Thursday, August 8, 2013

junbishen 55


नज़्म 

ईद की महरूमियाँ 1

कैसी हैं ईद की खुशियाँ, यह नक़ाहत की तरह,
जश्न क़र्ज़े की तरह, नेमतें क़ीमत की तरह।
ईद का चाँद ये, कैसी खुशी को लाता है,
घर के मुखिया पे नए पन के सितम ढाता है।

ज़ेब तन कपड़े नए हों तो ख़ुशी ईद है क्या?
फिकरे-गुर्बा के लिए हक़ की ये ताईद है क्या?
क़ौम पर लानतें हैं फ़ित्राओ-खैरातो-ज़कात ,
ठीकरे भीख की ठंकाए है, उमरा की जमाअत।

पॉँच वक़तों  की नमाज़ें हैं अदा रोज़ाना,
आज के रोज़ अज़ाफ़ी है सफ़र दोगाना।
इसकी कसरत से कहीं दिल में ख़ुशी होती है,
भीड़ में ज़िन्दगी तनहा सी पड़ी होती है।

ईद के दिन तो नमाज़ों से बरी करना था,
छूट इस दिन के लिए मय-ब-लबी करना था।
नव जवाँ देव परी के लिए मेले होते,
अपनी दुन्या में दो महबूब अकेले होते।

रक़्स होता, ज़रा धूम धडाका होता,
फुलझडी छूटतीं, कलियों में धमाका होता।
हुस्न के रुख़ पे शरीयत का न परदा होता,
मुत्तक़ी १०,पीर, फ़क़ीहों११, को ये मुजदा१२, होता।

हम सफ़र चुनने की यह ईद इजाज़त देती,
फ़ितरते ख़ल्क़ १३ को संजीदगी फ़ुर्सत देती।
ईद आई है मगर दिल में चुभी फांस लिए,
क़र्बे १४ महरूमी लिए, घुट्ती हुई साँस लिए।

१-वनचित्ता २-कमजोरी ३-गरीबों की चिंता ४-ईश्वर 5-समर्थन ६-दान की विधाएँ ७-धनाड्य ८-ईद की नमाज़ को दोगाना कहते ९-धर्मं विधान १०-सदा चारी  11-धर्म-शास्त्री १३-खुश खबरी १3-जीव प्रवर्ति14-वंचित की पीड़ा

1 comment:

  1. रुस्तखेज़ हो के चाँद रौशन जो फलक पे हो..,
    ज़ेबा ज़रखेज जमीनों की फिर ईद मनती है..,
    चश्मे-हैवाँ लब किनार और ताब दहक के हो..,
    सुर्ख पोश हो के हसीनों की फिर ईद मनती है.....

    रुस्ते-खेज़
    ज़ेबा = सुजलाम
    ज़रखेज़=सुफलाम

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