Wednesday, November 5, 2014

Junbishen 249



गज़ल

हरगिज़ न परेशां हों, जो इलज़ाम लगा हो,
जब तक कि हक़ीक़त में, तुम्हारी न ख़ता हो .

जो बातें बड़ों की तुम्हें अच्छी न लगी हों,
बेजा है की छोटों को, वही तुमने कहा हो. 

वह मौत की तफ़सीर बताने में है माहिर,
जिसने कि कभी ज़िन्दगी, समझा न जिया हो. 

जज़्बात के कानों में ज़रा उंगली लगा ले, 
जब खूं में तेरे, आग कोई घोल रहा हो. 

वह बोझ गुनाहों का,उठाए है कमर पे,
अब ढूंढ रहा है कि कहीं कोई गढ़ा हो. 

नस्लों का तेरे चाँद सितारों पे जनम हो ,
जन्नत की नहीं, हक में मेरे ऐसी दुआ हो .

1 comment:

  1. सहरो-शब जिसके गिर्दा है इक चाँद..,
    उस जऱ-ख़ेज ज़मीन की नस्ल हूँ मैं.....

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