Monday, June 27, 2016

Junbishen 807


ग़ज़ल 

कम ही जानें कम पहचानें, बस्ती के इंसानों को,
वक़्त मिले तो आओ जानें, जंगल के हैवानों को.

अश्के गराँ जब आँख में  आएँ, मत पोछें मत बहने दें,
घर में फैल के रहने दें, पल भर के मेहमानों को.

भगवन तेरे रूप हैं कितने, कितनी तेरी राहें हैं,
कैसा झूला झुला रहा है, लोगों के अनुमानों को.

मुर्दा बाद किए रहती हैं, धर्म ओ मज़ाहिब की जंगें,
क़ब्रस्तनों की बस्ती को, मरघट के शमशानों को.

सेहरा के शैतान को कंकड़, मारने वाले हाजी जी!
इक लुटिया भर जल भी चढा, दो वादी हे भगवानो को.

बंदिश हम पर ख़त्म हुई है, हम बंदिश पर ख़त्म हुए,
"मुंकिर" कफ़न की गाठें खोलो, रिहा करो बे जानो को.
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غزل
کم ہی جانیں ، کم پہچانے ، بستی کے انسانوں کو
وقت ملے  تو آؤ سمجھیں ، جنگل کے حیوانوں کو ٠ 

اشک گراں جب آنکھ میں آئیں ، مت پوچھو، مت بہنے دو 
گھر میں پھیل کے رہنے دیں ، پل بھر کے مہمانوں کو ٠ 

بھگون تیرے روپ ہیں کتنے ، کتنی تیری راہیں  ہیں
کیسا جھولا جھلا رہا ہے ، لوگوں کے انومنوں کو ٠ 

کیوں آباد کئے رہتی ہیں ، دھرم و مذاہب کی جنگیں
قبرستانوں کی بستی کو ،مرگھٹ کے شمشانوں ٠ 

سہرا کے شیطان کو کنکڑ، مار کے زخمی کر آے ؟
اک لٹیا بھر جل بھی چڑھا دو ، وادی کے بھگوانوں کو ٠ 

بندش مجھ پر ختم ہوئی ہے ، میں بندش پر ختم ہوا 
لوگو! کفن کی گا ٹھیں کھولو ، رہا کرو بے جانوں  کو ٠ 

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