Thursday, November 19, 2015

Junbishen 715

रुबाइयाँ 


बस यूं ही ज़रा पूछ लिया क्यों है खड़ा?
दो चार अदद घूँसे मेरे मुंह जड़ा ,
आई हुई शामत थी , मज़ा चखना था,
सोए हुए कुत्ते पे मेरा पैर पड़ा. 

मज्मूम सियासत की फ़ज़ा है पूरी,
हमराह मुनाफ़िक़ हो नहीं मजबूरी, 
ढोता है गुनाहों को, उसे ढोने दो,
इतना ही बहुत है कि रहे कुछ दूरी.

मेहनत की कमाई   पे ही जीता है फ़कीर,
हर गाम कटोरे में भरे अपना ज़मीर,
फतवों की हुकूमत थी,था शाहों का जलाल,
बे खौफ़ खरी बात ही करता था कबीर.

फ़न को तौलते रहे, गारत थी फ़िक्र,
था मेराज पर उरूज़, नदारत थी फ़िक्र,
थी ग़ज़ल ब-अकद, समाअत क्वाँरी,
थी ज़बाँ ब वस्ल , ब इद्दत थी फ़िक्र. 

खुद मुझ से मेरा ज़र्फ़ जला जाता है,
कज़ोरियों पर हाथ मला जाता है,
दिल मेरा कभी मुझ से बग़ावत करके,
शैतान के क़ब्ज़े में चला जाता है.

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