Friday, May 4, 2012

ग़ज़ल - - - खेमें में बसर कर लें इमारत न बनाएँ






खेमें में बसर कर लें इमारत न बनाएँ,
जो दिल पे बने बोझ वो दौलत न कमाएँ।




सन्देश ये आकाश के, अफ्लाकी निदाएँ,
हैं इन से बुलंदी पे सदाक़त की सदाएँ।




सच्ची है ख़ुशी इल्म की दरया को बहाएँ,
भर पूर पढें और अज़ीज़ों को पढ़ाएँ।




संगीन के साए में हैं रहबर कि खताएँ,
मज़लूम के हिस्से में बिना जुर्म सजाएँ।




तीरथ कि ज़ियारत हो,कोई पाठ पढ़ाएँ,
जायज़ है तभी जब न मोहल्ले को सताएँ।




जलसे ये मज़ाहिब के, ये धर्मों कि सभाएँ,
"मुंकिर" न कहीं देश कि दौलत को जलाएँ।


*अफ्लाकी निदाएँ=कुरान वाणी *सदाक़त=सत्य वचन *ज़ियारत=दर्शन .

1 comment:

  1. सच्ची है ख़ुशी इल्म की दरया को बहाएँ,
    भर पूर पढें और अज़ीज़ों को पढ़ाएँ।

    बहुत खूब...आपका ये सन्देश जन जन तक पहुंचना चाहिए...

    नीरज

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