Saturday, September 8, 2012

रुबाइयाँ



रुबाइयाँ  

गफ़लत थी मेरी या कि तुम्हारी जय थी.
ग़ालिब थी मुरव्वत जो अजब सी शय थी,
तुम पर था चढ़ा जोश तशद्दुद का खुमार,
दो जाम भरे सुल्ह के, मेरी मय थी.
*

ऐ गाज़ी ए गुफ़तार ज़रा थोडा सँभल,
माहौल में है तेरे छिपी तेरी अजल,
यलगार लिए है तेरी गुफ्तार की बू,
गीबत का नतीजा न हो चाकू का अमल.
*

मज़हब है रहे-गुम पे, दिशा हीन धरम,
आपस में दया भाव हैं नही है,न करम,
तलवार धनुष बान उठाए दोनों,
मानव के लिए पीड़ा हैं, इंसान के गम.
*

इन रस्म रवायत की मत बात करो,
तुम जिंसी खुराफात की मत बात करो,
कुछ बातें हैं मायूब नई क़दरों में ,
मज़हब की, धरम ओ ज़ात की मत बात करो.
*

आओ कि लबे-क़ल्ब, खुदा को ढूंढें,
रूहानी दुकानों में, वबा को ढूंढें,
क्यूं कौम हुई पस्त सफ़े अव्वल की?
मज़हब की पनाहों में ख़ता को ढूंढें.
*

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