Saturday, June 13, 2015

Junbishen 648 Qataat 1-3



Qataat
कुछ न समझे खुदा करे कोई 
हिन्दू के लिए मैं इक, मुस्लिम ही हूँ आखिर ,
मुस्लिम ये समझते हैं, गुमराह है काफ़िर ,
इंसान भी होते हैं, कुछ लोग जहाँ में ,
गफ़लत में हैं ये दोनों, समझाएगा 'मुनकिर';


ज़िन्दगी कटी
बन्ने का और संवारने का मौक़ा न मिल सका,
खुशियों से बात करने का मौक़ा न मिला सका,
बन्दर से खेत ताकने में ही ज़िन्दगी कटी,
कुछ और कर गुजरने का मौक़ा न मिल सका।


बुख्ल(कृपण)
बन के बीमार लेट लेता हूँ,
मुंह पे चादर लपेट लेता हूँ,
ऐ शनाशाई१ तेरी आहट से,
अपनी किरनें समेट लेता हूँ।
१-परिचय

No comments:

Post a Comment