनी हुई हैं. 
अजीब बात हुवा करती थी कि अपना धर्म को दूसरे पर थोपें, 
न माने तो गर्दन उड़ा दें, उसके बाद इस ज़ुल्म को जिहाद का नाम दें.
नया युग आ गया है. आप  पूरा यक़ीन कर सकते हैं कि अतीत की ग़ैर फ़ितरी (अलौकिक) मज़हबी बातें,जन्नत और दोज़ख कोरी कल्पनाएँ हैं. वैज्ञानिक खोजें इन मीनारों को ध्वस्त कर चुकी हैं, फिर भी इनका भूत आप के पिंडों को नहीं छोड़ता. यह कब तक चलेगा, हम कब तक झूट को जीते रहेंगे.
पेश किताब से मैंने शाइरी के तसव्वुत (माध्यम) से इंसानी ज़ेहन को 'जुंबिशें' दी है.
मैं नहीं जानता कि मैं शायर हूँ भी कि नहीं, मगर मैंने इतना ज़रूर जाना है कि अपनी बातें दो लाइन में कहने के लिए शायरी से बेहतर कोई माध्यम नहीं.
शेर ऐसा कैप्शूल है जिसे आसानी से निगला जा सकता है.
तवील मज़ामीन को पढ़ने के लिए किसी के पास वक़्त नहीं.
मेरे अशआर रंगीन, संगीन और ग़मगीन कैप्शूलों में बंद हैं, किसी तरह भी इनके असरात लोगों के दिमागों में पहूँचे और हलचल पैदा करे.
मौजूदा समाज को ज़ेहनी इलाज के लिए 'जुंबिशें' दे रहा हूँ.
मैं ख़ूब जानता हूँ कि सोए हुए व्यक्ति को जुंबिशें नागवार गुज़रती हैं, 
उनकी नींद में ख़लल जो पड़ता है.
वह झिंझोड़ने वाले को लाल पीली नज़रों से तो देखते ही हैं, 
फिर होश संभाल कर बैठ जाते है. 
मुझे पूरी उम्मीद है कि "जुंबिशें" उनको जब पूरी तरह से जगा देंगी तो वह मेरे अच्छे दोस्त बन जाएँगे.
जुंबिशें मेरी उरियां (नग्न) सदाक़तों की रोशनाई से लिखी हुई इबारतें हैं. 
मैंने कहीं कोई मस्लेहत और लिहाज़ नहीं बरती. 
मेरे हिसाब से यह बुज़दिली की अलामतें हैं. 
इन्हीं की वजह से मरज़ के जरासीम पनपते हैं.
जुंबिशें बहुत सा पड़ाव पेश करती हैं, हर पड़ाव पर आपको रुकना होगा, एक लंबी सांस लेकर फ़ितरत को निहारना होगा, आपको अपनी हस्ती का पता मिलेगा जो कि कहीं खोई हुई है. जब आप अपने आपको पा जाएँगे तो आपको किसी की ज़रुरत नहीं होगी. 
यह कितना बड़ा सनेहा (विडंबना) कि आप ख़ुद अपने आपसे नहीं मिलते.
जुन्बिशों की घटनाओं को आप अपने अन्दर घट जाने दें, 
आपको नज़रयाती गुलामी से नजात मिल जाएगी. 
उसके बाद आप होंगे और उसके बाद भी सिर्फ़ आप ही होंगे. 
इंसान ख़ुद को पा जाए तो यह उसके लिए सबसे बड़ा इनआम है. 
धर्म व मज़हब, ज़ात पात से मुक्त हो जाएँगे, कोई पराया न रह जाएगा. वजूद पर लदे इन तमाम बोझों से सुबुक दोशी होगी. 
ला महदूदयत (अनन्त) मज़ा आने लगेगा. न आपका कोई हक्वारा होगा न आप किसी पर ग़ालिब होना पसंद करेंगे. 
कोई झूट आपसे नज़रें मिलाने की हिम्मत न कर सकेगा. 
हम सभी कायनात के एक ज़र्रे हैं, 
बहुत कम वक़्त के लिए इसके दायरे में आए हैं,

पाई है हम ने जहाँ में गुल की मानिंद ज़िदगी,
रंग बन कर आए हैं, बू बन के उड़ जाएँगे हम.

कुछ देर के लिए स्टेज पर आए हैं, अपने रोल करके चले जाएँगे. 
स्टेज पर डेरा नहीं डालेंगे.
मैं तमाम  ख़ल्क़ का ख़ैर ख्वाह हूँ. 
हमारे इंसानी मज़हब में अदावत हराम है.
साथ साथ ग़लत को क़ायम रखना भी  हमें गवारा नहीं.
आइए हम सब मिल कर इंसान और सिर्फ़ इंसान बन जाएं.
इंसान के सिवा कुछ भी बाक़ी न बचें.
हर ज़ेहन में इंसानियत की रूह फूकें.
हर तरफ इंसानियत की खुशबू बिखेरें.
बिरादराना एकता से परे, 
ओछी पहचानो से दूर, 
सरहदी हद बंदियों से बेख़बर,
हम मुसलसल इंसानी आबादी बन जाएं.
पाषाण युग की तरह अतीत के धर्म व मज़हब को इतिहास के अजायब घर में रख दें. हमारा मज़हब एक, बस मज़हब ए इंसानियत हो.
इसकी ज़रुरत सिर्फ़ मानव जाति को ही नहीं, बल्कि धरती के हर जीव को है.
मेहनत हमारा दीन हो,
इन्साफ़ की रोटी हमारा ईमान हो,
इंसानी हुक़ूक़ की भरपाई हमारी पूजा हो और इबादत हो.
इस धरती को सजाना और संवारना हमारा मक़सद ए हयात हो.
इससे ज़्यादा और क्या चाहिए हमारी नस्लों को ?
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