Saturday, May 30, 2015

Junbishen 643 Nazm 4


 नज़्म 

ख्वाहिशे पैग़म्बरी

जी में आता है कि मैं भी, इक ख़ुदा पैदा करुँ।
पहले जैसों ही, सदाक़त1 में रिया2 पैदा करुँ ।

कुछ ख़ता पैदा करुँ , फ़िर कुछ सज़ा पैदा करुँ ,
मौत से पहले ही इक, यौमे जज़ा3 पैदा करुँ ।

आऊँ और जाऊं पहाडों पर, निदा4 के वास्ते ,
वह्यी5 सी, या देव वाणी सी, सदा पैदा करुँ ।

गढ़ के इक हुलया निकालूँ , ख़ुद को इस मैदान में ,
सब से हट कर इक अनोखी ही अदा पैदा करुँ ।

मुह्मिलों6 में फ़लसफ़े रागमाले डालकर ,
आश्रम में रख के, अपना बुत गिज़ा पैदा करुँ ।

उफ़! कि दिल क़ैद खाने में है 'मुनकिर' का ज़मीर ,
कैसे मासूमों के ख़ातिर,  मैं दग़ा पैदा करुँ ।

१-सत्य २-मिथ्य ३-प्रलय के बाद इनाम पाने का दिन ४-आकाशवाणी ५-ईश्वानी ६- अर्थ हीन और अनरगल 

Thursday, May 28, 2015

Junbishen 642 Nazm 3



 नज़्म 

सना  1
तूने सूरज चाँद बनाया, होगा हम से क्या मतलब,
तूने तारों को चमकाया, होगा हम से क्या मतलब,
तूने बादल को बरसाया, होगा हम से क्या मतलब,
तूने फूलों को महकाया, होगा हम से क्या मतलब।

तूने क्यूं बीमारी दी है, तू ने क्यूं आजारी दी?
तूने क्यूं मजबूरी दी है, तूने क्यूं लाचारी दी?
तूने क्यूं महकूमी१ दी है, तूने क्यूं सलारी२ दी?
तूने क्यूं अय्यारी दी है, तूने क्यूं मक्कारी दी?

तूने क्यूं आमाल३ बनाए, तूने क्यूं तक़दीर गढा?
तूने क्यूं आज़ाद तबअ४ दी, तूने क्यूं ज़ंजीर गढा?
ज़न,ज़र,मय५ में लज़्ज़त देकर, उसमें फिर तक़सीर६ गढा,
सुम्मुम,बुक्मुम,उमयुन७ कहके, तअनो की तक़रीर गढा।

बअज़ आए तेरी राहों से, हिकमत तू वापस लेले,
बहुत कसी हैं तेरी बाहें, चाहत तू वापस लेले,
काफ़िर, 'मुंकिर' से थोडी सी नफ़रत तू वापस लेले,
दोज़ख़ में तू आग लगा दे, जन्नत तू वापस लेले।
शीर्षक =ईश-गान १-आधीनता २-सेनाधिकार ३-स्वछंदता ५-सुंदरी,धन,सुरा,६-अपराध ७-अल्लाह अपनी बात न मानने वालों को गूंगे,बहरे और अंधे कह कर मना करता है कि मत समझो इनको,इनकी समझ में न आएगा

Tuesday, May 26, 2015

Junbishen 641 Nazm 2


Nazm
बइस्म ए सिद्क़ 1
(सच्चाई के नाम से शुरू करता हूँ )

यह जुम्बिशें हैं दिल की, बेदारी2 सू ए ज़न2+ की ,
हैं रूह की खराशें, टीसें हैं मेरे मन की ।

रस्मो की बारगाहें3 ,बाज़ार हैं चलन की ,
बोसीदा4 हो चुकी हैं, दूकानें यह सुख़न5 की ।

फ़रमान ए  साबक़ा6 के, ऐ बाज़ गाश्तो7 ठहरो ,
अब होगी आज़माइश, थोड़े से बांकपन की ।

आतश फिशां8 की नोबत, आए तो क्यूं न आए ,
बेचैन हो चुकी हैं, पाबंदियां दहन* की ।

जिस झूट में सदाक़त10, साबित हुई हो शर से ,
उस सिद्क़11 को ज़रूरत है गोर12 और कफ़न की ।

तालीम नव13 के तालिब14, अब अर्श१५ छू रहे हैं ,
डोरी न इनको खींचे, इन शेखो बरहमन की

गर दिल पे बोझ आये, ईमान छट पटाए ,
ऐसे क़फ़स१६से निकलो, छोडो फ़िज़ा चुभन की ।

हम सब ही आलमीं17हैं, भूगोल सब की माँ है ,
आओ बढाएं अज़मत18, हम मादर ए वतन की।

धर्मो से पाई मुक्ति, मज़हब से पाई छुट्टी ,
इंसानियत की बूटी, पीडा हरे है मन की ।

तामीर19 में है बाकी, जो ईंट, वोह है 'मुंकिर',
मेमार20 इसको चुन दे, तकमील21 हो चमन की।

१-प्रचलित बिस्मिल्लाह या श्री गणेश २-जागरण 2+ MITURITY३-दरबार ४-जीर्ण ५-वाणी ६-पुरानेआदेश ७-प्रति -ध्वनी
८-ज्वाला-मुखी ९-मुख (दहन =मुँह)१० सत्यता 11-सत्य 12 -कब्र १३-नवीं शिक्छा १४-इच्छुक १५-आकाश १६-पिंजडा १७-अन्तर राष्ट्रीय 18 मर्यादा 19-रचना 20-रचना कार २१-सम्पूर्णता.

Sunday, May 24, 2015

Junbishen 640 Nazm 1


ह्म्द1
तेरी संगत तो मुश्किल,कि ऐ मौला निभा पाऊँ,
अजाबों २ में तेरे ख़ुद को, हमेशा मुब्तिला पाऊँ ।

अक़ीदा ३ है मगर कितना ख़तरनाकी की हद में,
कि तुझ पर सर झुका कर ही, सरे अक्दास४ उठा पाऊँ।

तमस्खुर ५ को बुरा माने ,तू संजीदा ६ हुवा वाके ७ ,
तुझे गर भूल ही जाऊं थोड़ा मुस्कुरा पाऊँ ।

बड़ा ही मुन्तक़िम ८ है तू चला करता है चालें भी ,
कहीं मफ़रूर ९ होकर ही अदू १० से सर बचा पाऊँ ।

अना ११ तेरी रक़ीबाना १२ , है क़ायम वाहिदे मुतलक १३ ,
बड़ा मुश्किल मुक़ामे किब्रियाई १४ है, अमां पाऊँ।

नमाज़ो , हज ,ज़कातो ,रोज़ादारी १५ ,क़र्ज़ हैं तेरे ,
हयाते खुश नुमा १६ को, गर सज़ा दूँ तो चुका पाऊँ।

मुझे मंज़ूर हैं दोज़ख़  की सारी कुल्फ़तें १७ 'मुंकिर ',
तलाशे हक़ १८ में मर जाऊं, तो कोई भी सज़ा पाऊँ ।
१-वन्दना २-विपत्ति ३-आस्था ४-पवित्र शीश ५-हस-परिहास ६-गंभीर ७-स्थापित होना
८-प्रति शोध ९-पलायन वादी १०-शत्रु ११आत्म सम्मान १२-दुश्मनी १३- एकेश्वर ४-ईश्वरीय श्रेष्टता
१५-ये चार इस्लाम के मूल-भूत कर्म-कांड हैं १६-सुखी जीवन १७-यातनाएं १८-सत्य की खोज .

Friday, May 22, 2015

Junbishen 639 Ghazal 10


 ग़ज़ल

साफ़ सुथरी सी काएनात मिले,
तंग जेहनो से कुछ, नजात मिले।

संस्कारों में, धर्म और मज़हब,
न विरासत में जात, पात मिले।

आप की मजलिसे मुक़द्दस1 में,
सिर्फ़ फ़ितनों के, कुछ नुक़ात2 मिले।

तुझ से मिल कर गुमान होता है,
बस की जैसे, खुदा की ज़ात मिले।

उलझी गुत्थी है, सांस की गर्दिश,
एक सुलझी हुई, हयात मिले।

हर्फ़ ए आखीर हैं, तेरी बातें,
इस में ढूँढा कि कोई बात मिले।

१-सदभाव-सभा २-षड़यंत्र-सूत्र

Wednesday, May 20, 2015

Junbishen 638 Ghazal 9


 ग़ज़ल

उफ़! दामे मग्फ़िरत 1 में, बहुत मुब्तिला था ये,
नादाँ था दिल, तलाशे खुदा में पड़ा था ये।

महरूम रह गया हूँ, मैं छोटे गुनाह से ,
किस दर्जा पुर फ़रेब, यक़ीन जज़ा2 था ये।

पुर अमन थी ज़मीन ये, कुछ रोज़ के लिए ,
तारीख़ी वाक़ेओं में, बड़ा वक़िआ का था ये।

मानी सभी थे द्फ़्न समाअत३ की क़ब्र में,
अल्फ़ाज़ ही न पैदा हुए, सानेहा था ये।

हर ऐरे गैरे बुत को, हरम से हटा दिए,
तेरा4 लगा दिया था, कि सब से बड़ा था ये।

'मुंकिर' पडा है क़ब्र में , तुम ग़म में हो पड़े,
तिफ़ली5 अदावतों का नतीजा मिला था ये।

१-मुक्ति का भ्रम जाल २-मुक्ति का विशवास ३-श्रवण शक्ति ४-अर्थात अल्लाह का ५-बचकाना.

Monday, May 18, 2015

Junbishen 637 Ghazal 8

 ग़ज़ल

अगर ख़ुद को समझ पाओ, तो ख़ुद अपने ख़ुदा हो तुम,
 किन किन के बतलाए हुओं में, मुब्तिला हो तुम।

है अपने आप में ही खींचा-तानी, तुम लडोगे क्या ?
इकट्ठा कर लो ख़ुद को, मुन्तशिर हो, जा बजा1 हो तुम।

मरे माज़ी2 का अपने, ऐ ढिंढोरा पीटने वालो!
बहुत शर्मिन्दा है ये हाल, जिस के सानेहा3 हो तुम।

तुम अपने ज़हर के सौगात को, वापस ही ले जाओ,
कहाँ इतने बड़े हो? तोह्फ़ा दो मुझ को, गदा4 हो तुम।

फ़लक़ पर आक़बत 5 की, खेतियों को जोतने वालो,
ज़मीं कहती है इस पर एक, दाग़े बद नुमा हो तुम।

चलो वीराने में 'मुंकिर' कि फुर्सत हो ख़ुदाओं से,
बहुत मुमकिन है मिल जाए खुदाई भी, बजा हो तुम.

१-बिखरे हुए २-अतीत ३-विडम्बना ४-भिखरी ५-परलोक

Saturday, May 16, 2015

Junbishen 636- Ghazal 7

 ग़ज़ल

अगर ख़ुद को समझ पाओ, तो ख़ुद अपने ख़ुदा हो तुम,
 किन किन के बतलाए हुओं में, मुब्तिला हो तुम।

है अपने आप में ही खींचा-तानी, तुम लडोगे क्या ?
इकट्ठा कर लो ख़ुद को, मुन्तशिर हो, जा बजा1 हो तुम।

मरे माज़ी2 का अपने, ऐ ढिंढोरा पीटने वालो!
बहुत शर्मिन्दा है ये हाल, जिस के सानेहा3 हो तुम।

तुम अपने ज़हर के सौगात को, वापस ही ले जाओ,
कहाँ इतने बड़े हो? तोह्फ़ा दो मुझ को, गदा4 हो तुम।

फ़लक़ पर आक़बत 5 की, खेतियों को जोतने वालो,
ज़मीं कहती है इस पर एक, दाग़े बद नुमा हो तुम।

चलो वीराने में 'मुंकिर' कि फुर्सत हो ख़ुदाओं से,
बहुत मुमकिन है मिल जाए खुदाई भी, बजा हो तुम.

१-बिखरे हुए २-अतीत ३-विडम्बना ४-भिखरी ५-परलोक

Thursday, May 14, 2015

Junbishen 635 ghazal 6

 ग़ज़ल

हैं मसअले ज़मीनी, हलहाए आसमानी,
नीचे से बेखबर है, ऊपर की लन तरानी।

फ़रमान सीधे सादे, पुर पेच तर्जुमानी,
उफ़! कूवाते समाअत* उफ़! हद्दे बे जुबानी।

ना जेबा तसल्लुत1 है, बेजा यकीं दहानी2,
ख़ुद बन गई है दुन्या, या कोई इसका बानी।

मैं सच को ढो रहा था, तुम कब्र खोदते थे,
आख़िर ज़मीं ने उगले, सच्चाइयों के मानी।

कर लूँ शिकार तेरा, या तू मुझे करेगा,
बन जा तू ईं जहानी3, या बन जा आँ जहानी4।

ईमान ऐ अस्ल शायद, तस्लीम का चुका है,
वह आग आग हस्ती, "मुंकिर" है पानी पानी।

* श्रवण-शक्ति १-लदान २-विशवास दिलाना ३-इस जहान के ४-उस जहान के

Tuesday, May 12, 2015

junbishen 635 Ghazal 5

 ग़ज़ल

तालीम नई जेहल1 मिटाने पे तुली है,
रूहानी वबा२ है, कि लुभाने पे तुली है।

बेदार शरीअत3 की ज़रूरत है ज़मीं को,
अफ्लाफ़4 की लोरी ये सुलाने पे तुली है।

जो तोड़ सकेगा, वो बनाएगा नया घर,
तरकीबे रफ़ू, उम्र बिताने पे तुली है।

किस शिद्दते जदीद की, दुन्या है उनके सर
बस ज़िन्दगी का जश्न, मनाने पे तुली है।

मैं इल्म की दौलत को, जुटाने पे तुला हूँ,
कीमत को मेरी भीड़, घटाने पे तुली है।

'मुंकिर' की तराजू पे, अनल हक5 की  धरा6 है,
"जुंबिश" है कि तस्बीह के दानों पे तुली है।

१-अंध विशवास २-आध्यात्मिक रोग ३-बेदार शरीअत=जगी हुई नियमावली ४-आकाश ५- मैं ख़ुदा हूँ 6- वह वजन जो तराजू का पासंग ठीक करता है

Monday, May 11, 2015

Junbishen 633 Ghazal 4

ग़ज़ल

पोथी समाए भेजे में, तब कुछ यकीं भी हो,
ऐ गूंगी कायनात! ज़रा नुक़ता चीं भी हो।

खोदा है इल्मे नव ने, अक़ीदत के फर्श को,
अब अगले मोर्चे पे, वह अर्शे बरीं2 भी हो।

साइंस दाँ हैं बानी, नए आसमान के,
पैग़म्बरों के पास ही, इन की ज़मी भी हो।

ऐ इश्तेराक़3 ठहर भी, जागा है इन्फ़्राद4,
कहता है थोडी पूँजी, सभी की कहीं भी हो।

बारूद पर ज़मीन , हथेली पे आग है,
है अम्न का तक़ाज़ा, कि हाँ हो, नहीं भी हो।'


'मुंकिर' भी चाहता है, सदाक़त5 पे हो फ़िदा,
इन्साफ़ो आगाही6 को लिए, तेरा दीं7 भी हो।

२-सातवाँ आसमान ३-साम्यवाद ४-व्यक्तिवाद ५-सच्चाई ६न्याय एवं विज्ञप्ति ७-धर्म

Friday, May 8, 2015

Junbishen 632 Ghazal 3

ग़ज़ल
सब रवाँ मिर्रीख़१ पर, और आप का यह दरसे-दीन२ ,
कफ़िरीनो-मुशरिकीनो-मुनकिरीनो-मोमनीन3।

रौशनी कुछ सर पे कर लो, ताकि परछाईं का क़द,
छोटा हो जाए, तुम्हें कुछ अपने क़द पर हो यक़ीन।

सीखते क्या हो, इबादत और शरीअत के उसूल,
है ख़ुदा तो चाहता होगा, क़तारे ग़ाफ़िलीन।

तलिबाने अफ़ग़नी, और कार सेवक हैं अडे,
वह बजाएं, अपनी ढपली, यह बजाएं अपनी बीन।

जाने कितने काम बाक़ी हैं, जहाँ में और भी,
थोडी सी फुर्सत उसे, दे दे ख़याल ए  नाज़नीन।

साहबे ईमाँ! तुम्हारे हक़ में है 'मुंकिर' की राह,
सैकडों सालों से, ग़ालिब हैं ये तुम पर फ़ास्क़ीन4 ।

१-मंगल ग्रह पर २-धर्म-शास्त्र दर्शन ३-शास्त्र-शीर्षक ४-झूठे

Wednesday, May 6, 2015

Junbishen 631 ghazal 2

ghazal


शोर-किब्रियाई1 है, और स्वर हरे ! हरे !!

बख्श दे इन्हें खुदा, ईशवर उन्हें तरे।

वह है सच जो तूर पर, माइले-कलाम है?2

या कि उस पहाड़ पर, जो कि है जटा धरे।

आसमाँ पर वह उड़ा, आप का यकीं अरे?

कैसा आदमी था वह, अपनी ज़ात से परे?


कब्र को खिला रहे हो, तुम सवाब की गिज़ा,

तुम को क्या ज़मीन, पर कोई भूक से मरे।

यह ख़ुदा का घर नहीं है, तेरे घर में है ख़ुदा,

क्यूँ भटक रहा है तू, काबा काशी बाँवरे।

है ख़बर कि चल पड़े, दोनों तेरी रह पर,

ये ख़बर भी आएगी, कि दोनों फिर से लड़ मरे।

१-ईश वंदना का शोर २-अर्थात मूसा जो तूर पर्वत पर जाकर ईश्वर से बातें करते थेs


Monday, May 4, 2015

Junbishen 631 ghazal (1)


ghazal

किताब सर से उतरा है, कहे देता हूँ,
हमारे सर में भी पारा है, कहे देता हूँ।


फ़क़त नहीं वह तुम्हारा है, कहे देता हूँ,
सभी का उस पे इजारा है, कहे देता हूँ।

सवाब पढ़ के पढा के मिले, तो लानत है,
सवाब जीना गवारा है, कहे देता हूँ।

हज़ार साला पुराना, है वतीरा हाफिज़,
यह सर का भारी ख़सारा1 है, कहे देता हूँ।

दिमाग माने, कोई धर्म या कोई मज़हब,
लहू में पुरखों की धारा है, कहे देता हूँ।

यही नकार2 तो 'मुंकिर'की जमा पूँजी है,
इसी ने उसको संवारा है, कहे देता हूँ।

Saturday, May 2, 2015

Deewan 55 Ghazal


मअज़रत

मेरे यारो ! न गर बुरा मानो ,
देर तक मेरे पास मत बैठो ,
मेरी दुल्हन उदास होती है ,
तनहा पाकर ही पास होती है 

मेरी दुल्हन है मेरी तन्हाई ,
लेके आती है ऐसी अंगड़ाई ,
कायनातों का राज़ देती है ,
शेर माँगूं बयाज़2 देती है 
१ क्षमा याचना २ कविता-पोथी