Friday, April 26, 2013

Junbishen 8


नज़्म 

ख्वाहिशे पैग़म्बरी

जी में आता है कि मैं भी, इक ख़ुदा पैदा करुँ।
पहले जैसों ही, सदाक़त1 में रिया2 पैदा करुँ ।

कुछ ख़ता पैदा करुँ , फ़िर कुछ सज़ा पैदा करुँ ,
मौत से पहले ही इक, यौमे जज़ा3 पैदा करुँ ।

आऊँ और जाऊं पहाडों पर, निदा4 के वास्ते ,
वह्यी5 सी, या देव वाणी सी, सदा पैदा करुँ ।

गढ़ के इक हुलया निकालूँ , ख़ुद को इस मैदान में ,
सब से हट कर इक अनोखी ही अदा पैदा करुँ ।

मुह्मिलों6 में फ़लसफ़े रागमाले डालकर ,
आश्रम में रख के, अपना बुत गिज़ा पैदा करुँ ।

उफ़! कि दिल क़ैद खाने में है 'मुनकिर' का ज़मीर ,
कैसे मासूमों के ख़ातिर,  मैं दग़ा पैदा करुँ ।

१-सत्य २-मिथ्य ३-प्रलय के बाद इनाम पाने का दिन ४-आकाशवाणी ५-ईश्वानी ६- अर्थ हीन और अनरगल 

2 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर सार्थक ग़ज़ल की प्रस्तुति,आभार.

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  2. शर्म आती है मुझे इस आदमक़दी पर..,
    कितना गिर गया हूँ मैं आदमी हो के.....

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