Friday, August 12, 2016

Junbishen 746



ग़ज़ल

मंजिल है पास, पुल का ज़रा एहतराम हो,
बानी पे इसके थोड़ा दरूद ओ सलाम हो. 

गाँधी को कह रही है, वह शैतान का पिसर,
जम्हूरियत के मुंह पे, ज़रा सा लगाम हो. 

इतिहास के बनों में, शिकारी की ये कथा ,
इसका पढ़ाना बंद हो, ये क़िस्सा तमाम हो. 

माल ओ मता ए उम्र के, सिफ्रों को क्या करें ,
गर सामने खड़ी ये हक़ीक़त की शाम हो. 

कुछ इस तरह से फतह, हमें मौत पर मिले,
सुकराती एतदाल हो, मीरा का जाम हो. 

कितनी कुशादगी है शराब ए हराम में ,
सर पे चढ़ा जूनून ए अकीदा हराम हो. 

غزل
منزل ہے پاس پل کا ذرا احترم ہو 
بانی پہ اس کے تھوڑا درود و سلام ہو ٠ 

گاندھی کو کہہ رہی ہے وہ شیطان کا پسر 
جمہوریت کے منھہ پہ زرا سی لگام ٠ 

تاریخ کے صفحات پر ظالم کی داستاں 
اسکا پڑھنا بند ہو، قصّہ تمام ہو ٠ 

مال و متاۓ عمر کے سفروں کو کیا کریں 
گر سامنے کھڑی یہ حقیقت کی شام ہو ٠ 

اس طرح کی فتح کہ مجھے موت پر ملے 
سقراتی عتدال ہو ، میرا کا جام ہو ٠ 

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