Friday, April 29, 2016

Junbishen 783

नज़्म 

 ताखीर के अंदेशे 

खोल दो दिल के दरीचे को, तुम पूरा पूरा, 
मैं भी पर पूरे समेटूँ तो कोई बात बने, 
मुन्तज़िर तुम भी हो इक ख़ाली मकाँ के दर पे,
मैं भी उतरा हूँ ख़लालों से फ़ज़ा की छत पर. 

ज़ेहनी परवाज़ का पंछी था हुमा से आगे ,
हुस्न परियों का, फरिश्तों की तबअ थी चाहत ,
ढूँढता फिरता था, ये नादिर ए मुतलक़ कोई ,
तुम शायद हो पश ओ पेश में, मेरी ही तरह।

इनको गर ढूँढा किए, फिर तो जवानी दोनों ,
सूखे गुल बन के,किताबों में सिमट जाएंगे ,
दिल के दहके हुए आतिश कदे बुझ जाएँगे ,
आख़िरत की ये बहुत ही बुरी पामाली है .

पहली दस्तक के तकल्लुफ़ में हैं दोनों शायद ,
आओ इस धुंध की वादी में, क़दम बढ़ जाएं ,
और फिर आलम ए राहत में हो कुर्बत इतनी ,
मसलहत साज़ बनी बंदिशों की गाँठ खुलें ,

मेरे पेशानी पे तुम होटों से पैगाम लिखो ,
मैं सियह ज़ुल्फ़ पे तकमील के पैगाम पढूं .



تاخیر کے اندیشے 

کھول دو تم بھی کبھی ، دل کے دریچے پورے  
میں بھی پر تھوڑا سمیٹوں ، تو کوئی بات بنے  
منتظر تم بھی ہو اک ، خالی مکان کے در پہ  
میں بھی اترا ہوں ، خلاؤں کی فضا سے چھت پر ٠ 

ذہنی پرواز کا پنچھی ، تھا ہمارے آگے 
حسن پریوں کا ، فرشتوں کی طبع تھی چاہت  
ڈھونڈھتا پھرتا تھا دل ، نادر متلعق کوئی  
تم بھی شاید ہو پش و پیش میں میری ہی طرح ٠ 

ان کو گر ڈھونڈھا کئے ، تب تو جوانی دونوں  
سوکھے گل بن کے ، کتابوں میں سمت جاینگے  
دل کے دھکے ہوئے ، آتش کدے بھجھ جاینگے
آخرت کی یہ بہت ہی بڑی پامالی ہے ٠ 

پہلی دسخط کے تکلّف میں ، ہیں دونوں شاید  
آؤ اس دھندہ کی وادی میں ، قدم بڑھ جین 
اور پھر عالم راحت میں ، ہو قربت اتنی 
مصلحت ساز بنی ، بندشوں کی گانٹھ کھلے  
میری پیشانی پہ ، تم ہوٹوں سے پیغام لکھو  
میں سیہ زلفوں پہ ، تکمیل کے فرمان پڑھونم ٠ 

Tuesday, April 26, 2016

Junbishen 782

नज़्म 

हुस्न का गवाह 

हुस्न मह्व ए ख़्वाब था और निहाँ थे हम ,
हुस्न माँ का अज्म था और अयाँ थे हम. 
उंगलियाँ पकड़ के हम , हुस्न की बड़े हुए ,
हुस्न था किताब ए नव , बेज़ुबां थे हम .
नव जवाँ के ज़ेहन पे, कशमकश के अक्स थे ,
हुस्न दावतों में था , मेजबाँ थे हम .
आसमाँ ज़मीं पे था , हम थे आसमान पर ,
हुस्न शोला बार था , जब जवाँ थे हम .
कारवां गुज़र गया , हम गुबार हो गए ,
हुस्न इक गुरैज़ था , जब खिज़ां थे हम .
हम तो बस हुबाब थे , उम्र ए बे सबात थे, 
हुस्न था रवाँ दवाँ , बेनिशान थे हम .

نظم 

حسن کا گواہ 

حسن محو خواب تھا ، اور نہاں تھے ہم 
حسن ماں کا عزم تھا ، اور عیاں  تھے ہم .
انگلیاں پکڑ کے ہم، حسن کی جواں ہوئے 
حسن تھا کتاب نو ، اور جواں تھے ہم .

نو جواں کے ذہن پر، کشمکش کے عکس تھے 
حسن دعوتوں میں تھا ، میزباں تھے ہم 
آسماں زمیں پہ تھا ، ہم تھے آسمان پر 
حسن شولہ بار تھا ، جب جواں تھے ہم 
کارواں گزر گیا ، ہم غبار رہ گے 
حسن اک گریز تھا ، ناتواں تھے ہم
ہم تو بس حباب تھے ، عمر  بے ثبات تھے 
حسن تھا رواں دواں ، بے نشاں تھے ہم .
  

Monday, April 25, 2016

Junbishen 781


नज़्म 

मौसम का चितेरा 

बाहर निकल के देखो, मौसम का रंग क्या है ?
तूफ़ान थम चुका है ? आसार ए जिंदगी है ?

छूकर बताओ मुझको , कुछ नाम हुई ज़मीं क्या ?
फ़सलों के चरिन्दे वह, क्या दूर जा चुके हैं ?

बीजों के चोर चूहे, क्या कर गए हैं रुखसत ?
बेदार हो चुके हैं , क्या लोग इस ज़मीं के ? 

इंसानियत की फसलें, क्या रोपी जा सकेंगी ?
पौदों को सर पे रख्खे, रख्खे मैं थक गया हूँ।

मुरझा न जाएं खुशियाँ, मैं इनको रोप डालूँ।

نظم 

موسم کا چتیرا 

باہر نکل کے دیکھو ، موسم کا رنگ کیا ہے 
طوفان تھم گیا ہے ، آثار زندگی ہے 

چھو کر بتاؤ ہم کو ، کچھ نم ہوئی  زمیں کیا ؟
فصلوں کے چرندے کیا ، کچھ دور جا چکے ہیں ؟

بیجوں کے چھور چوہے ، کیا ہو چکے ہیں رخصت ؟
بیدار ہو چکے ہیں کیا لوگ ، اس صدی کے ؟

انسانیت کی فصلیں ، کیا روپی جا سکیںگی ؟
پودوں کو سر پہ رکھکھے ، میں تھک گیا ہوں یارو 

مرجھا نہ جایں خوشیاں ، میں انکو روپ ڈالوں ٠ 

*****************

Friday, April 22, 2016

Junbishen 780


जवाब बराय जवाब

गौरव का सफ़र अब वह, इस उम्र में कर गुज़रा,
अपना तो कबीला ही, मसरूफ़ ए सफ़र गुज़रा।

न देश कोई इसका, न वंश कोई इसका,
अपना ही बना डाला, हर शू को जिधर गुज़रा।

परहेज़ नहीं करता, बेवाओं यतीमों से, 
मज़लूम पनाहों का, मंज़ूर नज़र गुज़रा।

मस्जिद में जगह दे दी,दलितों को अछूतों को,
पैदाइशी पापी के, विश्वास से दर गुज़रा।

ये राह ए सफ़र इसकी, सदियों की पुरानी है,
तक़लीद में उसके, जो लेके नए पर गुज़रा।

इंसान बना , ख़ुद बन, हिन्दू  बना न मुस्लिम,
इक्कीसवीं सदी है, दसवीं में किधर गुज़रा।



جواب براے جواب 

گورو کا سفر اب وہ ، اس عمر میں کر گزرا 
اپنا تو قبیلہ ہی، مصروف سفر گزرا ٠ 

نہ دیش کوئی اسکا ، نہ ونش کوئی اسکا 
اپنا ہی بنا ڈالا ، ہر شو کو جدھر گزرا ٠

پرہیز نہیں کرتا ، بیواؤں یتیموں سے 
مظلوم پناہوں کا ، منظور نظر گزرا ٠

مسجد میں جگہ دیدی ، دلیتوں کو اچھوتوں کو
پیدائشی پا پی کے، وشواس سے در گزرا ٠

یہ راہ سفر اسکی ، صدیوں کی پرانی ہے
تقلید میں جسکے تو ، لے کے نیے پر گزرا ٠

انسان بنا خود کو ، ہندو نہ بنا مسلم 
اکیسویں صدی میں ، دسویں میں کدھر گزرا؟ ٠

*************

Wednesday, April 20, 2016

Junbishen 779



नज़्म 
वजूद के औराक़ 

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
लाखों सालों का सफ़र है मेरा,
हादसों और वबाओं से बचाता खुद को ,
अरबों सालों की विरासत हूँ मैं।

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
जानते हो मुझे तुम लाल बुझक्कड़ की तरह,
नाप देते हो मुझे तुम कभी कुछ सालों में ,
तो कभी पाते हो कुछ सदियों की तारीख़ों में,
मेरे आग़ाज़ का पुतला बनाए फिरते हो,
कुंद ज़ेहनों से गढ़ा धरती का पहला इन्सां ,
जा बजा उसकी कहानी सुनाए रहते हो ,
मेरे माज़ी के वकीलान ओ गवाहान ए वजूद ,
तुमको लाहौल के शैतान नज़र आते हैं।

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
मेरे माज़ी में नहीं है, कहीं भी कुफ़्र कोई,
नक़्श फ़ितरत हूँ , सदा मुंकिर ओ इक़रारी हूँ,
लड़ते भिड़ते हों ख़ुदा जब तो खुला मुल्हिद हूँ,
दहरी गोदों का हूँ पर्वर्दा, दहरिया हूँ मैं।

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
मेरी तहजीब तो ज़ीने बज़ीने चढ़ती है , 
अपने बुन्याद के पत्थर का पास रखते हुए ,
वक़्त को रोज़ नए रूप का पैकर देकर,
आलम ओ बूद को कुछ नक़्श ए क़दम देती है।
मेरी तहज़ीब रवाँ रहती है आगे के लिए,
वादी में बस्ती हुई, पर्बतों पे चढ़ती हुई 
देवियाँ रचती हुई, देवता रचाती हुई ,
नित नई खोज नए इल्म ओ फ़न को पाती हुई ,
जनती रहती है अजंता, एलोरा, खजुराहो ,
मिस्र को क़ल्ब ए पिरामेड अता करती है,
रुक भी जाती है पडाओं पे कभी थक कर ये, 
जिसको कुछ लोग ये कहते हैं की मंजिल है यही,

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
रखने आते हैं सफ़र में मेरे अक्सर यूँ ही,
और आती है गुबारों की फ़िज़ा राहों में,
मैं ज़रा देर को रुक जाता हूँ,
उनकी गिरदान हुवा करती है उलटी गिनती,
वह तवाज़ुन को तहो बाला किया करते हैं ,
ज़ाया कर देते हैं बरसों की जमा पूँजी को ,
ज़ेर ए पा ज़ीने हटाते हैं, मेरे हासिल के ,
करते रहते हैं मुअल्लक़ मेरी मीनारों को,
बरसों लगते हैं मुझे फिर से सतह पाने में,

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
मेरी तक्मीली हकीक़त ये है - - -
" वादी मख़लूक़ की है और गुल ए इन्सां मैं हूँ ,
मेरे खुशबू को नज़रिए की ज़रुरत ही नहीं 
बनने वाला हूँ मुकम्मल इन्सां 
मेरी रंगत को नहीं चाहिए कोई मज़हब"

*********
نظم 

وجود کے اوراق 

ارتقا زکے مرے اوراق پڑھو ٠
لاکھوں سالوں کا سفر ہے میرا 
حادثوں اور وباؤں سے، بچاتا خود کو 
اربوں سالوں کی، وراثت ہوں میں 

ارتقا زکے مرے اوراق پڑھو ٠ 
ناپ دیتے ہو مجھے تم ، کبھی کچھ سالوں میں 
تو کبھی پاتے ہو صدیوں کی تواریخ میں تم 
مرے آغاز کا پتلا بھی بنایا تمنے  
کند ذہنو سے بناتے ہوئے پہلا انسان  
جا بجا اسکی کہانی بھی رچا کرتے ہو
میرے ماضی کے وکیلان و گواہان وجود 
تم کو لاحول کے شیطان نظر آتے ہیں ٠ 

ارتقا زکے مرے اوراق پڑھو ٠ 
میرے ماضی میں نہیں ہے ، کہیں بھی کفر کوئی 
نقش فطرت ہوں ، صدا منکر و اقراری ہوں 
لڑتے بھڑتے ہوں خدا جب تو کھلا ملحد ہوں 
دہری گودوں کا ہوں پروردہ ، دہریہ ہوں میں٠ 

ارتقا زکے مرے اوراق پڑھو ٠ 
مری تہذیب تو سینہ بسینہ چلتی ہے 
اپنے بنیاد کے پتھر سے گلے ملتی ہوئی 
وقت کو روز نئے روپ کا پیکر دیکر 
عالم رقص میں کچھ نقش قدم دیتی ہے 
میری تہذیب رواں رہتی ہے آگے کے لئے 
گھاٹی میں بستی ہوئی ، پربتوں کو چڑھتی ہوئی 
جنتی رہتی ہے- - - اجنتا ، الورا ، کھجرا ہو 
مصر کے قلب ، پرامیٹ عطا کرتی ہے 
دیوتا رچتی ہوئی ، دیویاں رچاتی ہوئی 
نت نئی دھن ، نئے علم و فن گاتی ہے 
رک بھی جاتی ہے ، پڑاؤ پہ کبھی سستاتی 
جس کو کچھ لوگ سمجھتے ہیں کہ منزل ہے یہی ٠ 

ارتقا زکے مرے اوراق پڑھو ٠ 
رخنے آتے ہے سفر میں مرے اکثر یوں ہی 
اور آتی ہے غباروں کی فضا راہوں میں 
میں ذرا دیر کو رک جاتا ہوں  
انکی گردان ہوا کرتی ہے الٹی گنتی
وہ توازن کو تہ و بلا کیا کرتے ہیں 
ضایع کرتے ہیں وہ برسوں کی جمع پونجی کو 
زیر پا زینے ہٹا دیتے ہیں
کرتے رہتے ہیں معلّق مری میناروں کو 
برسوں لگتے ہیں مجھے پھر سے سطح پانے میں 

ارتقا زکے مرے اوراق پڑھو ٠ 

Monday, April 18, 2016

Junbishen 778



ग़ज़ल

हम घर के हिसारों का, सफ़र छोड़ रहे हैं,
दुन्या भी ज़रा देख लें, घर छोड़ रहे हैं.

मन में बसी वादी का, पता ढूंढ रहे हैं,
तन का बसा आबाद नगर छोड़ रहे है.

जाते हैं कहाँ पोंछ के, माथे का पसीना?
लगता है कोई, कोर कसर छोड़ रहे हैं.

फिर वाहिद ए मुतलक की, वबा फैल रही है,
फिर बुत में बसे देव, शरर छोड़ रहे हैं.

सर मेरा कलम है कि यूं मंसूर हुवा मैं,
'जुंबिश' को हवा ले उडी, सर छोड़ रहे हैं.

है सच की सवारी पे ही मेराज मेरा यह,
'मुंकिर' नहीं, जो 'उनकी' तरह छोड़ रहे हैं.

*****

*हिसारों=घेरा *वाहिद ए मुतलक=एकेश्वरवाद यानि इसलाम *शरर=लपटें *.


غزل


ہم گھر کے حصاروں کا سفر چھوڑ رہی ہیں 
دنیا بھی ذرہ دیکھیں ، کہ گھر چھوڑ رہے ہیں ٠ 

من میں بسی وادی کا پتہ، ڈھونڈھ ہی لینگے 
تن کا بسا ، آباد نگر چھوڑ رہے ہیں ٠

جاتے ہیں کہاں پوچھ کے ماتھے کا پسینہ 
لگتا ہے کوئی کور کسر چھوڑ رہے ہیں ٠

پھر واحد مطلق کی وبا پھیل رہی ہے 
پھر بت میں بسے دیو شرر چھوڑ رہے ہیں ٠

سر میرا قلم ہے ، کہ یوں منصور ہوا میں 
جنبش" کو ہوا لے اڑی ، سر چھوڑ رہے ہیں ٠"

"ہے سچ کی سواری پہ یہ معراج کا عالم " 
منکر دھنے جاینگے ، اگر چھوڑ رہے ہیں ٠
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

Friday, April 15, 2016

Junbishen 777



ग़ज़ल

आप वअदों की हरारत को, कहाँ जानते हैं.
हम जो रखते हैं, वह पत्थर की ज़ुबाँ जानते हैं.

पुरसाँ हालों को, बताते हुए मेरी हालत,
मुस्कुराते हैं, मेरा दर्दे निहाँ निहाँ जानते हैं.

क़ौम को थोडी ज़रुरत है, मसीहाई की,
आप तो बस की फ़ने तीर ओ कमाँ जानते हैं.

नंगे सर, नंगे बदन, उनको चले आने दो,
वोह अभी जीने के, आदाब कहाँ जानते हैं.

नहीं मअलूम किसी को, कि कहाँ है लादेन,
सब को मअलूम है कि अल्लाह मियाँ जानते हैं.

न तवानी की अज़ीयत में पड़े हैं 'मुंकिर',
है बहारों का ये अंजाम,खिज़ां जानते हैं.

*****
*मसीहाई=मसीहाई*न तवानी=दुर्बलता* अज़ीयत=कष्ट


غزل

آپ وعدوں کی حرارت کو کہاں جانتے ہیں
ہم جو رکھتے ہیں ، وہ پتھر کی زبان جانتے ہیں ٠ 

پرساں حالوں کو بتاتے ہوئے ، میری حالت 
مسکراتے ہیں ، مرا درد نہاں جانتے ہیں ٠ 

قوم کو تھوڑی، ضرورت ہے مسیحائی کی 
آپ تو بس کہ ، فن تیر و کماں ، جانتے ہیں ٠

ننگے سر ، ننگے بدن ، انکو چلے آنے دو
وہ ابھی رہنے کے آداب ، جانتے ہیں ٠

نہیں معلوم کسی کو کہ کہاں ہے لادین 
سب کو معلوم ہے کہ الله میاں ، جانتے ہیں ٠

ناتوانی کی اذیت میں، پڑے ہیں منکر
ہے بہاروں کا یہ انجام خزاں ، جانتے ہیں ٠٠ 

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

Wednesday, April 13, 2016

Junbishen 776


ग़ज़ल

चाहत है तेरी, और तेरा इंतेख़ाब है,
क्या दोस्त तेरा, तेरी तरह लाजवाब है?

सो लेना चाहिए, तुझे कुछ देर के लिए,
नींद की हालत में, यह बेजा खिताब1 है।

है एक ही नुमायाँ, वहाँ चाँद की तरह,
बाक़ी हसीन चेहरों के, रुख पे नकाब है।

शायर है बेअमल, कि इसे बा अमल करो,
चक्खी नहीं कभी, मगर मौज़ूअ शराब है।

क़ानून क़ाएदों के, उसूलों की नींद में ,
उस घर में घुस गया, जहाँ जीना सवाब है।

रोका नहीं है भीड़ ने, टोका है, रुका हूँ,
'मुंकिर' को रोक ले, ये भला किस में ताब है।

१ -संबोधन

غزل
چاہت ہے تیری اور ترا انتخاب ہے
کیا دوست تیرا ، تیری طرح لا جواب ہے٠ 

سو لینا چاہئے تمہیں ، کچھ دیر کے لئے 
حالت غنودگی کی ہے ، بے جھ خطاب ہے ٠ 

ہے ایک ہی نمایاں وہاں چاند کی طرح 
باقی حسین تاروں کے رخ پر نقاب ہے ٠ 

شاعر ہے بے عمل، کہ اسے با عمل کرو 
چکھی نہیں شراب کو ، موضوع شراب ہے ٠ 

قانون قاعدوں کے ، اصولوں کی نیند میں 
اس گھر میں گھس گیا ، جہاں جینا ثواب ہے ٠ 

روکا نہیں ہے بھیڑ نے ٹوکا ہے ، رک گیا 
منکر کو روک لے ، بھلا یہ کس میں تاب ہے ٠  

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

Monday, April 11, 2016

Junbishen 775



ग़ज़ल

सुब्ह फिर शुरू हुई है, आँखें फिर हुई न हैं नम,
चल गरानी ए तबअ, सर पे रख के अपने ग़म.

नेमतें हज़ार थीं, इक ख़ुलूस ही न था,
तशना रूह हो गई, भर गया था जब शिकम.

बे यक़ीन लोग हैं, उन सितारों की तरह,
टिमटिमा रहे हैं कुछ, और दिख रहे है कम.

उँगलियाँ थमा दिया था, मैं ने उस कमीन को,
कर के मुझको सीढयाँ, सर पे रख दिया क़दम.

कहर न गज़ब है वह, फ़ितरी वाक़ेआत हैं,
तुम मुक़ाबला करो, वोह है माइले सितम.

राज़दार हो चुका है, कायनात का जुनैद,
जुज़्व बे बिसात था, कुल में हो गया है ज़म.

*****

غزل

صبح پھر شروع ہوئی ،آنکھیں پھر ہوئیں ہیں نم
چل گرانی ے حیات ، سر پہ رکھ کے اپنے غم ٠ 

نعمتیں ہزار تھیں ، اک خلوص ہی نہ تھا 
تشنہ روح رہ گئی تھی ، بھر گیا تھا جب شکم ٠ 

بے یقین لوگ ہیں ، ان ستاروں کی طرح 
ٹمٹما رہے ہیں کچھ ، اور دکھ رہے ہیں کم ٠ 

انگلیاں تھما یں تھی ، میں نے اس کمین کو 
کر کے ہم کو سیڑھیاں ، سر پہ رکھ کے دیا قدم ٠ 

قہر نہ غضب ہیں وہ ، فطری واقعات ہیں 
تم مقابلہ کرو ، وہ ہے مائل ستم ٠ 

رازدار ہو گیا ہے ، کائنات کا جنید 
جزو بے بساط ہے ، کل میں ہو گیا ہے ضم ٠ 
^^^^^^^^^^^

Friday, April 8, 2016

JUNBISHEN 774


ग़ज़ल

हर शब की क़ब्रगाह से, उठ कर जिया करो,
दिन भर की ज़िन्दगी में, नई मय पिया करो।

उस भटकी आत्मा से, चलो कुछ पता करो,
इस बार आइना में बसे, इल्तेजा करो।

दिल पर बने हैं बोझ, दो मेहमान लड़े हुए,
लालच के संग क़ेनाअत1, इक को दफ़ा करो।

तुम को नजात देदें, शबो-रोज़ के ये दुःख,
ख़ुद से ज़रा सा दूर, जो फ़ाज़िल गिज़ा करो।

दरवाज़ा खटखटाओ, है गर्क़े-मुराक़्बा2,
आई नई सदी है, ज़रा इत्तेला करो।

'मुंकिर' को क़त्ल कर दो, है फ़रमाने-किब्रिया3 ,
आओ कि हक़ शिनास को, मिल कर ज़िबा करो।

१-संतोष २-तपस्या रत ३-ईश्वरीय आगयान


غزل

ہر شب کی قبر گاہ سے، اٹھ کر جیا کرو 
دن بھر کی زندگی میں، نی مے پیا کرو٠ 

اس بھٹکی آتما سے چلو کچھ پتہ کریں
اس بار آئینہ میں بسے، التجھ کرو ٠ 

دل پر بنے ہیں بوجھ ، دو مہماں لڑے ہوے، 
لالچ بھی ہے ، نجات بھی ، اک کو جدا کرو ٠ 

تم کو نجات دینگے ، شب و روز کے یہ دکھ 
خود سے ذرہ سا دور، جو فاضل غذا کرو ٠ 

دروازہ کھٹ کھٹا ؤ ، ہے غرق مراقبہ 
ائی نی صدی ہے ، اسے اطلا ع کرو٠ 

منکر کو قتل کر دو، ہے فرمان کبریا 
 کہ حق شناش کو، مل کر ذبح کرو
 ٠ 

Wednesday, April 6, 2016

Junbishen 773




ग़ज़ल

तुम भी अवाम की, ही तरह डगमडा गए,
मेरे यकीं के शीशे पे, पत्थर चला गए.

घायल अमल हैं, और नज़रिया लहू लुहान,
तलवार तुम दलील की, ऐसी चला गए.

मफरूज़ा हादसात, तसुव्वुर में थे मेरे,
तुम कार साज़ बन के, हक़ीक़त में आ गए.

पोशीदा एक डर था, मेरे ला शऊर में,
माहिर हो नफ़्सियात के, चाक़ू थमा गए.

भेड़ों के साथ साथ, रवाँ आप थे जनाब,
उन के ही साथ गिन जो दिया, तिलमिला गए.

खुद एतमादी मेरी, खुदा को बुरी लगी,
सौ कोडे आ के उसके सिपाही लगा गए.
*****
*मफरूज़ा=कल्पित *कार साज़=सहायक *ला शऊर=अचेतन मन *नफ़्सियात=मनो विज्ञानं *खुद एतमादी=आत्म विश्वास

غزل
تم بھی عوام کی طرح ہی ، ڈگمگا گئے
میرے یقیں کے شیشے پہ ، پتھر چلا گئے ٠ 

گھایل عمل ہیں اور نظریہ لہو لہان 
تلوار تم دلیل کی، ایسی چلا گئے ٠ 

مفروضہ حادثات، تخیّل میں تھے مرے 
تم چارہ ساز بن کے، حقیقت میں آ گئے ٠ 

پوشیدہ ایک ڈر تھا مرے لا شعور میں 
ماہر تھے نفسیات کے ، چاقو تھما گئے ٠ 

خود عتماد ی میری خدا کو بری لگی 
سو کورے آ کے ، اسکے سپاہی لگا گئے ٠

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

Monday, April 4, 2016

Junbishen 772



ग़ज़ल

तरस न खाओ, मुझे प्यार कि ज़रुरत है,
मुशीर कार नहीं यार कि ज़रुरत है.

तुम्हारे माथे पे उभरे हैं, सींग के आसार,
तुम्हें तो फ़तह नहीं हार की ज़रुरत है.

कलम की निब ने, कुरेदा है ला शऊर तेरा,
जवाब में कहाँ, तलवार की ज़रुरत है.

अदावतों को भुलाना भी, कोई मुश्क़िल है,
दुआ, सलाम, नमस्कार की ज़रुरत है.

शुमार शेरों का होता है, न कि भेड़ों का,
कसीर कौमों, बहुत धार की ज़रुरत है.

तुम्हारे सीनों में आबाद इन किताबों को,
बस एक 'मुंकिर' ओ इंकार कि ज़रुरत है.
*****
*मुशीर कार = परामर्श दाता *ला शऊर =अचेतन मन


غزل

ترس نہ کھاؤ مجھے پیار کی ضرورت ہے 
مشیر کار نہیں یار کی ضرورت ہے ٠ 

تمہارے ماتھے پہ ابھرے ہیں سینگ کے آثار
تمہیں تو فتح نہیں ، ہار کی ضرورت ہے ٠

قلم کے نب نے کریدا ہے لا شعور ترا 
جواب میں کہاں ، تلوار کی ضرورت ہے ٠

عداوتوں کو بھلانا بھی کوئی مشکل ہے 
دعا ، سلام ، نمسکار، کی ضرورت ہے ٠

شمار شیر کا ہوتا ہے ، نہ کہ بھیڑوں کا، 
کثیر قوم ، بہت دھار کی ضرورت ہے ٠

تمہارے سینے میں آباد ان کتابوں کو 
بس ایک منکر و انکار کی ضرورت ہے ٠٠ 
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

Friday, April 1, 2016

Junbishen 771



ग़ज़ल

मोहलिक तरीन रिश्ते, निभाए हुए थे हम,
बारे गराँ को सर पे, उठाए हुए थे हम.

खामोश थी ज़ुबान, कि  अल्फ़ाज़  ख़त्म थे,
लाखों गुबार दिल में दबाए हुए थे हम.

ठगता था हम को इश्क, ठगाता था खुद को इश्क,
कैसा था एतदाल, कि पाए हुए थे हम.

गहराइयों में हुस्न के, कुछ और ही मिला,
न हक़ वफ़ा को मौज़ू ,बनाए हुए थे हम.

उसको भगा दिया कि वोह, कच्चा था कान का,
नाकों चने चबा के, अघाए हुए थे हम.

सब से मिलन का दिन था, बिछड़ने की थी घडी,
'मुंकिर' थी क़ब्रगाह, कि  छाए हुए थे हम,
*****
*मोहलिक तरीन =हानि कारक *बारे गराँ=भारी बोझ *एतदाल=संतुलन *मौज़ू=विषय.



غزل

محلق ترین رشتے، نبھاۓ ہوئے تھے ہم، 
بار گراں کو سر پہ، اٹھاۓ ہوئے تھے ہم ٠ 

خاموش تھی زبان، کہ الفاظ ختم تھے 
لاکھوں غبار دل میں، دباے ہوئے تھے ہم ٠ 

ٹھگتا تھا عشق اور ٹھگاتا تھا خود کو عش
 کیسا تھا عتدال، کہ پاۓ ہوئے تھے ہم ٠ 

گہرایوں میں عشق کے، کچھ اور ہی ملا
نا حق وفا کو رکن، بناے ہوئے تھے ہم ٠ 

اسکو بھگا دیا، کہ وہ کچا تھا کان کا
ناکوں چنے چبا کے، اگھاۓ ہوئے تھے ہم ٠ 

سب سے ملن کا دن ہے ، بچھاڑ نے کا دن بھی ہے، 
منکر تھی قبر گاہ، کہ چھاۓ ہوئے تھے ہم ٠ ٠ 

^^^^^^^^^^^^^