Thursday, October 30, 2014

Junbishen 247



गज़ल

हर गाम रब के डर से सिहरने लगे हैं ये,
खुद अपनी बाज़ ए गश्त से डरने लगे हैं ये। 

गर्दानते हैं शोखी के लम्हात को गुनाह,
संजीदगी की घास को चरने लगे हैं ये। 

रूहानी पेशवा हैं कि खुद रूह के मरीज़,
पैदा नहीं हुए थे कि मरने लगे हैं ये. 

हैं इस लिए ख़फ़ा, मैं कभी नापता नहीं,
वह कार ए ख़ैर जिसको कि करने लगे हैं ये। 

खुद अपने जलवा गाह की पामालियों के बाद ,
हर आईने पे रुक के संवारने लगे हैं ये। 

मुंकिर ने फेंके टुकड़े ख़यालों के उनके गिर्द,
माक़ूलियत को पा के ठहेरने लगे हैं ये. 

Monday, October 27, 2014

Junbishen 246


गज़ल

वह्म का परदा उठा क्या, हक था सर में आ गया . 
दावा ए पैगंबरी हद्दे बशर में आ गया .

खौफ़ के बेजा तसल्लुत ने बग़ावत कर दिया ,
डर का वह आलम जो ग़ालिब था, हुनर में आ गया 
.
याद ए जाना तक थी बेहतर, आक़बत की फ़िक्र से ,
क्यों दिले ए नादाँ, तू ज़ाहिद के असर में आ गया .

जितनी शिद्दत से तहफ़्फ़ुज़ की दुआ कश्ती में थी ,
उतनी तेज़ी से सफ़ीना, क्यों भंवर में आ गया .

छोड़ कर हर काम, मेरी जान तू लाहौल पढ़ ,
मंदिरो मस्जिद का शैतां फिर नगर में आ गया .

एक दिन इक बे हुनर बे इल्म और काहिल वजूद ,
दीन की पुड़िया लिए, मुंकिर के घर में आ गया .

Saturday, October 25, 2014

Junbishen 245

रूबाइयाँ


इक फ़ासले के साथ मिला करते थे,
शिकवा न कोई और न गिला करते थे,
क़ुरबत की शिद्दतों ने डाली है दराड़ ,
दो रंग में दो फूल खिला करते थे.


खामोश हुए, मौत के ग़म मैंने पिए,
अब तुम भी न जलने दो ये आंसू के दिए,
मैं भूल चुका होता हूँ अपने सदमें,
तुम रोज़ चले आते हो पुरसे को लिए.


माइल बहिसाब यूँ न होना था तुम्हें ,
मालूम न था अज़ाब होना था तुम्हें,
हंगामे-जवानी की मेरी तासवीरों,
इतनी जल्दी ख़राब होना था तुन्हें?

Wednesday, October 22, 2014

Junbishen 244

गज़ल

मंजिल है पास, पुल का ज़रा एहतराम हो,
बानी पे इसके थोड़ा दरूद ओ सलाम हो. 

गाँधी को कह रही है, वह शैतान का पिसर,
जम्हूरियत के मुंह पे, ज़रा सा लगाम हो. 

इतिहास के बनों में, शिकारी की ये कथा ,
इसका पढ़ाना बंद हो, ये क़िस्सा तमाम हो. 

माल ओ मता ए उम्र के, सिफ्रों को क्या करें ,
गर सामने खड़ी ये हक़ीक़त की शाम हो. 

कुछ इस तरह से फतह, हमें मौत पर मिले,
सुकराती एतदाल हो, मीरा का जाम हो. 

कितनी कुशादगी है शराब ए हराम में ,
सर पे चढ़ा जूनून ए अकीदा हराम हो. 

Monday, October 20, 2014

Junbishen 243


रूबाइयाँ

माइल बहिसाब यूँ न होना था तुम्हें ,
मालूम न था अज़ाब होना था तुम्हें,
हंगामे-जवानी की मेरी तासवीरों,
इतनी जल्दी ख़राब होना था तुन्हें?



पंडित जी भी आइटम का ही दम ले आए,
तुम भी मियाँ परमाणु के बम ले आए,
लड़ जाओ धर्म युद्ध या मज़हबी जंगें ,
हम सब्र करेगे, उम्र कम ले आए.



तेरी मर्ज़ी पे है, मै बे दाग मरूँ,
हल्का हूँ पेट का, सुबकी को चरुं,
'मुनकिर' को नहीं हज्म बहुत से मौज़ूअ.
गीबात न करे तू तो, मैं चुगली न करून, 

Saturday, October 18, 2014

Junbishen 242




गज़ल


शाखशाना कोई अज़मत नहीं है,
भूल जाने में कुछ दिक़्क़त नहीं है .

दिल है नालां मगर नफरत नहीं है ,
वह मेरा आशना वहशत नहीं है.

मेरी जानिब से शर मुमकिन नहीं है ,
दिल दुखाना मेरी आदत नहीं है.

सच है दिल में , भटक रहे हो अबस,
दैर या फिर हरम में, सत् नहीं है.

आजज़ी कर चुके मुंकिर बहुत ,
और झुकने की अब ताक़त नहीं है.

मिल गया सब, मगर राहत नहीं है,
कह भी मुंकिर कि अब चाहत नहीं है.

Thursday, October 16, 2014

Junbishen 241



रूबाइयाँ

वह करके दुआ सबके लिए सोता है,
खिलक़त के लिए तुख्म -समर बोता है,
तुम और सताओ न मियां मुनकिर को,
मासूम की आहों में असर होता है.


इक फ़ासले के साथ मिला करते थे,
शिकवा न कोई और न गिला करते थे,
क़ुरबत की शिद्दतों ने डाली है दराड़ ,
दो रंग में दो फूल खिला करते थे.


खामोश हुए, मौत के ग़म मैंने पिए,
अब तुम भी न जलने दो ये आंसू के दिए,
मैं भूल चुका होता हूँ अपने सदमें,
तुम रोज़ चले आते हो पुरसे को लिए.

Monday, October 13, 2014

Junbishen 240



गज़ल
आओ चलें बहार में, बैठे हैं इंतज़ार में ,
रस्म ए कुहन इजाज़तें, डूबी हुई हैं ग़ार में .

माना कि आप हैं हसीं, माना जवान साल हैं ,
मैं भी खड़ा हूँ देर से, आ जाइए क़तार में ,

लिख्खे हुए वरक़ जो, छीटें ज़रा सी पड़ गईं ,
माने सभी बदल गए, देखिए चश्म ए यार में . 

उनको जिहद की दाद दो, जिनको खुदा ने सब दिया ,
उनके लिए खुदाई है, उनके ही अख्तियार में .

नेक अमल इबादतें, उज्र ओ जज़ा के वास्ते ,
अपने तईं वह कर चुका, बैठा है इंतज़ार में . 

सोने दे अब अना को तू, थक सी गईं हैं ये जुनैद,
राह फ़रार तू भी ले, ख़तरा है इक़्तेदार में .

Saturday, October 11, 2014

Junbishen 239



गज़ल

अब मेरी उस से बोल चाल नहीं,
है सुकूं, कोई क़ील ओ क़ाल नहीं . 

मेरी उस से अजब लड़ाई है, 
सर में तलवार, दिल में बाल नहीं . 

तेरी रिश्वत की तर बतर रोटी,
मैं भी खाऊँ, कोई सवाल नहीं .

मैंने माना कि तेरा दीं सही,
हाँ मगर आज हस्ब ए हाल नहीं .

तालिबान ए ख़ुदा न तोड़ो बुत, 
अपने पुरखों का कुछ ख़याल नहीं .

हद से करता नहीं तजाउज़ वह ,
कहाँ मुंकिर में एतदाल नहिन. 

Thursday, October 9, 2014

Junbishen 238



गज़ल

हक की बातें ही नहीं करते हैं,
हक तलफ़ गर हों, बहुत डरते हैं . 

वज्न को ख़त्म किया दौलत ने ,
पाँव धरती पे नहीं धरते हैं .

घर की दीवारें दरक जाएंगी ,
बात धीमे से किया करते हैं .

सजती धज्ती हैं जतन से परियाँ ,
ये है लाज़िम कि जवाँ मरते हैं .

जाम भरते हैं ख़ुद अपने सर में ,
सर निजामों से मेरा भरते हैं .

एक मुंकिर के सिवा बाक़ी सब ,
तेरे जन्नत की रविश चरते हैं .


Tuesday, October 7, 2014

Junbishen 237


नज़्म 

वक़्त ए अजल 

ख़ामोश रहो, वक़्त अजल छेड़ न जाना ,
मत पढना पढाना, न कोई रोना रुलाना .
ठहरो, कि मुझे थोड़ा सा माज़ी में है जाना ,
बचपन की झलक, आए जवानी का ज़माना .

माँ बाप की शिफ्क़त, वो बुजुर्गों की मुहब्बत ,
झगड़े वो बहिन भाई के, वह प्यार की शिद्दत ,
दादी की तरफ़दारी, वो नानी की मुरव्वत ,
ख़ाला की तबअ की सी, मामूं की रिआयत .

स्कूल के दर्जात में, आला मैं बना था ,
आया जो जवाँ साल तो राजा मैं बना था ,
इक सुर्ख़ परीज़ाद का दूलह मैं बना था, 
क्या खूब हुवा नाना ओ दादा  मैं बना था ,

अब हल्का हुवा जाता हूँ, बीमार बदन से ,
छुट्टी हुई जाती है, अदाकार बदन से ,
मैं, मैं था बहुत दूर था, जाँदार बदन से ,
इस मैं ने बड़े ज़ुल्म किए यार बदन से .

 तोहफ़े में मिली ज़ीस्त की सौग़ात विदा हो ,
आलिम हुवा मैं सच का, ख़ुराफ़ात विदा हो ,
मातम न तमाशा हो, मेरी ज़ात विदा हो,
संजीदा निगाहों से,ये बारात विदा हो .

Sunday, October 5, 2014

Junbishen 236


  
कूकुर से बछिया भए , बछिया से मृग राज ,
नेता बैठे मंच पर , सर पे रख्खे ताज .


प्रजा तंत्र के मन्त्र में , बेबस है वन्चास ,
इक्यावन की मौज है , बाकी का उपहास .


बस जा अपने आप में , फिर दुन्या की जान ,
पंडित जी की रागनी , मुल्ला जी की तान .


धन साधन चुक जाए जब , भूख का हो आभास ,
मुंकिर नाक दबाए के रोकीं लीनेह सांस .


देखो उसके बाल ओ पर निकले हैं शादाब ,
सब से पहले ए हवा , दे मेरे आदाब .


 दिन अब अच्छे आए हैं , क़र्ज़ा देव चुकाए ,
ऐसा हरगिज़ मत किहौ , यह बच्चन पर जाए .

Friday, October 3, 2014

Junbishen 235


रूबाइयाँ 


आवाज़ मुझे आखिरी देकर न गए,
आवाज़ मेरी आखिरी लेकर न गए,
बस चलते चलाते ही जहाँ छोड़ दिया,
अफ़सोस कि समझा के, समझ कर न गए. 


मदरसों से धरम अड्डे से आते हैं वह ,
नफरतों को, कुदूरतों को फैलाते हैं वह ,
मान लेती है इन्हें भोली यह अवाम ,
सीख लेती है जो सिखलाते हैं वह .


होते हुए पुर अम्न ये हैबत में ढली, 
लगती है ख़तरनाक मगर कितनी भली,
है ज़िन्दगी दो चार दिनों की ही बहार,
ये मौत की हुई , जो फूली न फली.

Wednesday, October 1, 2014

Junbishen 234

दोहे
अन चाह कुछ मशविरा , बिन माँगी कुछ राय ,
खा पी कर चलते बने , देकर राम सहाय .


आ देखे शमशान को या फिर कब्रिस्तान ,
जीवन की सच्चाई को , ऐ भोले नादान .


काम किसी के आए न , वह मन का कंगाल ,
पूछे सब से खैरियत , पूछे सब से हाल .


दलित दमित शोषित सभी , धरम बदलते जाएँ ,
पूर्व जनम अंजाम को , पंडित जब तक गाएँ .



अन चाह कुछ मशविरा , बिन माँगी कुछ राय ,
खा पी कर चलते बने , देकर राम सहाय .