Wednesday, July 31, 2013

junbishen 51


ग़ज़ल 


सच्चाइयों ने हम से, जो तक़रार कर दिया,
हमने ये सर मुक़ाबिले, दीवार कर दिया.

अपनी ही कायनात से, बेज़ार जो हुए,
इनको सलाम, उनको नमरकर कर दिया।

तन्हाइयों का सांप, जब डसने लगा कभी,
खुद को सुपुर्दे ग़ाज़िए, गुफ़्तार कर दिया।

देकर ज़कात सद्का, मुख़य्यर अवाम ने,
अच्छे भले ग़रीब को बीमार कर दिया।

हाँ को न रोक पाया, नहीं भी न कर सका,
न करदा थे गुनाह, कि इक़रार कर दिया।

रूहानी हादसात ओ अक़ीदत के ज़र्ब ने,
फितरी असासा क़ौम का, बेकार कर दिया.

Tuesday, July 30, 2013

junbishen 50


नज्म 
बेदारियाँ  

तुम्हारी हस्ती में, रूपोश इक खज़ाना है,
तुम्हारी हिस की, कुदालों को धार पाना है।
इसे तमअ के तराज़ू में तोलना न कभी,
किसी भी हाल में, कीमत नहीं लगाना है।

जो ख़ाली हाथ ही जाते हैं, उनको जाने दो,
तुम्हारे हाथ तजस्सुस भरे ही जाना है।
तुम्हीं को चुनना है, हर फूल अपने ज़ख्मो के,
सदा मदद की, कभी भी नहीं लगाना है।

सरों पे कूदती माज़ी की, इन किताबों को,
ज़रूर पढ़ना, मगर हाँ कि, यह फ़साना हैं।
हैं पैरवी यह सभी दिल पे बंदिशे 'मुंकिर',
जो साज़ ख़ुद है बनाया, उसे बजाना है।

0-जागरण २-ओझल होना ३-आभस ४- लालच ५कौतूहल ६-अतीत

Sunday, July 28, 2013

junbishen 49


नज़्म
कब तक ?

अंधी गुफाओं में कब तक छुपोगे ?
नस्लों के हमराह कब तक चुकोगे ?
गुमबद, शिवालों के कारीगरों पर ,
सदियों से झुकते हो, कब तक झुकोगे ?

क़ौमे नई सीढियाँ गढ़ रही ,
देखो ख़लाओं की छत चढ़ रही हैं ,
तुम हो कि माज़ी से लिपटे हुए हो ,
नस्लें तुम्हारी दुआ पढ़ रही हैं .

जागो नई रोशनी आ गयी है ,
सच्चाइयों को ज़मीन पा गयी है ,
रस्मों के जालों में उलझे हुए हो ,
तह्जीबे नव, इससे घबरा गयी है .

पीछे बहुत रह न जाओ दिवानो ,
न ख़्वाबों की जन्नत में जाओ दिवानो ,
बच्चों को आगे बढाओ दिवानो ,
'मुंकिर' के संग जाग जाओ दिवानो .
खलाओं =क्षितिजो

Wednesday, July 24, 2013

junbishen 48



दोहे

ले कर आपस में लड़ें, दीन धरम का ज्ञान,
इनमे कितना मेल था, जब थे ये अज्ञान.
*
चले जिहादी अरब से, न पहुंचे जापान,
भारत आकर फँस गया , इस्लामी अभियान.
*
मुल्ला पंडित एक हैं, जनता को लड्वाएं ,
बोएं पेड़ बबूल का, आम मगर ये  खाएँ .
*
'मुनकिर' मत दे भीख तू , इसका बद तर अंजाम,
विकलांगों पर कर दया, दे कुछ इनको काम.
*
ससुरी माया जाल को, सर पे लिया है लाद, 
अपने दुश्मन हो गए, रख कर ये बुन्याद. 

Tuesday, July 23, 2013

junbishen 47


क़तआत
वादा तलब 

नाज़ ओ अदा पे मेरे, न कुछ दाद दीजिए ,
मत हीरे मोतियों से, मुझे लाद दीजिए ,
हाँ इक महा पुरुष की है, धरती को आरज़ू ,
मेरे हमल को ऐसी इक औलाद दीजिए .

आक़बत के ताजिर 

ये दस्त ए नफ़्स में, बे ख़ाहिशी की ज़ंजीरें ,
ये नीम ख़ुद कुशी में, आक़्बत की तदबीरें ,
खुदा के साथ ताल्लुक़ ये, ताजिराना है ,
अजब है तर्क ए तअय्युश, ब ग़रज़ जागीरें . 

बार ए ज़मीं 

हाथों में हैं दुआओं के, कंगन जड़े हुए ,
ये फावड़े कुदाल हैं , बेजाँ पड़े हुए ,
क़हहारी और रहीमी की, बेडी है पाँव में ,
दिल में हैं खौफ़ ओ ऐश के शैतां खड़े हुए .

Sunday, July 21, 2013

junbishen 46

रुबाइयाँ

इन्सान के मानिंद हुवा उसका मिज़ाज , 
टेक्सों के एवज़ में ही चले राजो-काज,
है दाद-ओ-सितद में वह बहुत ही माहिर,
देता है अगर मुक्ति तो लेता है खिराज.

अल्फाज़ के मीनारों में क्या रख्खा है, 
सासों भरे गुब्बारों में क्या रख्खा है,
इस हाल को देखो कि कहाँ है मिल्लत,
माज़ी के इन आसारों में क्या रख्खा है. 


हिस्सा है खिज़िर का इसे झटके क्यों हो, 
आगे भी बढ़ो राह में अटके क्यों हो,
टपको कि बहुत तुमने बहारें देखीं,
पक कर भी अभी शाख में लटके क्यों हो.

Thursday, July 18, 2013

junbishen 45

 नज़्म 

तुम - - -

ख़ुद को समझ रहे हो, कि रूहे रवां1 हो तुम ,
खिलक़त2 ये कह रही है, कि उसपे गरां हो तुम ।

सब फ़ारिग़ सलात3 अभी तक अजां हो तुम ,
हर सम्त है बहार,  शिकार खिजाँ4 हो तुम ।

क्यूँ चाहते हो, अपना यकीं सब पे थोप दो ,
है भूत आस्था का, वहीं पर जहाँ हो तुम ।

फ़रदा5 की कोख में हैं, सभी हल छिपे हुए ,
माज़ी6 सवार सम्त, मुखालिफ़7 रवाँ हो तुम ।

सर जिस्म पर ज़रूर है, रूहों का क्या पता ?
इसका ख़याल पहले करो, नातवाँ8 हो तुम ।

शिद्दत9 है, जंग जूई10, बेएतदाली11 है ,
आपस में लड़ रहे हो, जहाँ इम्तेहानहो तुम ।

महकूम12 गर हुए, तो रवा दारी13 चाहिए ,
कुछ और ही लगे हो, जहाँ हुक्मराँ14 हो तुम ।

कुछ ऐसे बन सको, कि तुम्हारी हो पैरवी ,
दुन्या गवाह हो, कि उरूजे-जहाँ15 हो तुम ।

'मुंकिर' जगा रहा है, उठो मर्तबा16 वालो ,
इक्कीसवीं सदी में, जहाँ है, कहाँ हो तुम।

1-प्राण-वर्धक २- अन्तर राष्ट्रिय जन समूह ३-नमाज़ अदा कर चुकना ४-पतझड़ ५-आनेवाला कल ६-अतीत ७-उल्टी दिशा ८ -कमजोर
 ९-उग्रता १०-युद्धाभियान ११-असंतुलन १२-आधीन १३ -उचित बर्ताव १४-शाशक१५- दुन्या ऊपर १६-श्रेरेष्ट

Tuesday, July 16, 2013

junbishen 44

नज़्म
मैं ----

सदियों की काविशों1 का, ये रद्दे अमल2 हूँ मैं ,
लाखों बरस के अज़्म मुसलसल3 का फल हूँ मैं ।

हालाते ज़िंदगी ने मुझे नज़्म4 कर दिया ,
फ़ितरत5 के आईने में, वगरना ग़ज़ल6 हूँ मैं।

मेयारे आम7 होगा, कि जिसके हैं सब असीर8 ,
हस्ती है मेरी अपनी, ख़ुद अपना ही बल हूँ मैं ।

उक़दा कुशाई9 मेरी, ढलानों पे मत करो ,
थोड़ा सा कुछ फ़राज़10 पे, आओ तो हल हूँ मैं ।

ये तुम पे मुनहसर है, मुझे किस तरह छुओ ,
पत्थर की तरह सख्त, तो कोमल कमल हूँ मैं ।

मुझ को क़सम है, रुक्न हुक़ूक़ुल इबाद11 की ,
ज़मज़म12 सा पाक साफ़ हूँ, और गंगा जल हूँ मैं ।

इंसानियत से बढ़ के, मेरा दीन कुछ नहीं ,
सच की तरह ही अपनी, ज़मीं पर अटल हूँ मैं ।

मुनाफ़िक़13 की ख़ू  नहीं है, न दारो रसन14 का खौफ़  ,
मैं हूँ खुली किताब, बबांगे दुहल15 हूँ मैं ।

मैं कुछ अज़ीम लोगों को, सजदा न कर सका ,
उनकी ही पैरवी में, मगर बा अमल हूँ मैं ।

'मुंकिर' को कोई ज़िद है, न कोई जूनून है ,
लाओ किताबे सिदक16 तो देखो रहल17 हूँ में ।

१-प्रय्तानो २-प्रतिक्रया ३-लगातार उत्साह ४-शीर्षक अधीन कविता ५-प्रकृति ६-प्रेमिका से वरत्लाप ७-मध्यम अस्तर ८-कैद ९-गाठे खोलना 
१०-ऊंचाई ११-बन्दों का अधिकार १२-मक्के का जल १३-दोगुला 14 फाँसी १5-डंके की चोट १6-सच्ची किताब १7-किताब पढने का स्टैंड

Sunday, July 14, 2013

junbishen 43

कता

ढलान

हस्ती है अब नशीब में, सब कुछ ढलान पर,
कोई नहीं जो मेरे लिए, खेले जान पर,
ख़ुद साए ने भी मेरे, यूँ तकरार कर दिया,
सर पे है धूप, लेटो, मेरा क़द है आन पर।
१-ढाल

मिठ्ठू मियाँ 

पढ़ते हो झुकाए हुए सर, क़िस्सा कहानी,
अंजान जुबां में, है लिखी देव की बानी ,
यूँ लूट के ले जाते हो, अंबार ए सवाब ,
दर पे हैं अज़ाबों के ये, हालात जहानी .

मुज़ब्ज़ब 

इकबाल बग़ावत लिए, लगते हैं ग़ज़ल में,
डरते हैं, सदाक़त को छिपाए हैं, हमल में,
बातिन में हैं कुछ और, निभाए हैं खुदा को,
जैसे थे मुसलमाँ नए, बुत दाबे बग़ल में .

Friday, July 12, 2013

junbishen 42


रुबाइयाँ

हैवान हुवा क्यूँ न भला, तख्ता ए मश्क़
इंसान का होना है, रज़ाए अहमक
शैतान कराता फिरे, इन्सां से गुनाह
अल्लाह करता रहे, उट्ठक बैठक


साइंस की सदाक़त पे यकीं रखता हूँ,
अफकार ओ सरोकार का दीं रखता हूँ, 
सच की देवी का मैं पुजारी ठहरा, 
बस दिल में यही माहे-जबीं रखता हूँ.


ना ख्वान्दा ओ जाहिल में बचेंगे मुल्ला,
नाकारा ओ काहिल में बचेगे मुल्ला,
बेदार के क़ब्जे में समंदर होगा, 
सीपी भरे साहिल पे बचेगे मुल्ला.

Wednesday, July 10, 2013

junbishen 41


ग़ज़ल

ख़ारजी हैं सब तमाशे, साक़िया इक जाम हो,
अपनी हस्ती में सिमट जाऊं, तो कुछ आराम हो।

खुद सरी, खुद बीनी, खुद दारी, मुझे इल्हाम है,
क्यूं ख़ुदा साज़ों की महफ़िल से, मुझे कुछ काम हो।

तुम असीरे पीर मुर्शिद हो, कि तुम मफ़रूर हो,
हिम्मते मरदां न आई, या कि तिफ़ले ख़ाम हो।

हाँ यक़ीनन एक ही, लम्हे की यह तख्लीक़ है,
वरना दुन्या यूं अधूरी, और तशना काम हो।

हम पशेमाँ हों कभी न फ़ख्र के आलम में हों,
आलम मासूमियत हो बे ख़बर अंजाम हो।

अस्तबल में नींद की, मारी हैं "मुंकिर" करवटें,
औने पौने बेच दे घोडे को खाली दाम हो.

Monday, July 8, 2013

junbishen 40



ग़ज़ल

गुस्ल ओ वज़ू से, दाग़े अमल धो रहे हो तुम,
मज़हब की सूइयों से, रफ़ू हो रहे हो तुम.

हर दाना दाग़दार हुवा, देखो फ़स्ल का,
क्यूँ खेतियों में अपनी ख़ता, बो रहे हो तुम।

हथियार से हो लैस, हँसी तक नहीं नसीब,
ताक़त का बोझ लादे हुए, रो रहे हो तुम।

होना है वाक़ेआते मुसलसल वजूद का,
पूरे नहीं हुए हो, अभी हो रहे हो तुम।

इंसानी अज़मतों का, तुम्हारा ये सर भी है,
लिल्लाह पी न लेना, चरन धो रहे हो तुम।

"मुंकिर" को मिल रही है, ख़ुशी जो हक़ीर सी,
क्यूँ तुम को लग रहा है, कि कुछ खो रहे हो तुम।

*अजमतों=मर्याओं *लिल्लाह=शपत है ईश्वर की

Saturday, July 6, 2013

JUNBISHEN 39



ग़ज़ल

महरूमियाँ सताएं न, नींदों की रात हो,
दिन बन के बार गुज़रे न, ऐसी नजात हो।

हाथों की इन लकीरों पे, मत मारिए छड़ी,
उस्ताद मोहतरम, ज़रा शेफ्क़त का हाथ हो।

यह कशमकश सी क्यूं है, बगावत के साथ साथ,
पूरी तरह से देव से छूटो, तो बात हो।

कुछ तर्क गर करें तो सुकोनो क़रार है,
ख़ुद नापिए कि आप की, कैसी बिसात हो।

उंगली से छू रहे हैं, तसव्वर की माहे-रू,
मूसा की गुफ़्तुगु में, खुदाया सबात हो।

इक गोली मौत की मिले 'मुंकिर' हलाल की,
गर रिज़्क1 का ज़रीया2 मदद हो, ज़कात3 हो।

१-भरण-पोषण २-साधन ३-दान

Thursday, July 4, 2013

junbishen 38


नज़्म 
राज़ ए ख़ुदावन्दी

क़ैद ओ बंद तोड़ के निकलो, ऐ तालिबान ए फ़रेब,1
तुम हो इक क़ैदी, मज़ाहिब के ख़ुदा खानों के।

हम तुम्हें राज़ बताते हैं, ख़ुदा वन्दों के,
साकितो, सिफ़्र ओ नफ़ी ,अर्श के बाशिंदों के।

यह तसव्वर में जन्म पाते हैं,
बस कयासों में कुलबुलाते हैं।

चाह होते हैं यह, समाअत की,
रिज्क़ होते हैं यह, जमाअत की।

यह कभी साज़िसों में पलते हैं,
जंग की भट्टियों में ढलते हैं.

डर सताए तो, यह पनपते हैं,
गर हो लालच तो, यह निखरते हैं.

यह सुल्ह नमाए फ़ातेह10 भी हुवा करते हैं,
पैदा होते हैं नए, कोहना11 मरा करते हैं.

हम ही रचते हैं इन्हें, और कहा करते हैं,
सब का ख़ालिक़12 है वही, सब का रचैता वह है.

१-छलावा की चाह वाले २-मौन ३-शुन्य ४-अस्वीक्र्ती५-कल्पना ६-अनुमान ७-श्रवण शक्ति ८-भोजन ९-टोली १०-विजेता की संधि ११-पुराना १२-जन्म -दाता

Wednesday, July 3, 2013

Junbishen 37


नज़्म 


शक बहक 

यकीं बहुत कर चुके हो यारो ,
इक मरहला1 है, गुमाँ2 को समझो .
यकीं है अक्सर तुम्हारी गफ़लत ,
खिरद3 के आबे-रवां को समझो .
अक़ीदतें और आस्थाएँ ,
यकीं की धुंधली सी रह गुज़र4 हैं .
ख़रीदती हैं यह सादा लौही5,
यकीं की नाक़िस दुकाँ को समझो .
१-पड़ाव २-अविश्वाश का उचित मार्ग ३-अक्ल ४-सरल स्वभाव ५-हानि करक