Sunday, November 9, 2014

Junbishen 251



गज़ल
तलवार है समाज की फ़ितरत के हैं गले ,
गाए कहाँ पे इश्क़, कहाँ फूले और फले .

दातों तले ज़बान हो, या हाथ तू मले ,
मुंह से तेरे फिसल ही गई, बात हल्बले .

क्या खूब हो कि एक हवा, मौत की चले ,
शाखों को छोड़ जाएँ सभी, फल सड़े गले. 

ख़बरें फ़ना की और किसी नव जवां को हों,
जुज़्दान में ही रख अभी, क़ब्री मुआमले .

खुद साज़ियाँ मना हैं, तो खुद सोज़ियाँ हराम,
इस मसलिकी निज़ाम में, मुश्किल हैं मरहले .

किन मौसमों में क्या क्या, बोया कहाँ कहाँ ,
मुंकिर पकी हैं फ़स्ल सभी, जा के काट ले.

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