Sunday, March 25, 2012

ग़ज़ल- - - अनसुनी सभी ने की दिल पे ये मलाल है




अनसुनी सभी ने की दिल पे ये मलाल है,
मैं कटा समाज से क्या ये कुछ ज़वाल है। 


कुछ न हाथ लग सका, फिर भी ये कमल है,
दिल में इक करार है, सर में एतदाल है। 


जागने का अच्छा फन, नींद से विसाल है,
मुब्तिलाए रोज़ तू, दिन में पाएमाल है। 


ख्वाहिशों के क़र्ज़ में, डूबा बाल बाल है,
खुद में कायनात मन वरना मालामाल है। 


है थकी सी इर्ताका, अंजुमन निढाल है,
उठ भी रह नुमाई कर, वक़त हस्बे हल है। 


पेंच ताब खा रहे हो, तुम अबस जुनैद पर ,
खौफ है कि किब्र? है कैसा ये जलाल है

Monday, March 19, 2012

ग़ज़ल - - - रहबर ने पैरवी का जूनून यूँ बढा लिया



रहबर ने पैरवी का जूनून यूँ बढा लिया,
आखें जो खुली देखीं तो तेवर चढा लिया। 


तहकीक़ ओ गौर ओ फ़िक्र तबीअत पे बोझ थे,
अंदाज़ से जो हाथ लगा वह उठा लिया। 


शोध और आस्था में उन्हें चुनना एक था,
आसान आस्था लगी, सर में जमा लिया। 


साधू को जहाँ धरती के जोबन ज़रा दिखे,
मन्दिर बनाया और वहीँ धूनी  रमा   लिया। 


पाना है गर खुदा को तो बन्दों से प्यार कर,
वहमों कि बात थी ये गनीमत कि पा लिया। 


"मुकिर" की सुलह भाइयों से इस तरह हुई,
खूं पी लिया उन्हों ने, ग़म इस ने खा लिया. 


Sunday, March 11, 2012

ग़ज़ल - - - मक्का सवाब है न मदीना सवाब है




मक्का सवाब है न मदीना सवाब है,
घर बार की ख़ुशी का सफीना सवाब है। 


बे खटके हो हयात तो जीना सवाब है,
बच्चों का हक़ अदा हो तो पीना सवाब है। 


माथे पे सज गया तो पसीना सवाब है,
खंता उठा के लाओ दफीना सवाब है। 


भूलो यही है ठीक कि बद तर है इन्तेकाम,
बुग्जो, हसद, निफाक, न कीना सवाब है। 


जागो ऐ नव जवानो! कनाअत हराम है,
जूझो, कहीं ये नाने शबीना सवाब है? 


"मुंकिर" को कह रहे हो दहेरया है दोजखी,
आदाब ओ एहतराम, करीना सवाब है। 

*बुग्जो, हसद, निफाक, कीना =बैर भावः *कनाअत=संतोष *नाने शबीना =बसी रोटी

Sunday, March 4, 2012

ग़ज़ल - - - अपने ही उजाले में जिए जा रहा हूँ मैं


अपने ही उजाले में जिए जा रहा हूँ मैं,
घनघोर घटाओं को पिए जा रहा हूँ मैं.


होटों को सिए हाथ उठाए है कारवां,
दम नाक में रहबर के किए जा रहा हूँ मैं। 


मज़हब के हादसों पिए जा रहे हो तुम,
बेदार हक़ायक़ को जिए जा रहा हूँ मैं।


इक दिन ये जनता लूटेगी धर्मों कि दुकानें, 
इसको दिया जला के दिए जा रहा हूँ मैं।


फिर लौट के आऊंगा कभी नई सुब्ह में,
तुम लोगों कि नफ़रत को लिए जा रहा हूँ मैं।


फिर फाड़ना न अब ये सदाक़त के पैरहन,
"मुंकिर" का गरेबान सिए जा रहा हूँ मैं.