Tuesday, December 31, 2013

Junbishen 125



ग़ज़ल 
है नहीं मुनासिब ये, आप मुझ को तडपाएँ,
ज़लज़ला न आने दें, मेह भी न बरसाएं।

बस कि इक तमाशा हैं, ज़िन्दगी के रोज़ ओ शब,
सुबह हो तो जी उठ्ठें, रात हो तो मर जाएँ।

आप ने ये समझा है ,हम कोई खिलौने हैं,
जब भी चाहें अपना लें, जब भी चाहें ठुकराएँ।

भेद भाव की बातें, आप फिर लगे करने,
आप से कहा था न, मेरे धर पे मत आएं।

वक़्त के बडे मुजरिम, सिर्फ धर्म ओ मज़हब हैं,
बेडी इनके पग डालें, मुंह पे टेप चिपकाएँ।

तीसरा पहर आया, हो गई जवानी फुर्र,
बैठे बैठे "मुंकिर" अब देखें, राल टपकाएं.

Monday, December 30, 2013

Junbishen 124

ग़ज़ल 

वह  जब क़रीब आए ,
इक खौफ़ दिल पे छाए।

जब प्यार ही न पाए,
महफ़िल से लौट आए।

दिन रात गर सताए,
फ़िर किस तरह निंभाए?

इस दिल से निकली हाय!
अब तू रहे की जाए।

रातों की नींद खो दे,
गर दिन को न सताए।

ताक़त है यारो ताक़त,
गर सीधी रह पाए।

है बैर भी तअल्लुक़
दुश्मन को भूल जाए।

हो जा वही जो तू है,
होने दे हाय, हाय।

इक़रार्यों का काटा,
'मुंकिर' के पास आए.
*****

Sunday, December 29, 2013

Junbishen 123

ग़ज़ल 

कौन आमादाए फ़ना होगा,

कोई चारा न रह गया होगा।

लूट लूँ सोचता हूँ ख़ुद को मैं,

दूसरे लूट लें लूट लें बुरा होगा।

एडियाँ जूतियों की ऊँची थीं,

क़द बढ़ाने में गिर गया होगा।

दे रहे हो ख़बर क़यामत की,

कान में तिनका चुभ गया होगा।

अब तो तबलीग़ वह चराता है,

पहले तबलीग़ को चरा होगा।

दफ़अतन वह उरूज3 पर आया,

कोई पामाल4 हो गया होगा।

मेरे बच्चे हैं कामयाब सभी,

मेरे आमाल का सिलह होगा।

आँखें राहों पे थीं बिछी 'मुंकिर',

किस तरह माहे-रू चला होगा।

१-धर्म प्रचार २-अचानक ३-शिखर ४-मलियामेt

Thursday, December 26, 2013

Junbishen 122



नज़्म 
हक़ बजानिब1

वहदानियत2 के बुत को गिराया तो ठीक था,
इस सेह्र किब्रिया में न आया तो ठीक था।

गर हुस्न को बुतों में उतारा तो ठीक था,
पत्थर में आस्था को तराशा तो ठीक था।

फरमूदः ए फ़लक़ के तज़ादों छोड़ कर,
धरती के मूल मन्त्र को पाया तो ठीक था।

माटी सभी की जननी शिकम भरनी तू ही है,
पुरखों ने तुझ को माता पुकारा तो ठीक था।

ऐ आफ़ताब7! तेरी शुआएं हैं ज़िन्दगी,
तुझ को किसी ने शीश नवाया तो ठीक था।

पेड़ों की बरकतों से सजी कायनातहै,
उन पर खिरद१० ने पानी चढाया तो ठीक था।

आते हैं सब के काम मवेशी अज़ीज़ तर ११ ,
इन को जूनून के साथ जो चाहा तो ठीक था।

इक सिलसिला है, मर्द पयम्बर का आज तक,
औरत के हक़ को देवी बनाया तो ठीक था।

नदियों,समन्दरों, से हमे ज़िन्दगी मिली,
साहिल पे उनके जश्न मनाया तो ठीक था।

गुंजाइशें ही न हों, जहाँ इज्तेहाद१२ की,
ऐसे में लुत्फ़ ऐ कुफ़्र १३ जो भाया तो ठीक था।

फ़िर ज़िन्दगी को रक्स की आज़ादी मिल गई,
'मुंकिर' ने साज़े-नव१४ जो उठाया तो ठीक था।

१-सत्य की ओर २-एकेश्वर ३-महा ईश्वर का जादू ४-आकाश वाणी ५-दोमुही बातें ६-उदार पोषक ७-सूरज ८-किरने ०-ब्रह्मांड १०-बुद्धि ११-प्यारे १२-संशोधन १३-कुफ्र का मज़ा १४-नया साज़.

Tuesday, December 24, 2013

Junbishen 121


नज़्म 
आस्तिक और नास्तिक

बच्चों को लुभाते हैं परी देव के क़िस्से,
ज़हनों में यकीं बन के समाते हैं ये क़िस्से,

होते हैं बड़े फिर वह समझते हैं हक़ीक़त,
ज़ेहनों में मगर रहती है कुछ वैसी ही चाहत।

इस मौके पे तैयार खडा रहता है पाखण्ड,
भगवानो-खुदा, भाग्य, कर्म ओ  का क्षमा दंड।

नाकारा जवानों को लुभाती है कहानी,
खोजी को मगर सुन के सताती है कहानी।

कुछ और वह बढ़ता है तो बनता है नास्तिक,
जो बढ़ ही नहीं पारा वह रहता है आस्तिक।


Sunday, December 22, 2013

Junbishen 120



दुआ ए ग़ैर 

या इलाही हर बला से, तू मुझे महफ़ूज़ रख .
सब मरें मेरी बला से, तू मुझे महफ़ूज़ रख .

है ये बेहतर कि पड़ोसी के यहाँ हों सरफ़रोश ,
इन्क़लाबी हादसा से, तू मुझे महफ़ूज़ रख .

न पुलिस वालों से मेरा, हो कभी साहब सलाम ,
और हिजड़ों की अदा से, तू मुझे महफ़ूज़ रख .

सौ बरस तक मैं मरीज़ों की दवा करता रहूँ ,
नातवानी ओ क़ज़ा से, तू मुझे महफ़ूज़ रख .

मेरा धंधा है कुछ ऐसा , नर्क है पर्यावरण ,
देख , दैविक आपदा से, तू मुझे महफ़ूज़ रख .

हाय! ये मुंकिर है बैठा, राह में बन कर फ़क़ीर ,
इस दहेरिए की दुआ से तू मुझे महफ़ूज़ रख .

सफ़ैद झूट

दाढ़ी है सन सफ़ैद औ मोछा सफ़ैद है,
धोती निरी  सफ़ैद औ कुरता सफ़ैद है,
नेता की टोपी जूता औ मोज़ा सफ़ैद है,
देख सखी झूट औ कितना  सफ़ैद है।

Saturday, December 21, 2013

unbishen 119

क़तआत 

कसौटी 
ईमान को पाया है या ईमान लिया है ?
मनवाया गया है कि इसे मान लिया है .
फटका है ? पछोरा है ? इसे जान लिया है ?
लोगों के गढ़े देव को पहचान लिया है ?


पसीने के फूल 
हल पेट की गुत्थी थी, दहकाँ की बदौलत ,
तन सर की मुहाफ़िज़ है, ये मज़दूर की मेहनत 
दीवारों में लिपटी हुई आरिफ़ की दुआएं ,
है ताक़ पे अटकी हुई, आबिद की इबादत.


दुआए ख़ैर 
ये ज़ातयाती सदमें, माहौलयाती फ़ितने ,
ये दुश्मनी के नरगे, ये नफ़रतों के रखने ,
ऐ क़ूवत ए इरादी, इन से बचा के ले चल ,
जब तक मेरी मुहिम में, आफ़ाक़ियत न झलके .

Wednesday, December 18, 2013

Junbishen 118

रुबाइयाँ  

बस यूं ही ज़रा पूछ लिया क्यों है खड़ा?
दो चार अदद घूँसे मेरे मुंह जड़ा ,
आई हुई शामत थी , मज़ा चखना था,
सोए हुए कुत्ते पे मेरा पैर पड़ा. 


मज्मूम सियासत की फ़ज़ा है पूरी,
हमराह मुनाफ़िक़ हो नहीं मजबूरी, 
ढोता है गुनाहों को, उसे ढोने दो,
इतना ही बहुत है कि रहे कुछ दूरी.


मेहनत की कमाई   पे ही जीता है फ़कीर,
हर गाम कटोरे में भरे अपना ज़मीर,
फतवों की हुकूमत थी,था शाहों का जलाल,
बे खौफ़ खरी बात ही करता था कबीर.

Monday, December 16, 2013

Junbishen 117

ग़ज़ल

आबला पाई है, दूरी है बहुत,
है मुहिम दिल की, ज़रूरी है बहुत.

कुन कहा तूने, हुवा दन से वजूद,
दुन्या ये तेरी, अधूरी है बहुत।

रहनुमा अपनी शुजाअत में निखर,
निस्फ़ मर्दों की हुजूरी है बहुत।

देवताओं की पनाहें बेहतर,
वह खुदा, नारी ओ नूरी है बहुत।

तेरे इन ताज़ा हिजाबों की क़सम,
तेरा यह जलवा, शुऊरी है बहुत।

इम्तेहां तुम हो, नतीजा है वजूद,
तुम को हल करना ज़रूरी है बहुत।

Saturday, December 14, 2013

Junbishen 116


ग़ज़ल 


ज़िन्दगी है कि मसअला है ये,
कुछ अधूरों का, सिलसिला है ये।

आँख झपकी तो, इब्तेदा है ये,
खाब टूटे तो, इन्तहा है ये।

वक़्त की सूईयाँ, ये सासें हैं,
वक़्त चलता कहाँ, रुका है ये।

ढूँढता फिर रहा हूँ ,खुद को मैं,
परवरिश, सुन कि हादसा है ये।

हूर ओ गिल्मां, शराब, है हाज़िर,
कैसे जन्नत में सब रवा है ये।

इल्म गाहों के मिल गए रौज़न,
मेरा कालेज में दाखिला है ये।

दर्द ए मख्लूक़ पीजिए "मुंकिर"
रूह ए बीमार की दवा ये हो।

Thursday, December 12, 2013

Junbishen 115

ग़ज़ल 

गर एतदाल हो, तो चलो गुफ्तुगू करें,
तामीर रुक गई है, इसे फिर शुरू करें.

इन कैचियों को फेकें, उठा लाएं सूईयाँ,
इस चाक दामनी को, चलो फिर रफ़ु करें।

इक हाथ हो गले में, तो दूजे दुआओं में,
आओ कि दोस्ती को, कुछ ऐसे रुजू करें।

खेती हो पुर खुलूस, मुहब्बत के बीज हों,
फ़सले बहार आएगी, हस्ती लहू करें।

रोज़ाना के अमल ही, हमारी नमाजें हों,
सजदा सदक़तों पे, सहीह पर रुकु करें।

ए रब कभी मोहल्ले के बच्चों से आ के खेल,
क़हर ओ ग़ज़ब को छोड़, तो "मुंकिर"वजू करें.


*एतदाल=संतुलन *तामीर=रचना *पुर खुलूस=सप्रेम *रुकु=नमाज़ में झुकना *वजू=नमाज़ कि तय्यारी को हाथ मुंह धोना
(क़ाफ़ियाओं में हिंदी अल्फ़ाज़ मुआज़रत के साथ )

Tuesday, December 10, 2013

Junbishen 114



क़ता 
ओ सूरज 
लाखों बरस से किसके लिए जूझता है तू ,
गर्दिश के बंधनों से कभी ऊबता है तू ,
ढो ढो के थक गया हूँ, ज़माने का बोझ मैं ,
 सूरज मुझे बता, कि कहाँ डूबता है तू .


विरासतें 
कुछ लोग छोड़ते हैं मरने के बाद ज़र,
कुछ लोग छोड़ते हैं दीवार ओ दर का घर,
कैसी विरासतें हैं इन पीर ओ पयम्बर की,
इंसानियत के हक में दीन  ओ धरम का शर. 


फ़िक्र ए आखरत 
है लाश को परवाह, मिले कोई ठिकाना ?
गड़ना है कि जलना है कि गंगा में बहाना ?
ऐ लाश जानदार!तू छोड़ इसकी फ़िक्र,
बदबू जो उठेगी तो, उठाएगा ज़माना।  

Sunday, December 8, 2013

Junbishen 113



क्या शय है मनुवाद, तेरा खोटा निजाम,
महफूज़ बरहमन के लिए, हर इक जाम,
मैं ने है पढ़ा तेरी मनु स्मृति में,
सर शर्म से झुकता है, तेरा पढ़ के पयाम.


मूसा सा अड़ा मैं तो, क़बा खोल दिया, 
सदयों से पड़ी ज़िद की, गिरह खोल दिया,
रेहल रख दिया, उसपे किताबे महशर,
पढने के लिए उसने नदा खोल दिया.


मिम्बर पे मदारी को, अदा मिलती है,
मौज़ूअ पे मुक़र्रिर को, सदा मिलती है,
रुतबा मेरा औरों से, ज़रा हट के है,
हम पहुंचे हुवों को ही, नदा मिलती है. 

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Friday, December 6, 2013

Junbishen 112

नज़्म 

मुस्लिम राजपूतों के नाम

ख़ुद को कहते हो, गुलामान ए रसूले-अरबी1,
हैसियत दूसरे दर्जे के लिए हैं अजमी2,
तीसरा दर्जा हरब, रखता है 'मुंकिर', हरबी.
और फ़िर दर्जा-ऐ-जिल्लत4 पे हैं हिन्दी मिस्कीं5,
बरतरी को लिए, मग़रूर हैं काबा के अमीं,
सोच है कैसी तुम्हारी ? भला कैसा है यकीं ?

हज से लौटे हुए हाजी से हक़ीक़त पूछो,
एक हस्सास से कुछ, क़र्ब ए हिक़ारत पूछो।

है वतन जो भी तुम्हारा, है तुम्हें उसकी क़सम,
खून में पुरखो की धारा है ?तुम्हें उसकी क़सम,
नुत्फ़े१० की आन गवारा है? तुम्हें उसकी  क़सम,
ज़ेहन का कोई इशारा है ? तुम्हें उसकी क़सम,

अपने पुरखों की ख़ता क्या थी भला, हिदू थे ?
क़बले इस्लाम सभी, हस्बे ख़ुदा हिन्दू थे।
ज़ेब११ देता ही नहीं, पुरखो की अज़मत१२ भूलो,
उनको कुफ़्फ़र१३ कहो, और ये बुरी गाली दो।

क़ौमे होती हैं नसब14 की, कोई बुनियाद लिए,
अपने मीरास१५ से पाई हुई, कुछ याद लिए,
तुम बहुत ख़ुश हो, बुरे माज़ी१६ की बेदाद१७ लिए,
अरबों की ज़ेहनी गुलामी18 की, ये तादाद लिए।

अपने खूनाब19 की, नुत्फ़े की तहारत20 समझो,
जाग जाओ, नई उम्मत21 की ज़रूरत समझो।

अज़ सरे नव22, नया एहसास जगाना होगा,
इक नए बज़्म२३ का, मैदान सजाना होगा।
इक नई फ़िक्र24 का, तूफ़ान उठाना होगा,
मादरे हिंद में ही, काबा बनाना होगा।

राम और श्याम से भी, हाथ मिलाना होगा,
नानको-बुद्ध को, सम्मान में लाना होगा,
दूर तक माज़िए नाकाम25 में जाना होगा,
इस ज़मी का बड़ा इन्सान बनाना होगा।

१-मुहम्मद-दास 2-अरब गैर अरब मुस्लिम देशों को अजम कहते हैं ,वहां के रहने वालों को अजमी अर्थात गूंगा कहते हैं जोकि हीन माने जाते हैं .ठीक ऐसा ही हिंदू शब्द अरबों का दिया हुआ है जिसके माने अप शब्द हैं जिस पर कुछ लोग गर्व करते हैं .३-सभी गैर मुस्लिम देश को मुस्लिम हरब कहते हैं ।वहां के बाशिंदों को हरबी यानी हरबा (चल बाज़ी )करने वाला. ४- अपमानित श्रेणी ५-भारतीय भिखारी (ये हमारे लिए अरबियों का संबोधन है ) ६-श्रेष्टता ७-न्यास धारी ८-सच्चाई १०-शुक्र ,वीर्य ११-शोभा १२-मर्यादा १३-मूर्ति-पूजक १४-पीढी १५-दाय १६-अतीत १७-ज़ुल्म १८-मानसिक दासता 19-मर्यादित रक्त २०-पवित्रता २१-वर्ग २२-नए सिरे से २३-सभा २४-चिंतन २५-असफल २६-अत

Wednesday, December 4, 2013

Junbishen 111


नज़्म 

शकर पारे 

आओ कुछ सच्ची इबारत पढ़ लें ,
सतह पर तैरें न, गहरे डूबें ,
दिल में गूंगे से पड़े, दिल बोलें ,
कानों की बहरी समाअत जागें .



जुन्बिशें लब की खुली आँख चुनें ,
हम दलीलों के फटे होंट सिएँ ,
तन में बैठा है नया मन, ढूँढें ,
जश्त इक लेके, बुलंदी को छुएँ .

दिल अगर चाहे तो नाचें गाएं ,
इन से उनसे न कभी शर्माएं,
साथ पागल के कभी बौराएँ ,
खोखले पन को ख़ला भर पाएं .

हम अकेले हैं कितने खुद देखें ,
फिर ज़माने से अपना हिस्सा लें ,
ना मुनासिब है कि छीने झपटें ,
बाक़ी औरों के लिए रहने दें .

Monday, December 2, 2013

Junbishen 110

दोहे


बा-मज़हब मुस्लिम रहे, हिदू रहे सधर्म,
अवसर दंगा का मिला, हत्या इन का धर्म।

इंसानी तहज़ीब के, मिटे हैं कितने रूप ,
हिन्दू मुस्लिम टर्र रटें , खोदें मन में कूप .

काहे हंगामा करे, रोए ज़ारो-क़तार,
आंसू के दो बूँद बहुत हैं, पलक भिगोले यार।

'मुंकिर' कच्ची सोच है, ऊपर है इनआम,
इस में गारत कर लिया, नीचे का मय जाम।

हम में तुम में रह गई, न नफ़रत न चाह,
बेहतर है हो जाएँ अब, अलग अलग ही राह.