Saturday, April 6, 2013

ग़ज़ल---कहीं हैं हरम की हुकूमतें, कहीं हुक्मरानी-ऐ-दैर है




कहीं हैं हरम1 की हुकूमतें, कहीं हुक्मरानी-ऐ-दैर2 है,
कहाँ ले चलूँ तुझे हम जुनूँ, कहाँ ख़ैर शर3 के बगैर है।

बुते गिल4 में रूह को फूँक कर, उसे तूने ऐसा जहाँ दिया,
जहाँ जागना है एक ख़ता, जहाँ बे ख़बर ही बख़ैर है।

बड़ी खोखली सी ये रस्म है कि मिलो तो मुँह पे हो ख़ैरियत?
ये तो एक पहलू नफ़ी5 का है, कहाँ इस में जज़्बाए ख़ैर है।

मुझे ज़िन्दगी में ही चाहिए , तेरी बाद मरने कि चाह है,
मेरा इस ज़मीं पे है कारवाँ, तेरी आसमान की सैर है।

सभी टेढे मेढ़े सवाल हैं कि समाजी तौर पे क्या हूँ मैं,
मेरी ज़ात पात से है दुश्मनी, मेरा मज़हबों से भी बैर है।

१-काबा २-मन्दिर ३-झगडा ४-माटी की मूरत ५-नकारात्मक

3 comments:

  1. सभी टेढे मेढ़े सवाल हैं कि समाजी तौर पे क्या हूँ मैं,
    मेरी ज़ात पात से है दुश्मनी, मेरा मज़हबों से भी बैर है।-- सुन्दर प्रस्तुति
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  2. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज रविवार (07-04-2013) के चर्चा मंच 1207 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

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