Thursday, March 3, 2016

Junbishen 758



 ग़ज़ल

कभी कभी तो, मुझे तू निराश करता है,
मेरे वजूद में, खुद को तलाश करता है.

मेरे वजूद का, खुद अपना एक परिचय है,
सुधारता नहीं, तू इस को लाश करता है.

किसी इलाके के, थोड़े विकास के ख़ातिर,
बड़ी ज़मीन का, तू सर्वनाश करता है.

मैं होश में हूँ ,हजारों कटार के आगे,
तुम्हारे हाथ का कंकड़, निराश करता है.

निसार जाँ से तेरी, इस लिए अदावत है,
तेरे खुदाओं का, वह पर्दा फ़ाश करता है.

नशा हो शक्ति का, या हो शराब का 'मुंकिर" ,
नशे की शान है वह सर्व नाश करता है.
*****

No comments:

Post a Comment