Friday, December 14, 2012

Dohe


दोहे 




हम में तुम में रह गई, न नफरत न ही चाह, 
बेहतर है हो जाएं अब, अलग अलग ही राह
'मुनकिर' हड्डी मॉस का , पुतला तू मत पाल, 
तन में मन का शेर है, बाहर इसे निकाल. 
* तुलसी बाबा की कथा, है धारा प्रवाह, 
राम लखन के काल के, जैसे होएँ गवाह. 
कुदरत का ये रूप है, देख खिला है फूल, 
अल्लाह की धुन छोड़ दे, पत्थर पूजा भूल. 
कुदरत ही है आईना, प्रक्रति ही है माप, 
तू भी इसका अंश है, तू भी इसकी ताप. 

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