Monday, September 30, 2013

junbishen 80

नज़्म 

तारीख़ी  सानेहे

खंडहरों में नक्श हैं माज़ी1की शरारतें,
लूटने में लुट गई हैं ज़ुल्म की इमारतें।

देख लो सफ़ीर तुम, उस सफ़र में क्या मिला,
थोड़ा सा सवाब2 था, ढेर सी हिक़ारतें3.

बात क़ायदे की है, अपनी ही ज़ुबाँ में हो,
मज़हबी किताबों की, तूल तर इबारतें।

है अज़ाबे-जरिया ज़ालिमों की क़ौम पर,
मिट गईं तमद्दुनी दौर की इमारतें।

क़ाफ़िला गुज़र गया नक्शे-पा पे धूल है,
पा सकीं न रहगुज़र सिद्क़ की हरारतें।

शर्मसार है खुदा, उम्मातें ज़लील हैं,
साज़िशी मुहिम वह थी, बेजा थीं जिसारतें१०

१-अतीत २- पुण्य ३-अपमान ४-लम्बी ५-जरी रहने वाला प्रकोप ६-सभ्यताओं की ७-सत्य ८-अनुपालक ९-वर्ग १०-साहस

Saturday, September 28, 2013

junbishen 79

नज़्म 
रोड़े फ़रोश 

दूर पंडितों से रह,मुर्शिदों से बच के चल,
हट के इनकी राह से अपनी रहगुज़र बदल।

धर्मों के दलाल हैं, ये मज़हबों के जाल हैं,
शब्द बेचते हैं यह, और मालामाल हैं .

इनके दर पे ग़ार है , रास्तों में ख़ार है, 
बाहमी ये एक हैं, देव बे शुमार हैं .

घुन हैं यह समाज के,खा रहे हैं फ़स्ल को .
कातिलान ए मोहतरम, जप रहे हैं नस्ल को .

इनकी महफ़िलों में हैं, बे हिसी की लअनतें,
खोखली हैं आज तक, बज़्म की सदाक़तें .

इर्तेक़ा के पांव में, डाले हैं यह बेड़ियाँ ,
इनकी धूम धाम में, गुम सी हैं तरक़्क़ियाँ  

मज़हबी इमारतें, हासिल ए मुआश हैं,
मकर की ज़ियारतें, झूट की तलाश हैं।

खा के लोग मस्त हैं, पुर फरेब गोलियाँ ,
पढ़ रहे हैं सब यहाँ, तोते जैसी बोलियाँ .

खैर कुछ नहीं यहाँ, गर है कुछ शर ही शर,
खुद में बस कि ऐ बशर, तू ज़रा सा सज संवर।

इनके आस्ताँ पे तू , बस कि मह्व ख़ाब है,
न कहीं सवाब है , न कहीं अज़ाब है।

इन से दूर रह के तू , सच की राह पाएगा ,
इनके हादसात से, अपने को बचाएगा .

मुंकिरी निसाब बन, अपनी इक किताब बन,
खुद में आफ़ताब बन, खुद में माहताब बन।

Thursday, September 26, 2013

junbishen 78


दोहे  
सबसे अच्छी बात है, दुन्या हो महबूब,
अपने आप से प्यार कर, जीवन से मत ऊब.
*
हम में तुम में रह गई, न नफरत न ही चाह, 
बेहतर है हो जाएं अब, अलग अलग ही राह. 
*
'मुनकिर' हड्डी मॉस का , पुतला तू मत पाल, 
तन में मन का शेर है, बाहर इसे निकाल. 
*
* तुलसी बाबा की कथा, है धारा प्रवाह, 
राम लखन के काल के, जैसे होएँ गवाह. 
*
कुदरत का ये रूप है, देख खिला है फूल, 
अल्लाह की धुन छोड़ दे, पत्थर पूजा भूल. 

Tuesday, September 24, 2013

junbishen 77


क़तअ 
सज़ा ए दोबाला 
जीने न दिया घर में, तुर्बत में अब जियो ,
शैदाइयों की मानो तो शिद्दत में जियो ,
तुमको ही मारने में, खुद मर गया है शौहर ,
मेरी बहन ये क्या है, कि इद्दत में अब जियो .


जहाज़ का पंछी 
नाहक़ था मैं ही , हक़ पे तुम्हीं थे , जहाँ थे तुम ,
मैं उड़ के थक गया तो ज़मीं पर निशाँ थे तुम ,
मैं आ गया हूँ  भूले हुए घर को लौट कर ,
मानिंद  माँ के  पूछ लो, अब तक कहाँ थे तुम .


कुत्तों का ग़लबा 
बेचने दो उसे इंसानी लहू का माजून ,
पुश्त पर उसके है, मौजूदा सदी का क़ानून ,
मुझको फ़िलहाल तो कुत्तों से बचाओ यारो ,
फिर कभी लिखखूँगा, हड्डी की ख़ता पर मज़मून .

Sunday, September 22, 2013

junbishen 76


रुबाइयां 
आजमाइशें हुईं, करीना आया,
चैलेंज हुए कुबूल, जीना आया.
शम्स ओ कमर की हुई पैमाइश,
लफ्फाज़ के दांतों पसीना आया. 


मुमकिन है कि माज़ी में ख़िरद गोठिल हो, 
समझाने ,समझने में बड़ी मुश्किल हो, 
कैसा है ज़ेहन अब जो समझ लेता है, 
मज़मून में मफ़हूम अगर मुह्मिल हो. 


ये ईश की बानी, ये निदा की बातें, 
आकाश से उतरी हुई ये सलवातें , 
इन्सां में जो नफ़रत की दराडें डालें, 
पाबन्दी लगे ज़प्त हों इनकी घातें. 

Friday, September 20, 2013

junbishen 75




ग़ज़ल 

दो चार ही बहुत हैं, गर सच्चे रफ़ीक़ हैं,
बज़्मे अज़ीम से, तेरे दो चार ठीक हैं।

तारीख़ से हैं पैदा, तो मशकूक है नसब,
जुग़राफ़िया ने जन्म दिया, तो अक़ीक़ हैं।

कांधे पे है जनाज़ा, शरीके हयात का,
आखें शुमार में हैं कि,  कितने शरीक हैं?

ईमान ताज़ा तर, तो हवाओं पे है लिखा,
ये तेरे बुत ख़ुदा तो, क़दीम ओ दक़ीक़ हैं।

इनको मैं हादसात पे, ज़ाया न कर सका,
आँखों की कुल जमा, यही बूँदें रक़ीक़ हैं।

रहबर मुआशरा तेरा, तहतुत्सुरा में है,
"मुंकिर" बक़ैदे सर, लिए क़ल्बे अमीक़ हैं.

रफीक़=दोस्त *मशकूक=शंकित * नसब=नस्ल *जुगराफ़िया=भूगोल *दकीक़=पुरातन *तहतुत्सुरा=पाताल *क़ल्बे अमीक़ गंभीर ह्र्दैय के साथ

Wednesday, September 18, 2013

junbishen 74



ग़ज़ल 

ज़ेहनी दलील, दिल के तराने को दे दिया,
इक ज़र्बे तीर इस के, दुखाने को दे दिया।

तशरीफ़ ले गए थे, जो सच की तलाश में,
इक झूट ला के और, ज़माने को दे दिया।

तुम लुट गए हो इस में, तुम्हारा भी हाथ है,
तुम ने तमाम उम्र, ख़ज़ाने को दे दिया।

अपनी ज़ुबां, अपना मरज़, अपना ही आइना,
महफ़िल की हुज्जतों ने, दिवाने को दे दिया।

आराइशों की शर्त पे, मारा ज़मीर को,
अहसास का परिन्द, निशाने को दे दिया।

"मुंकिर" को कोई खौफ़, न लालच ही कोई थी,
सब आसमानी इल्म, फ़साने को दे दिया.


Monday, September 16, 2013

junbishen 73


ग़ज़ल 

बेखटके जियो यार, कि जीना है ज़िन्दगी,
निसवां1 है हिचक , खौफ़ , नरीना2 है ज़िन्दगी।

खनते को उठा लाओ, दफ़ीना है ज़िन्दगी,
माथे पे सजा लो, कि पसीना है ज़िन्दगी।

घर, खेत, सड़क, बाग़ की, राहें सवाब हैं,
काबा न मक्का और न मदीना, है ज़िन्दगी।

नेकी में नियत बद है, तो मजबूर है बदी,
देखो कि किसका कैसा,  क़रीना है ज़िन्दगी।

जिनको ये क़्नाअत3 की नफ़ी4, रास आ गई,
उनके लिए ये नाने-शबीना5 है ज़िन्दगी।

अबहाम6 की तौकों से, सजाए वजूद हो,
'मुंकिर' जगे हुए पे, नगीना है ज़िन्दगी।

१-स्त्री लिंग २-पुल्लिग़ ३-संतोष ४-आभाव ५-बासी रोटी ६-अंध-विशवास

Sunday, September 15, 2013

junbishen 72



ताज़ियाने

एहसासे कम्तरो तुम, ज़ेहनी गदागरो3तुम,
पैरों में रह के देखा, अब सर में भी रहो तुम।

इनकी सुनो न उनकी, ऐ मेरे दोस्तों तुम,
अपनी खिरद4 की निकली, आवाज़ को सुनो तुम।

दुनिया की गोद में तुम, जन्में थे, बे-ख़बर थे,
ज़ेहनी बलूग्तों5 में, इक और जन्म लो तुम।

अंधे हो गर, सदाक़त, कानों से देख डालो,
बहरे हो गर, हकीक़त, आखों से अब सुनो तुम।

ख़ुद को संवारना है, धरती संवारनी है,
दुन्या संवारने तक, इक दम नहीं रुको तुम।

मैं खाक लेके अपनी, पहुँचा हूँ पर्वतों तक,
ज़िद में अगर हो क़ायम, पाताल में रहो तुम।

१-कोड़े २-हीनाभासी3-तुच्छाभास ४-बुद्धि -बौधिक 5-ब्यासकता

Thursday, September 12, 2013

junbishen 71


नज़्म 

मशविरे

छोड़ो पुरानी राहें, सभी हैं गली हुई,
राहें बहुत सी आज भी, हैं बे चली हुई।

महदूद1 मोहमिलात में, क्यूं हो फंसे हुए,
ढूँढो जज़ीरे आज भी हैं, बे बसे हुए।

ऐ नौ जवानो! अपना नया आसमां रचो,
है उम्र अज़्मो-जोश की,संतोष से बचो।

कोहना रिवायतों4 की, ये मीनार तोड़ दो,
धरती पे अपनी थोडी सी, पहचान छोड़ दो।

धो डालो इस नसीब को अर्क़े ए जबीं से तुम,
अपने हुक़ूक़लेके ही, मानो ज़मीं से तुम।

फ़रमान हों खुदा के, कि इन्सान के नियम,
इन सब से थोड़ा आगे, बढ़ाना है अब क़दम।

१ -सीमित २ -अर्थ हीन ३- उत्साह ४ -पुरानी मान्यताएं ५ -माथे का पसीना ६ -अधिकार .

Tuesday, September 10, 2013

junbishen 70


हास्य 
ध्यान का ज्ञान 

इक ध्यानी ध्यान में था , डूबा विधान में था ,
इच्छा थी उसको पाऊँ , फिर दुनिया को दिखाऊँ .
लेकिन बड़ी थी मुश्किल , होना ये ग़र्क ए कामिल 
कोई विचार आता , प्रयत्न टूट जाता .
उसने गुरु बनाया , जो उसके काम आया .

गुरुवर ने दक्षिना ली , भंग उसको फिर पिला दी .
उसको नशा जो आया , धीरे से खिलखिलाया .
बोला गुरु , मिला कुछ ? "हाँ और भी पिला कुछ "
जब पूरी चढ़ गई भंग ,शागिर्द रह गया दंग .
प्रसाद गुड का खाता , लड्डू के मज़े पता .

उठ कर वह नाच जाता ,फिर तालियाँ बजाता .
जिसको वो ध्यान करता , वह सामने गुज़रता .
भगवान् पा चुका था, मुक्ति कमा चूका था .
*

Sunday, September 8, 2013

junbishen 69


रुबाइयाँ 

औरत को गलत समझे कि आराज़ी है,
यह आप के ज़ेहनों में बुरा माज़ी है,
यह माँ भी, बहन बेटी भी, शोला भी है,
पूछो कि भला वह भी कहीं राज़ी है.

क्यों तूने बनाया इन्हें बोदा यारब!
ज़ेहनों को छुए इनका अकीदा यारब,
पूजे जो कोई मूरत, काफ़िर ये कहें,
खुद क़बरी सनम पर करें सजदा यारब.

नन्हीं सी मेरी जान से जलते क्यों हो,
यारो मेरी पहचान से जलते क्यों हो,
तुम खुद ही किसी भेड़ की गुम शुदगी हो, 
मुंकिर को मिली शान से जलते क्यों हो. 

Friday, September 6, 2013

junbishen 68

ग़ज़ल 

दाग़ सारे धुल गए तो, इस जतन से क्या हुवा,
थोड़ा सा पानी भी रख, ऐ दूध का धोया हुवा।

ज़ेहनी बीमारी पे शक करना है, जैसे फ़र्दे जुर्म,
अंधी और बहरी अकीदत, पे है हक़ रोया हुवा।

थी सदा पुर जोश कि, जगते रहो, जगते रहो,
डाकुओं की सरहदों पर, होश था खोया हुवा।

लगजिशों की परवरिश में, पनपा काँटों का शजर,
बच्चों पर इक दिन गिरेगा, आप का बोया हुवा।

उसकी आबाई किताबों, से जो नावाक़िफ़ हुवा,
देके जाहिल का लक़ब, उस से ख़फ़ा मुखिया हुवा।

भीड़ थामे था अक़ीदत, का मदारी उस तरफ़,
था इधर तनहा मुफ़क्किर* इल्म पर रोया हुवा।

*बुद्धि जीवी

Tuesday, September 3, 2013

junbishen 67



ग़ज़ल 

बज़ाहिर मेरे हम नवा पेश आए,
बड़े हुस्न से, कज अदा पेश आए।

मेरे घर में आने को, बेताब हैं वह,
रुके हैं, कोई हादसा पेश आए।

हजारों बरस की, विरासत है इन्सां ,
न खूने बशर की, नदा1 पेश आए।

ये कैसे है मुमकिन, इबादत गुज़ारो!
नवलों को लेकर, दुआ पेश आए।

मुझे तुम मनाने की, तजवीज़ छोडो,
जो माने न वह, तो क़ज़ा2 पेश आए।

खुदा की मेहर ये, वो शैतां की हरकत,
कि "मुंकिर" कोई, वाक़ेआ पेश आए।

१-ईश-वाणी २-मौत

Monday, September 2, 2013

junbishen 66


ग़ज़ल 
दुश्मनी गर बुरों से पालोगे,
ख़ुद को उन की तरह बना लोगे।

तुम को मालूम है, मैं रूठूँगा,
मुझको मालूम है,  मना लोगे।

लम्स1 रेशम हैं, दिल है फ़ौलादी ,
किसी पत्थर में, जान डालोगे।

मेरी सासों के डूब जाने तक,
अपने एहसान, क्या गिना लोगे।

दर के पिंजड़े के, ग़म खड़े होंगे,
इस में खुशियाँ, बहुत जो पालोगे।

सूद दे पावगे, न "मुंकिर" तुम,
क़र्ज़े ना हक़, को तुम बढ़ा लोगे।
1-स्पर्श