Friday, October 9, 2015

Junbishen 697



रुबाइयाँ 

रुबाइयाँ 

है रीश रवाँ, शक्ल पे गेसू है रवां,
हँसते हैं परी ज़ाद सभी, तुम पे मियाँ, 
मसरूफ इबादत हो, मशक्क़त बईद,
करनी नहीं शादी तुम्हें? कैसे हो जवान.


जब तक नहीं जागोगे दलित और पिछडो,
आपस में लड़ोगे यूं ही शोषित बंदो,
ग़ालिब ही रहेंगे तुम पे ये मनुवादी,
ऐ अक्ल के अन्धो! और करम के फूटो !!


क्या शय है मनुवाद तेरा खोटा निजाम,
महफूज़ बरहमन के लिए हर इक जाम,
मैं ने है पढ़ा तेरी मनु स्मृति में,
सर शर्म से झुकता है तेरा पढ़ के पयाम.


मूसा सा अड़ा मैं तो क़बा खोल दिया, 
सदयों से पड़ी ज़िद की गिरह खोल दिया,
रेहल रख दिया, उसपे किताबे महशर,
पढने के लिए उसने नदा खोल दिया.


मिम्बर पे मदारी को अदा मिलती है,
मौज़ूअ पे मुक़र्रिर को सदा मिलती है,
रुतबा मेरा औरों से ज़रा हट के है,
हम पहुंचे हुवों को ही नदा मिलती है. 


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