Friday, October 26, 2012

ग़ज़ल - - - थीं बहुत कुछ सूरतें अहदों उसूलों से भली




थीं बहुत कुछ सूरतें अहदों उसूलों से भली,
जान लेने, जान देने में ही तुम ने काट दी।

भेडिए, साँपों, सुवर, के साथ ही यह तेरे लब,
पड़ चुके किस थाल में हैं, ऐ मुक़द्दस आदमी।

नेक था सरवन मगर सीमित वो होकर रह गया,
सेवा में माँ बाप के ही काट डाली ज़िन्दगी।

ढूंढो मत इतिहास के जंगल में शेरों का पता,
ऐ चरिन्दों! क्या हुवा जो पा गए सींगें नई।

आप ने देखा नहीं क्या, न मुकम्मल था खुदा,
खैर छोडो, अब चलो खोजें मुकम्मल आदमी।

करता है बे चैन "मुंकिर" देके कुछ सच्ची ख़बर,
सच का वह मुखबिर बना है, इस लिए है दुश्मनी.

Friday, October 19, 2012

ग़ज़ल - - - बात नाज़ेबा तुहारे मुंह से पहुंची यार तक


ग़ज़ल


बात नाज़ेबा तुहारे मुंह की पहुंची यार तक,

अब न ले कर जाओ इसको, मानी ओ मेयार तक।


पहले आ कर खुद में ठहरो, फिर ज़रा आगे बढो,

ऊंचे, नीचे रास्तों से, खित्ताए हमवार तक।


घुल चुकी है हुक्म बरदारी तुमरे खून में,

मिट चुके हैं खुद सरी, खुद्दारी के आसार तक।


इक इलाजे बे दवा अल्फाज़ की तासीर है,

कोई पहुंचा दे मरीज़े दिल के गहरे गार तक।


रब्त में अपने रयाकारी की आमेज़िश लिए,

पुरसाँ हाली में चले आए हो इस बीमार तक।


मैं तेरे दौलत कदे की सीढयों तक आऊँ तो,

तू मुझे ले जाएगा अपनी चुनी मीनार तक।


कुछ इमारत की तबाही पर है मातम की फ़ज़ा,

हीरो शीमा नागा शाकी शहर थे यलगार तक।


उम्र भर लूतेंगे तुझ को मज़हबी गुंडे हैं ये,

फ़ासला बेहतर है इनसे आलम बेदार तक।

Friday, October 12, 2012

ग़ज़ल - - - काँटों की सेज पर मेरी दुन्या संवर गई



काँटों की सेज पर मेरी दुन्या संवर गई,
फूलों का ताज था, वहां इक गए चार गई।

रूहानी भूक प्यास में, मैं उसके घर  गया,
दूभर था सांस लेना, वहां नाक भर गई।

वोह साठ साठ साल के बच्चों का थ गुरू,
सठियाए बालिग़ान पे उस की नज़र गई।

लड़ कर किसी दरिन्दे से जंगल से आए हो?
मीठी जुबान, भोली सी सूरत किधर गई?

नाज़ुक सी छूई मूई पे काज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के ग़ैरत  से मर गई।

सोई हुई थी बस्ती, सनम और खुदा लिए,
"मुंकिर" ने दी अज़ान तो इक दम बिफर गई,

Friday, October 5, 2012

रुबाईयाँ 20X5=100


रुबाईयाँ 

योरोप की तरह अपना भी भारत जागे,
क्या कहना, निकल जाए ये सबसे आगे,
बन जाएँ सभी हिन्दी मुकम्मल इन्सां ,
गर धर्म ओ मज़ाहिब की मुसीबत भागे.
*

देहात की मुस्लिम थी, ग़र्क़े-सना, 
" आ जाओ मोरे अंगना कभी, अल्ला मियाँ "
लाहौल पढ़ी, सुनके, ये ज़ाहिद बोले,
"गोया कि कन्हैया जी, हुए अल्ला मियाँ."
*

'मुनकिर' ये बताओ, पीकर आए हो क्या?
खुशबुओं के परदे में छिपाए हो क्या?
कुछ दिन ही हुए हैं कि हुए उन्सठ के,
कुछ उम्र से पहले सठियाए हो क्या?
*

बेलौस निहत्थे से सिपाही बन जाओ, 
मुख़्तसर सफ़र के, इक रही बन जाओ, 
दूर रखकर ही देखो, ये ख़ुशी और गम, 
आदी न बनो,इनकी गवाही बन जाओ. 


जमहूर में एहसास की पस्ती देखी, 
दौलत को अमीरों पे, बरसती देखी, 
दानो को तरसती हुई बस्ती देखी, 
अफ्लास के संग, मौज और मस्ती देखी. 




Tuesday, October 2, 2012

रुबाइयाँ


रुबाइयाँ  


घर वाली का, हर वक़्त हिमायत छोड़ो, 
नर जैसे बनो, मादा की ख़सलत छोडो, 
फुंक जाते हो, गर कान को फूँके  कोई, 
बस थोडा सा ग़ैरत में हरारत छोडो. 

माजी की तल्ख़ यादें, आती क्यों हैं? 
जब देखो मुझे आके, सताती क्यों हैं? 
हों मेरे मुस्बतों में नाफियाँ मुजरा, 
नफियाँ ही मुझे रोज़ गिनाती क्यों है. 

कमज़ोर हो, बूढ़े हो, अब आराम करो,
पैसे को बटोरो न, भले कम करो,
पोते, पड़ पोते, कहें तुम्हें खूसट,
गर हो जो सके, अपने को गुम नाम करो. 
*

कटती है मज़ेदार निवालों में इमाम,
छनती रहे सिरेट, मसलों में इमाम,
क्या जानो मशक्कत में सनी रोटी को,
पलते रहो मज़हब के कमालों में इमाम. 
*

फतवे दिया करते हो, ये हाबी है जनाब?
'मुनकिर' को करो क़त्ल, नवाबी है जनाब?
मज़हब की खुराफ़ात पर भड़के क्यों हो?
वल्दियत में क्या बड़ी खराबी है जनाब?
*