Monday, February 24, 2014

Junbishen 151

रूबाइयाँ


हम लाख संवारें , वह संवारता ही नहीं,
वह रस्म ओ रिवाजों से उबरता ही नहीं,
नादाँ है, समझता है दाना खुद को,
पस्ता क़दरें लिए, वह डरता ही नहीं. 



हों यार ज़िन्दगी के सभी कम सहिह, 
देते हैं ये इंसान को आराम सहिह 
है एक ही पैमाना, आईना सा,
औलादें सहिह हैं तो है अंजाम सहिह.




मज़दूर थका मांदा है देखो तन से, 
वह बूढा मुफक्किर भी थका है मन से, 
थकना ही नजातों की है कुंजी मुंकिर, 
दौलत का पुजारी नहीं थकता धन से. 

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