Friday, August 28, 2015

Junbishen 680


नज़्म 

मशविरे

छोड़ो पुरानी राहें, सभी हैं गली हुई,
राहें बहुत सी आज भी, हैं बे चली हुई।

महदूद1 मोहमिलात२ में, क्यूं हो फंसे हुए,
ढूँढो जज़ीरे आज भी हैं, बे बसे हुए।

ऐ नौ जवानो! अपना नया आसमां रचो,
है उम्र अज़्मो-जोश३ की,संतोष से बचो।

कोहना रिवायतों4 की, ये मीनार तोड़ दो,
धरती पे अपनी थोडी सी, पहचान छोड़ दो।

धो डालो इस नसीब को अर्क़े ए जबीं५ से तुम,
अपने हुक़ूक़६ लेके ही, मानो ज़मीं से तुम।

फ़रमान हों खुदा के, कि इन्सान के नियम,
इन सब से थोड़ा आगे, बढ़ाना है अब क़दम।

१ -सीमित २ -अर्थ हीन ३- उत्साह ४ -पुरानी मान्यताएं ५ -माथे का पसीना ६ -अधिकार .

Wednesday, August 26, 2015

Junbishen 679

नज़्म 

दावत ए फ़िक्र 1

सोचो सीधे शरीफ़ इंसानों!
शख्सी२ आज़ादिए तबअ३ क्या है?
यह तुम्हारी अजीब फ़ितरत है,
अपने अंदर के नर्म गोशों में,
इक शजर खौफ़ का उगाते हो,
और खुशियों की आरज़ू लेकर,
गर्दनें अपनी पेश करते हो,
मज़हबी डाकुओं की खिदमत में,
सेवा में, धार्मिक लुटेरों के,
हैं जो झूटे वह खूब वाक़िफ़ हैं,
खौफ़ से जो तुम्हारे अंदर है,
वह तुम्हारा इलाज करते हैं,
मॉल के बदले चाल को देकर।
लस-सलाह की वह सदा देते हैं,
अपनी इस्लाह४ वह नहीं करते,
लल्फ़लाह की सदा लगाते हैं,
ताकि इनकी फलाह५ होती रहे,
इनका ज़रिया मुआश६ का तकिया,
हमीं मेहनत कशों पे है रख्खी,
हर नई नस्ल इल्म नव७ से जुडें,
इनको यह कतई गवारह नहीं,
इनको शिद्दत पसंद८ बनाते हैं,
आयत ए शर९ से वर्गालाते हैं.
ऐ मेरी क़ौम ! वक़्त है जागो ,
साये से इनके दूर अब भागो .

१-चिंतन का आवाहन २- व्यक्तिगत 3- जेहनी आज़ादी 4-सुधार 5-भलाई इनके-भरण पोशन७-नई शिक्छा ८-अति वादी ९ -उग्रवादी आयतें

Sunday, August 23, 2015

Junbishen 678

nazm

मंसूरी1 आईना

दस्तख़त किसके हैं, मख़लूक़२ की शक्ल ओ सूरत?
किसकी तहरीर है, फ़ितरत की ये नक़्ल ओ हरकत३ ?

इसकी तशरीह4 किया करते हैं, पंडित,मुल्ला,
अपनी दूकानें लिए बैठे हैं, बुत और अल्लाह।

खोज 'उसकी'अगर जो चाहता है, ख़ुद में कर',
'उसके' हर राज़ का हमराज़ है, ये तेरा सर।

राएगां५ जाते हैं, तेरे ये शबो-रोजी सुजूद६ ,
था अनल हक़ की स,दाओं में किसी हक़ का वजूद।

ख़ुद को पहचान तू ,महकूमी७ को दुश्नाम८ ,

ख़ुद को पा जाए तो, जीता हुआ इनआम समझ।

१-एक अरबी संत जिसने स्वयम में इश्वर ईश्वर होने का एलन किया २-प्राणि.३-गति-विधि ४-vyaakhyaa 5 -vyarth 6 - सजदे ७-गुलामी ८-गाली

Friday, August 21, 2015

Junbishen 677

नज़्म 

बनाम शरीफ़ दोस्त



तू जग चुका है और, इबादत गुज़ार1 है,
सोए हुए खुदा की, यही तुझ पे मार है।

दैरो हरम २ के सम्त३, बढ़ाता है क्यूं क़दम?
डरता है तू समाज से! शैतां सवार है।

इस इल्मे वाहियात4 को तुर्बत5 में गाड़ दे,
अरबों की दास्तान, समाअत6 पे बार है।

हम से जो मज़हबों ने लिया, सब ही नक़्द था,
बदले में जो दिया है, सभी कुछ उधार है।

खाकर उठा हूँ , दोनों तरफ़ की मैं ठोकरें,
पत्थर से आदमी की, बहुत ज़ोरदार है।

तहज़ीब चाहती है, बग़ावत के अज़्म७ को,
तलवारे-वक्त देख ज़रा, कितनी धार है।

जिनको है रोशनी से, नहाना ही कशमकश,
उनके लिए यह रोशनी, भी दूर पार है।

'मुंकिर' के साथ आ, तो संवर जाए यह जहाँ,
ग़लती से यह समाज, खता का शिकार है।

१-उपासक २-मन्दिर और काबा ३-तरफ़ ४-ब्यर्थ -ज्ञान ५-समाधी 6श्रवण- शक्ति ८-उत्साह

Wednesday, August 19, 2015

Junbishen 676

नज़्म 


बेदारियाँ  

तुम्हारी हस्ती में, रूपोश१ इक खज़ाना है,
तुम्हारी हिस२ की, कुदालों को धार पाना है।

इसे तमअ३ के तराज़ू में तोलना न कभी,
किसी भी हाल में, कीमत नहीं लगाना है।

जो ख़ाली हाथ ही जाते हैं, उनको जाने दो,
तुम्हारे हाथ तजस्सुस५ भरे ही जाना है।

तुम्हीं को चुनना है, हर फूल अपने ज़ख्मो के,
सदा मदद की, कभी भी नहीं लगाना है।

सरों पे कूदती माज़ी६ की, इन किताबों को,
ज़रूर पढ़ना, मगर हाँ कि, यह फ़साना हैं।

हैं पैरवी यह सभी दिल पे बंदिशे 'मुंकिर',
जो साज़ ख़ुद है बनाया, उसे बजाना है।

0-जागरण २-ओझल होना ३-आभस ४- लालच ५कौतूहल ६-अतीत

Monday, August 17, 2015

Junbishen 675

क़तआत

ढांचों के ढेंचू

दो सोलहवीं सदी के बहादुर थके हुए,
रक्तों की प्यास, खून की लज़्ज़त चखे हुए,
फ़िर से हुए हैं दस्तो-गरीबां यह सींगदार,
इतिहास की ग़लाज़तें सर पर रखे हुए।


शायरी 
फ़िक्र से ख़ारिज अगर है शायरी , बे रूह है ,
फ़न से है आरास्ता , माना मगर मकरूह है,
हम्द नातें मरसिया , लाफ़िकरी हैं, फिक्रें नहीं ,
फ़िक्र ए नव की बारयाबी , शायरी की रूह है . 


शोधन 
मेरे सच का विरोध करते हैं ,
ईश वाणी पे शोध करते हैं ,
फिर वह लाते हैं भाग्य का शोधन ,
नासतिक पर क्रोध करते हैं 

Saturday, August 15, 2015

Junbishen 674

रुबाईयां 

कहते हैं कि मुनकिर कोई रिश्ता ढूंढो, 
बेटी के लिए कोई फ़रिश्ता ढूंढो, 
माँ   बाप के मेयर पे आएं पैगाम, 
अब कौन कहे , अपना गुज़िश्ता ढूंढो. 


लगता है कि जैसे हो पराया ईमान, 
या आबा ओ अजदाद से पाया ईमान , 
या उसने डराया धमकाया इतना , 
वह खौफ के मारे ले आया ईमान. 


चाहे जिसे इज्ज़त दे, चाहे ज़िल्लत, 
चाहे जिसे ईमान दे, चाहे लानत, 
समझाने बुझाने की मशक्क़त क्यों है? 
जब खुद तेरे ताबे में है सारी हिकमत . 


चल दिए दबे क़दम किधर , ज़ाहिद तुम,
साथ में लिए हुए ये मुल्हिद तुम , 
पी ली उसकी या पिला दिया अपनी मय ,
था तुम्हारा नक्काद ये और नाक़िद तुम .


जब गुज़रे हवादिस तो तलाशे है दिमाग, 
तब मय की परी हमको दिखाती चराग़, 
रुक जाती है वजूद में बपा जंग, 
फूल बन कर खिल जाते हैं दिल के सब दाग 

Tuesday, August 11, 2015

Junbishen 673


रुबाइयाँ


क्यों तूने बनाया इन्हें बोदा यारब!
ज़ेहनों को छुए इनका अकीदा1 यारब,
पूजे जो कोई मूरत, काफ़िर ये कहें,
खुद क़बरी सनम2 पर करें सजदा यारब.


नन्हीं सी मेरी जान से जलते क्यों हो,
यारो मेरी पहचान से जलते क्यों हो,
तुम खुद ही किसी भेड़ की गुम शुदगी हो, 
मुंकिर को मिली शान से जलते क्यों हो.


आज़माइशें हुईं, क़रीना आया,
चैलेंज हुए क़ुबूल, जीना आया.
शम्स ओ क़मर की हुई पैमाइश, 
लफ्फ़ाज़ के दांतों पसीना आया


मुमकिन है कि माज़ी में ख़िरद गोठिल हो, 
समझाने ,समझने में बड़ी मुश्किल हो, 
कैसा है ज़ेहन अब जो समझ लेता है, 
मज़मून में मफ़हूम अगर मुह्मिल हो. 


ये ईश की बानी, ये निदा की बातें, 
आकाश से उतरी हुई ये सलवातें , 
इन्सां में जो नफ़रत की दराडें डालें, 
पाबन्दी लगे ज़प्त हों इनकी घातें. 

Monday, August 10, 2015

Junbishen 672

नज़्म 

कब तक ?

अंधी गुफाओं में कब तक छुपोगे ?
नस्लों के हमराह कब तक चुकोगे ?
गुमबद, शिवालों के कारीगरों पर ,
सदियों से झुकते हो, कब तक झुकोगे ?

क़ौमे नई सीढियाँ गढ़ रही ,
देखो ख़लाओं की छत चढ़ रही हैं ,
तुम हो कि माज़ी से लिपटे हुए हो ,
नस्लें तुम्हारी दुआ पढ़ रही हैं .

जागो नई रोशनी आ गयी है ,
सच्चाइयों को ज़मीन पा गयी है ,
रस्मों के जालों में उलझे हुए हो ,
तह्जीबे नव, इससे घबरा गयी है .

पीछे बहुत रह न जाओ दिवानो ,
न ख़्वाबों की जन्नत में जाओ दिवानो ,

बच्चों को आगे बढाओ दिवानो ,
'मुंकिर' के संग जाग जाओ दिवानो .
खलाओं =क्षितिजो

Friday, August 7, 2015

Junbishen 671

नज़्म 

तुम - - -

ख़ुद को समझ रहे हो, कि रूहे रवां1 हो तुम ,
खिलक़त2 ये कह रही है, कि उसपे गरां हो तुम ।

सब फ़ारिग़ सलात3 अभी तक अजां हो तुम ,
हर सम्त है बहार,  शिकार खिजाँ4 हो तुम ।

क्यूँ चाहते हो, अपना यकीं सब पे थोप दो ,
है भूत आस्था का, वहीं पर जहाँ हो तुम ।

फ़रदा5 की कोख में हैं, सभी हल छिपे हुए ,
माज़ी6 सवार सम्त, मुखालिफ़7 रवाँ हो तुम ।

सर जिस्म पर ज़रूर है, रूहों का क्या पता ?
इसका ख़याल पहले करो, नातवाँ8 हो तुम ।

शिद्दत9 है, जंग जूई10, बेएतदाली11 है ,
आपस में लड़ रहे हो, जहाँ इम्तेहानहो तुम ।

महकूम12 गर हुए, तो रवा दारी13 चाहिए ,
कुछ और ही लगे हो, जहाँ हुक्मराँ14 हो तुम ।

कुछ ऐसे बन सको, कि तुम्हारी हो पैरवी ,
दुन्या गवाह हो, कि उरूजे-जहाँ15 हो तुम ।

'मुंकिर' जगा रहा है, उठो मर्तबा16 वालो ,
इक्कीसवीं सदी में, जहाँ है, कहाँ हो तुम।


1-प्राण-वर्धक २- अन्तर राष्ट्रिय जन समूह ३-नमाज़ अदा कर चुकना ४-पतझड़ ५-आनेवाला कल ६-अतीत ७-उल्टी दिशा ८ -कमजोर
 ९-उग्रता १०-युद्धाभियान ११-असंतुलन १२-आधीन १३ -उचित बर्ताव १४-शाशक१५- दुन्या ऊपर १६-श्रेरेष्ट

Wednesday, August 5, 2015

Junbishen 670

नज़्म 

मैं ----

सदियों की काविशों1 का, ये रद्दे अमल2 हूँ मैं ,
लाखों बरस के अज़्म मुसलसल3 का फल हूँ मैं ।

हालाते ज़िंदगी ने मुझे नज़्म4 कर दिया ,
फ़ितरत5 के आईने में, वगरना ग़ज़ल6 हूँ मैं।

मेयारे आम7 होगा, कि जिसके हैं सब असीर8 ,
हस्ती है मेरी अपनी, ख़ुद अपना ही बल हूँ मैं ।

उक़दा कुशाई9 मेरी, ढलानों पे मत करो ,
थोड़ा सा कुछ फ़राज़10 पे, आओ तो हल हूँ मैं ।

ये तुम पे मुनहसर है, मुझे किस तरह छुओ ,
पत्थर की तरह सख्त, तो कोमल कमल हूँ मैं ।

मुझ को क़सम है, रुक्न हुक़ूक़ुल इबाद11 की ,
ज़मज़म12 सा पाक साफ़ हूँ, और गंगा जल हूँ मैं ।

इंसानियत से बढ़ के, मेरा दीन कुछ नहीं ,
सच की तरह ही अपनी, ज़मीं पर अटल हूँ मैं ।

मुनाफ़िक़13 की ख़ू  नहीं है, न दारो रसन14 का खौफ़  ,
मैं हूँ खुली किताब, बबांगे दुहल15 हूँ मैं ।

मैं कुछ अज़ीम लोगों को, सजदा न कर सका ,
उनकी ही पैरवी में, मगर बा अमल हूँ मैं ।

'मुंकिर' को कोई ज़िद है, न कोई जूनून है ,
लाओ किताबे सिदक16 तो देखो रहल17 हूँ में ।

१-प्रय्तानो २-प्रतिक्रया ३-लगातार उत्साह ४-शीर्षक अधीन कविता ५-प्रकृति ६-प्रेमिका से वरत्लाप ७-मध्यम अस्तर ८-कैद ९-गाठे खोलना १०-ऊंचाई ११-बन्दों का अधिकार १२-मक्के का जल १३-दोगुला 14 फाँसी १5-डंके की चोट १6-सच्ची किताब १7-किताब पढने का स्टैंड

Monday, August 3, 2015

Junbishen 669



शक बहक 
यकीं बहुत कर चुके हो यारो ,
इक मरहला1 है, गुमाँ2 को समझो .

यकीं है अक्सर तुम्हारी गफ़लत ,
खिरद3 के आबे-रवां को समझो .

अक़ीदतें और आस्थाएँ ,
यकीं की धुंधली सी रह गुज़र4 हैं .

ख़रीदती हैं यह सादा लौही5,
यकीं की नाक़िस दुकाँ को समझो .

१-पड़ाव २-अविश्वाश का उचित मार्ग ३-अक्ल ४-सरल स्वभाव ५-हानि करक