Wednesday, March 30, 2016

Junbishen 770



ग़ज़ल

है कैसी कशमकश ये, कैसा या वुस्वुसा है,
यकसूई चाहता है, दो पाट में फँसा है।

दिल जोई तेरी की थी, बस यूँ ही वह हँसा है,
दिलबर समझ के जिस को, तू छूने में लसा है।

बकता है आसमा को, तक तक के मेरी सूरत,
पागल ने मेरा बातिन, किस ज़ोर से कसा है।

सच बोलने के खातिर, दो आँख ही बहुत थीं,
अलफ़ाज़ चुभ रहे हैं, आवाज़ ने डंसा है।

कैसी है सीना कूबी? भूले नहीं हो अब तक,
बहरों का फ़ासला था, सदियों का हादसा है।

है वादियों में बस्ती, आबादी साहिलों पर,
देखो जुनून ए 'मुंकिर' गिर्दाब में बसा है.

*****
*बातिन=अंतरात्मा *सीना कूबी=मातम *बहरों=समन्दरों *गिर्दाब=भंवर



غزل

ہے کیسی کشمکش یہ ، یہ کیسا وسوسہ ہے
یکسوئی چاہتا ہے ، دو پاٹوں میں پھنسا ہے ٠ 

دل جوئی تیری کی تھی ، بس یوں ہی وہ ہنسا 
دلبر سمجھ کے جسکو ، تو چھونے میں لسا ہے ٠ 

تکتا ہے آسمان کو، تک تک کے میری صورت 
پاگل نے میرا باطن ، کس زور سے کسا ہے ٠ 

سچ بولنے کی خاطر، دو آنکھین ہی بہت تھیں 
الفاظ چبھ رہے ہیں ، آواز نے ڈنسا ہے ٠ 

کیسی ہے سینہ کوبی ، بھولے نہیں ہو اب تک ؟
صدیوں کا حادثہ ہے ، بحروں کا فاصلہ ہے ٠ 

ہے وادیوں میں بستی ، آبادی ساحلوں پر
دیکھو جنون منکر ، گرداب میں بسا ہے ٠ 

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Monday, March 28, 2016

Junbishen 769



ग़ज़ल


जब से हुवा हूँ बे ग़रज़, शिकवा गिला किया नहीं,
कोई यहाँ बुरा नहीं, कोई यहाँ भला नहीं.

अपने वजूद से मिला तो मिल गई नई सेहर,
माज़ी को दफ़्न कर दिया, यादों का सिलसिला नहीं.

पुख्ता निज़ाम के लिए, है ये ज़मीं तवाफ़ में,
जीना भी इक उसूल है, दिल का मुआमला नहीं.

बख्शा करें ज़मीन को, मानी मेरे नए अमल,
मेरे लिए रिवाजों का, कोई काफ़िला नहीं.

ज़ेहनों के सब रचे मिले, सच ने कहाँ रचा इन्हें,
ढूँढा किए खुदा को हम, कोई हमें मिला नहीं.

थोडा सा और चढ़ के आ, हस्ती का यह उरूज है,
कोई भी मंजिले न हों, कोई मरहला नहीं.
*****


غزل
جب سے ہوا ہوں بے غرض شکوہ گلہ کیا نہیں 
کوئی یھاں بھلا نہیں ، کوئی یہاں برا نہیں ٠

اپنے وجود سے ملا ، تو مل گئی نی سحر
ماضی کو دفن کر دیا، یادوں کا سلسلہ نہیں ٠ 

پختہ نظام کو لئے ، ہے یہ زمیں طواف میں
جینا بھی اک اصول ہے ، دل کا معاملہ نہیں ٠

بخشا کریں زمین کو ، معنی نۓ میرے عمل 
میرے لئے اصول کا ،کوئی بھی قافلہ نہیں ٠ 

ذھنوں کے سب رچے ملے ، سچ نے کہاں رچا انہیں ٠ 
ڈھونڈھا کیے خدا کو ہم ، کوئی ہمیں ملا نہیں ٠ 

تھوڑا سا اور چڑھ کے آ ، ہستی کا یہ عروج ہے، 
کوئی بھی منزلیں نہ ہوں ، کوئی بھی مرحلہ نہیں ٠ ٠

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Friday, March 25, 2016

Junbishen 768



नज़्म 
इल्म और लाइल्मी

मैं ने इक मुल्ला से पूछा,"वाक़ई क्या है खुदा?"
बोला, "हाँ!हाँ!! हाँ!!!, सौ फ़ीसदी से भी सिवा "
और दे डालीं खुदा के हक़ में, इक सौ एक दलील,
एक सौ इक नाम की, लेकर उठा फेहरिस्त तवील।
इल्म और लाइलमी 
एक साइंस दाँ से दोहराया, जो मैंने यह सवाल,
कम सुख़न१ के वास्ते, कुछ भी कहना था मुहाल।
कशमकश में बोला अब तक, जो खुदा मौजूद हैं,
सब के सब साबित हुवा है, झूट तक महदूद हैं।
हाँ! मगर इम्कानो-अंदेशा2 का, मैं 'मुंकिर' नहीं,
हो भी सकता है कहीं पर इक खुदाए ला यकीं।
१-कम वाला 2 संभावनाएं और संशय

علم اور لاعلمی 

میں نے اک مللہ سے پوچھا "واقعی کیا ہے خدا ؟"
بولا" ہاں ! ہاں !! ہاں !!! ، سو فیصدی سے بھی سوا "
اور دے ڈالی خدا کے حق میں اک سو ایک دلیل 
ایک سو اک نام کی لیکر، کھڑا فہرشت طویل

ایک سائنس دان سے، دوہرایا جو میں نے یہ سوال
کم سخن کے واسطے ، کچھ بھی کہنا تھا محال 
کش مکش میں بولا ، اب تک جو خدا موجود ہیں 
سب کے سب ثابت ہوا ہے جھوٹ تک محدود ہیں 
ہاں ! مگر امکان و اندیشہ کا میں منکر نہیں 
ہو بھی سکتا ہے کہیں پر اک خداۓ لا یقین 
***

Wednesday, March 23, 2016

Junbishen 767


नज़्म 


तीरें 

तेज़ तर तीर की तरह तुम हो, नसलो! तुम को निशाना पाना है।
हम हैं बूढे कमान की मानिंद, बोलो कितना हमें झुकाना है?
***
सुल्हा कर लूँ कि ऐ अदू १ तुझ से, मैं ने तदबीर ही बदल डाली,
तेरे जैसा ही क्यूं न बन जाऊं, अपने जैसा ही क्यों बनाना है।
***
रोज़े रौशन को छीन लेती है, तू कि ऐ गर्दिशे ज़मीं हम से,
हम हैं सूरज के वंशजों से मगर, सर पे तारीक2 ये ख़ज़ाना है।
***
कौडी कौडी बचा के रक्खा है, तिनका तिनका सजा के रक्खा है,
गीता संदेश कुछ इशारा कर, हम ने जोड़ा है किस को पाना है।
***
बारी बारी से सोते जगते हैं, मेरे कांधों पे दो फ़रिश्ते ये,
हम सवारी गमो खुशी के हैं, रोते हँसते नजात पाना है।
***
आप के पास भी अन्दाज़ा है, है हमारे भी पास तख़मीना,
आप ने माना एक वाहिद को, हम ने सत्तर करोर माना है।
***
तू है क़ायम फ़क़त गवाही पर, सदियाँ गुज़रीं गवाह गुज़रे हुए,
हिचकिचाहट है इल्म नव3 को अब, तुझ को नुक्तों पे आज़माना है।
***
तेरे एह्काम4 की करूँ तामील, फ़ायदे कुछ न चाहिए मुझ को,
आसमानों से झाँक कर तुझ को,सिर्फ़ इक बार मुस्कुराना है।

१-दुश्मन २-अँधेरा ३-नई शिक्षा ४-आज्ञा

تیریں 

تیز تر تیر کی طرح تم ہو 
نسلو ! تم کو نشانہ پانا ہے
ہم ہیں بوڑھے کمان کی مانند
بولو ، کتنا تمہیں جھکنا ہے ٠
*
صلح کر لوں ، کہ ائے عدو تجھ سے 
میں نے تدبیر ہی بدل ڈالی 
تیرے جیسا ہی کیوں نہ بن جاؤں 
اپنے جیسا ہی کیوں بنانا ہے ٠
*
روز روشن کو چھین لیتی ہے 
تو کہ ائے ، گردش زمیں مجھ سے
ہم تو سورج کے قبلائی ہیں 
سر پہ سایوں کا کیوں خزانہ ہے ٠
*
کوڑی کوڑی بچا کے رکھا ہے 
تنکا تنکا سجا کے رکھا ہے 
گیتا سندیش تو اشارہ دے 
ہمنے جوڑا ہے ، کیسکو پانا ہے ٠
*
باری باری سے سوتے جگتے ہیں
میرے کندھے پہ دو فرشتے یہ 
ہم سواری غم و خوشی کے ہے 
روتے ہنستے نجات پانا ہے ٠ 
 *
آپ کے پاس بھی اندازہ ہے 
ہے ، ہمارے بھی پاس تخمینہ 
آپ نے مانا ایک واحد کو 
ہم نے ستتر کروڑ مانا ہے ٠ 
*

تو ہے قائم فقط گواہی پر 
صدیوں گزری گواہ گزرے ہوئے 
ہچکچاہٹ ہے علم نو کو اب 
تجھ کو نکتوں پہ آزمانا ہے ٠
*
تیرے احکام کی کروں تعمیل 
فائدہ کچھ نہ چاہئے مجھ کو 
آسمانوں سے جگانک کر تجھ کو
صرف اک بار مسکرانا ہے ٠

**************

Tuesday, March 22, 2016

Junbishen 766

नज़्म  

गुलकारियां

सवाब क्या है, खुशी तुम्हारी,
अज़ाब क्या है, तुम्हारी उलझन,
' वहाँ ' पे कुछ भी नहीं है प्यारे,
यहीं पे सब कुछ, है रोजे-रौशन।

इताबे1क़ुदरत, है ख़ौफ़-हैवाँ,
ख़ुदा का क़हर और फ़रेबे-शैतां,
बचे हैं इन्सां, कि बाद इनके,
चलो कि आपस में बाटें सावन।

वो पेड़ दूषित, फ़सल जो उपजें,
चलो कि देखें, जड़ों में इनके,
कहाँ से लेती हैं गर्म सासें,
कहाँ से पाती हैं दुष्ट जीवन।

ख़ुदा को क़िस्तों में माना हम ने,
थी ख़ौफ़ अव्वल और लौस3 दोयम,
फ़रेब, धोखा थी क़िस्त सोयम,
और चौथी, जंगें, विजय, समर्पन ।

अजब हैं ज़ेहनी इबारतें यह,
सवाल उज्जवल जवाब मद्धम,
ख़याल 'उस' की तरफ़ है मायल,
दिमाग़ मांगे सुबूतो-दर्शन।

शबाब क़ातिल, बला का जोबन,
बहक गई है यह महकी जोगन,
इसे ठिकाना बुला रहा है,
कोई बनाए इसे सुहागन।

१-प्राकृतिक आपदा २-पशु-भय ३ -लालच

گل کریں 

ثواب کیا ہے ، تمہاری خوشیاں 
عذاب کیا ہے ، ذرا سی الجھن 
وہاں پہ کچھ بھی ، نہیں ہے پیارے 
ہہیں پہ سب کچھ ، ہے راز روشن ٠ 
***
عتاب قدرت ، ہراس حیواں 
خدا کی مرضی ، فریب شیطاں 
بچے ہیں انساں ، کہ بعد اسکے
چلو کہ آپس میں ، باٹیں ساون ٠ 
***
شجر ، جو ناقص ثمر کو اپجیں 
اٹھو کہ دیکھیں ، جڑوں میں انکے
کہاں سے لیتی ہیں ، گرم ساسیں 
کہاں سے پاتی ہیں ، دشٹ جیون ٠ 
***
خدا کو قسطوں میں ، مانا ہمنے، 
تھی خوف اول ، طمع تھی دویم
فریب، دھوکہ ، تھی قسط سویم ،
تھی چوتھی جنگیں، فتح ، سمرپن ٠ 
***
عجب ہیں ذہنی ، عبارتیں یہ 
سوال واضح ، جواب مبہم 
دماغ اسکی طرف ہے مائل ،
خیال مانگے ، سبوت ، درشن ٠ 
***
شباب قاتل ، بلا کا جوبن 
بھٹک گئی ہے ، یہ مہکی جوگن 
اسے ٹھکانہ ، بلا رہا ہے 
کوئی بناۓ ، اسے سہاگن ٠ 
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Friday, March 18, 2016

Junbishen 765


नज़्म 

उन्नति शरणम् गच्छामि

गौतम था बे नयाज़ ए अलम1, जब बड़ा हुवा,
महलों की ऐश गाह में, इक ख़ुद कुशी किया।
पैदा हुवा दोबारा, हक़ीक़त की कोख से,
तब इस जहाँ के क़र्ब2 से, वह आशना हुवा।

देखा ज़ईफ़3 को तो, हुवा ख़ुद नहीफ़4 वह,
रोगियों को देख के, बीमार हो गया।
मुर्दे को देख कर तो, वह मायूस यूँ हुवा,
महलों की ऐश गाह से, संन्यास ले लिया।

बीवी की चाहतों से, रुख अपना मोड़ कर,
मासूम नव निहाल को भी, तनहा छोड़ कर,
महलों के क़ैद खानों से, पाता हुवा नजात,
जंगल में जन्म पाया था, जंगल को चल दिया.

असली ख़ुदा तलाश वह, करता रहा वहां,
कोई  ख़ुदा मिला न उसे, यह हुवा जरूर
वह इन्क़्शाफ़5 सब से बड़े, सच का कर गया,
"दिल में है अगर अम्न, तो समझो  ख़ुदा मिला"।

सौ फ़ीसदी था सच, जो यहाँ तक गुज़र गया,
अफ़सोस का मुक़ाम है, जो इसके बाद है,
शहज़ादे के मुहिम की, शुरुआत यूँ हुई,
तन पोशी, घर, मुआश बतर्ज़े-गदा6 हुई।

दर असल थी मुहिम, हो  ख़ुदाओं का सद्दे-बाब7,
मुहमे-अज़ीम8 थी, कि जो राहें भटक गई,
राहों में इस अज़ीम के, जनता निकल पड़ी,
उसने महेल को छोड़ा था, और इसने झोपडी।

शीराज़ा9 बाल बच्चों के, घर का बिगड़ गया,
आया शरण में इसके जो, वह भिक्षु बन गया।
मानव समाज कि धुरी, जो डगमगा गई।
मेहनत कशों पे और, क़ज़ा10 दूनी हो गई।

काहिल अमल फ़रार, ये हिन्दोस्तां हुवा,
जद्दो-जेहद का देवता, चरणों में जा बसा,
तामीर11 क़ौम के रुके, सदियाँ गुज़र गईं,
'मुंकिर' खुमार बुत का ये, छाया है आज तक,

माज़ी गुज़र गया है, बुरा हाल है बसर।
आबादियों को खाना, न पानी है मयस्सर ,
ज़ेरे सतर ग़रीबी12, जिए जा रहे हैं हम,
बानी महात्मा की,  पिए जा रहे हैं हम.

१-दुःख से अज्ञान 2 -पीडा ३-बृध ४-कमज़ोर ५-उजागर करना ६-भिखारी की तरह जीवन यापन ७-समाप्त होना
 ८-महान ९-प्रबंधन १०-मौत ११-रचना १२-गरीबी रेखा


کٹورا شرنم گچھچھامی 


شہزادہ بے نیاز الم جب بڑا ہوا 
محلوں کی عیش گاہ میں اک خود کشی کیا
پیدا ہوا دوبارہ حقیقت کی کوکھ سے 
تب اس جہاں کے قرب سے وہ آشنا ہوا ٠

دیکھا ضعیف کو تو ، ہوا خود نحیف وہ 
بیماریوں کو دیکھ کے ، بیمار ہو گیا 
مردے کو دیکھ کر تو، وہ مایوس یوں ہوا 
محلوں کی عیش گاہ سے سنیاس لے لیا ٠ 

بیوی کی توجہہ سے ، رخ اپنا مور کے 
معصوم نو نہال کو بھی تنہا چھوڑ کے 
محلوں کے قید خانے سے لیتا ہوا نجات 
جنگل میں جنم پایا تھا ، جنگل کو چل دیا ٠

اصلی خدا تلاش وہ کرتا رہا وہاں 
کوئی خدا شدا نہ ملا ، یہ ہوا ضرور 
وہ انکشاف سب سے بڑے سچ کا کر گیا 
دل میں اگر ہے سچ تو یہی ہے خدا کا نور٠

سو فی صدی تھا حق ، جو یہاں تک گزر گیا
افسوس کا مقام ہے ، جو اسکے بعد ہے 
شہزادے کی مہم کی ، شروعات یوں ہی 
تن پوشی ، گھر،معاش ، بطرز گدا ہوئی ٠

مبہم خدا کی ذات سے فارغ ہوا سماج 
لیکن وہ کار سازی کی راہیں بھٹک گیا 
را ہوں میں اس فقیر کے ، جانتا نکل پڑی 
اس نے محل کو چھوڑا تھا اور اسنے جھوپڑی ٠

شیرازہ بال بچوں کے گھر کا بکھر گیا 
آیا شرن میں اسکے جو ، وہ بھکہچھو بن گیا 
ڈھانچہ معاشرے کا کھڑا ، چرمرا گیا 
محنت کشوں پہ اور قضا دونی ہو گئی ٠ 

کاحل ، عمل فرار ، یہ ہندوستاں ہوا 
جد و جہد کا کارواں شرنوں میں جا بسا 
تعمیر قوم کی رکے صدیاں گزر گئیں 
'منکر' خمار بت کا یہ چھایا ہے آج تک ٠

ماضی برا رہا ہے ، برا حال ہے بسر 
آبادیوں کو کھانا ، نہ پانی ہے پیٹ بھر 
زیر غریبی سطر ، جئے جا رہے ہیں ہم 
بانی مہاتما کی پئے جا رہے ہیں ہم ٠ ٠ 

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Wednesday, March 16, 2016

JUNbishen 764

Nazm 

क़ुदरत का मशविरा

अध्-जले ऐ पेड़! तू है, उम्र ए रफ़्ता 0 का शिकार,
क़र्ब ए गरमा१ झेलता, तनहा खडा है धूप में,
इब्न ए आदम२ को है, बेचैनी कि इन हालात में,
ढूढ़ता फिरता है पगला, मंदिरों-मस्जिद की छाँव।
जानता है तू कि बस, ग़ालिब है क़ुदरत का निज़ाम3,
ज़िन्दगी धरती पे जब, होती है बे बर्ग ओ समर4,
तब ज़मीं पर बार, बन जाता है हर पैदा शुदा,
है ज़मीं बर हक़ कि ढोने हैं, उसे अगले जनम,
तेरे, मेरे, इनके, उनके, गोया हर मख्लूक़5 के।
ऐ शजर!६ कर तू जुबां पैदा, बता नादान को,
बस तेरे जैसे मुक़ाबिल, ये भी हों मैदान में,
मत पनाहें ढूँढें अपनी, रूह की बाज़ार में,
नातावानाई ओ ज़ईफी7, का न हल ढूँढें 'जुनैद',
काट लें बस हौसले से, यह सज़ा ए उम्र क़ैद।

0-जरा-वस्था १-गर्मी की पीड़ा 3-आदम की औलाद ३-व्यवस्था ४-पत्ते एवं फल रहित ५ प्राणी वर्ग ६-पेड़ ७-बुढ़ाप काल


قدرت کا مشورہ


ادھ جلے ائے پیڑتو ہے ، عمر رفتہ کا شکار
قرب گرما جھیلتا ، تنہا کھڑا ہے دھوپ میں
ابن آدم کو ہے بیچینی ، کہ ان حالات میں 
ڈھونڈھتا پھرتا ہے پگلا مندر و مسجد کی چھاؤں ٠

جانتا ہے تو مگر، غالب ہے قدرت کا نظام 
زندگی دھرتی پہ جب ، ہوتی ہے بے بال و ثمر 
تب زمیں پر بار بن جاتا ہے ، ہر پیدا شدہ 
ہے زمیں بر حق کہ ڈھونے ہے اسے اگلے جنم 
تیرے میرے ، انکے ان کے ، گویہ ہر مخلوق کے ٠

ائے پیڑ! پیدا کر زبان ، سمجھا دے اس نادان کو 
بس ترے جیسے مقابل ، یہ بھی ہوں میدان میں 
مت پناہیں ڈھونڈھیں اپنی ، روح کی بازار میں 
ناتوانی اور بڑھاپے کا ، نہ حل ڈھونڈھیں 'جنید' 
کاٹ لیں بس حوصلے سے یہ سزاۓ عمر قید ٠ 

Tuesday, March 15, 2016

Soorah mom 23 Q 4

क़तात

सज़ा ए दोबाला 
जीने न दिया घर में, तुर्बत में अब जियो ,
शैदाइयों की मानो तो शिद्दत में जियो ,
तुमको ही मारने में, खुद मर गया है शौहर ,
मेरी बहन ये क्या है, कि इद्दत में अब जियो .



जहाज़ का पंछी 
नाहक़ था मैं ही , हक़ पे तुम्हीं थे , जहाँ थे तुम ,
मैं उड़ के थक गया तो ज़मीं पर निशाँ थे तुम ,
मैं आ गया हूँ  भूले हुए घर को लौट कर ,
मानिंद  माँ के  पूछ लो, अब तक कहाँ थे तुम .



جہاز کا پنچھی

نا حق تھا میں ہی ، حق پہ تمہیں تھے ، جہاں تھے تم 

میں اڑ کے تھک گیا ، تو زمیں پر نشاں تھے تم 

میں آ گیا ہوں بچھڑے ہوئے ، گھر میں لوٹ کر 

مانند ماں کے پوچھو ، کہ اب تک کہاں تھے تم ٠ 



سزا ے دو بالا
گھر میں نہ جینے پی تھی ، تربت میں اب جیو 
شیدائیوں کی مانو، تو شدّت میں اب جیو 
شوہر تجھی کو مارنے میں ، مر گیا ترا 
میری بہن ! یہ کیا ہے کہ ، عدّت میں اب جیو ٠ 

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Friday, March 11, 2016

Jumbishen 762

रुबाईयाँ

हर सम्त सुनो बस कि सियासत के बोल, 
फुटते ही नहीं मुंह से सदाक़त के बोल , 
मजलूम ने पकड़ी रहे दहशत गर्दी, 
गर सुन जो सको सुन लो हकीकत के बोल. 



शैतान मुबल्लिग़! अरे सबको बहका, 
जन्नत तू सजा, फिर आके दोज़ख दहका, 
फितरत की इनायत है भले 'मुंकिर' पर, 
इस फूल से कहता है कि नफरत महका. 



पसमांदा अक़वाम पे, क़ुरबान हूँ मै, 
मुस्लिम के लिए खासा परीशान हूँ मैं, 
पच्चीस हैं सौ में, इन्हें बेदार करो, 
सब से बड़ा हमदरदे-मुसलमान हूँ मैं. 

رباعیاں


ہر سمت سنو ، بس کہ سیاست کے بول
پھٹتے ہی نہیں منہ سے صداقت کے بول 
مظلوموں نے پکڑی رہ دہشت گردی 
گر سن جو سکو ، سن لو ، حقیقت کے بول ٠



व्=شیطان مبللغ ، ارے ! سب کو بہکا 
جنّت تو سجا ، پھر آ کے دوزخ دہکا 
قدرت کی عنایت ہے بھلے 'منکر' پر 
اس پھول سے کہتا ہے کہ نفرت مہکا ٠  



پسماندہ اقوام پر قربان ہوں میں
مسلم کے لئے خاصہ پریشان ہوں میں 
پچیس ہیں سو میں ، انہیں بیدار کرو
سب سے بڑا ہمدرد مسلمان ہوں میں ٠ 

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Wednesday, March 9, 2016

unbishen 761



ग़ज़ल

ग़फ़लतों की इजाज़त नहीं है,
ये तो सच्ची इबादत नहीं है.

कडुई सच्चाइयाँ हैं सुनाऊं?
मीठे झूटों की आदत नहीं है.

चित तुम्हारी है, पट भी तुम्हारी,
भाग्य लिक्खे में गैरत नहीं है.

छोड़ कर बाल बच्चों को बैठे,
सन्त जी ये शराफ़त नहीं है.

दुःख न पहुँचाओ, तुम हर किसी को,
सुख जो देने की, वोसअत नहीं है.

रोग अपना ज़ियाबैतिशी है,
अब कोई शै भी, नेमत नहीं है.

हों वो पत्थर के या फिर हवा के,
इन बुतूं में, हक़ीक़त नहीं है.

ये हैं 'मुंकिर'में फूटी निदाएँ,
आसमानों की हुज्जत नहीं है.
*****
*वोसअत=क्षम्ता *ज़ियाबैतिशी=डायबिटीज़

غزل
غفلتوں کی اجازت نہیں ہے
یہ تو سچی عبادت نہیں ہے ٠ 

کڑوی سچائییاں میں سناؤں
میٹھے جھوٹوں کی عادت نہیں ہے ٠

چت تمہاری ہے ، پٹ بھی تمہاری 
جال سازی میں غیرت نہیں ہے ٠ 

چھڑ کر بال بچوں کو بیٹھے 
سنت جی یہ شرافت نہیں ہے ٠

دکھ نہ پہنچاؤ تم ہر کسی کو 
سکھ نہ دینے کی وسعت نہیں ہے ٠

روگ اپنا ذیا بیطسی ہے
اب کوئی شے بھی نعمت نہیں ہے ٠

ہوں یہ پتھر کے یا پھر ہوا کے
ان بتوں میں حقیقت نہیں ہے ٠

ہیں یہ منکر میں پھوٹی ندایں
آسمانوں کی ہجت نہیں ہے ٠٠ 

Monday, March 7, 2016

Junbishen 760



ग़ज़ल


ख़िरद का मशविरा है, ये की अब अबस निबाह है,
दलीले दिल ये कह रही है, उस में उसकी चाह है.

मुक़ाबले में है जुबान कि क़दिरे कलाम है,
सलाम आइना करे है, कि सब जहाँ सियाह है.

ज़मीर की रज़ा है गर, किसी अमल के वास्ते,
बहेस मुबाहसे जनाब, उस पे ख्वाह मख्वाह है.

लहू से सींच कर तुम्हारी खेतियाँ, अलग हूँ मैं,
किसी तरह का मशविरह, न अब कोई सलाह है.

नदी में तुम रवाँ दवां, कभी थे मछलियों के साथ,
बला के दावेदार हो, समन्दरों की थाह है.

तलाश में वजूद के ये, ज़िन्दगी तड़प गई,
फुजूल का ये कौल है, कि चाह है तो राह है.
*****
*खिरद=विवेक * अबस व्यर्थ *क़दिरे कलाम =भाषाधिकार

غزل

خرد کا مشورہ ہے یہ کہ اب ابس نباہ ہے
دلیل دل کی کہرہی ہے ، اسمیں میری چاہ ہے ٠ 

مقابلے میں ہے زباں ، کہ قادر کلام ہے
سوال آئینہ کیے ہے ، سب جہاں سیاہ ہے ٠ 

ضمیر کی رضا ہے گر ، کسی عمل کے واسطے 
بحس مباحسا جناب ، اس میں خواہ مخواہ ہے ٠ 

لہو سے سینچ کر، تمہاری کھیتیاں الگ ہوں میں
کسی طرح کا مشورہ ، نہ اب کوئی صلاح ہے ٠ 

ندی میں تم رواں دواں ، کبھی تھے مچھلیوں کے ساتھ 
بلا کے دعوے دار ہو ، سمندروں کی تھاہ ہے ٠ 

تلاش میں وجود کے یہ زندگی تڑپ گئی، 
فضول کا یہ قول ہے کہ چاہ ہے تو راہ ہے ٠

Friday, March 4, 2016

Junbishen 759


 ग़ज़ल

जीवन आपाधापी है, 
लोभी है ये पापी है .
 आपे से बाहर है वह, 
कहते हैं परतापी है. 
पहले जग को जीता था ,
बाद में तुर्बत नापी है. 
अपने तन का भक्षि है, 
कितना वह संतापी है. 
हिन्दू मुस्लिम ईसाई ,
जात बिरादर नापी है. 
धर्मों का विष त्यागा है, 
अपनी मन मदिरा पी है. 
दिल मुंकिर का कैसा है ?
हक की फोटो कापी है. 
*बोखालत=कंजूसी *केनाआतें=संतोष *कलंदरी=मस्त-मौला *''सवाब ओ गनीमत'' =पुण्य एवं लूट-पाट*सुखनवरी=वाक्-पुटता.

Thursday, March 3, 2016

Junbishen 758



 ग़ज़ल

कभी कभी तो, मुझे तू निराश करता है,
मेरे वजूद में, खुद को तलाश करता है.

मेरे वजूद का, खुद अपना एक परिचय है,
सुधारता नहीं, तू इस को लाश करता है.

किसी इलाके के, थोड़े विकास के ख़ातिर,
बड़ी ज़मीन का, तू सर्वनाश करता है.

मैं होश में हूँ ,हजारों कटार के आगे,
तुम्हारे हाथ का कंकड़, निराश करता है.

निसार जाँ से तेरी, इस लिए अदावत है,
तेरे खुदाओं का, वह पर्दा फ़ाश करता है.

नशा हो शक्ति का, या हो शराब का 'मुंकिर" ,
नशे की शान है वह सर्व नाश करता है.
*****