Friday, December 28, 2012

Dohe



दोहे 


भाई पडोसी को लड़ा, हो तेरा उद्धार,
अमरीका यरोप बेच लें, काई लगे हथियार .
*
अम्रीका योरोप हैं जगे, जगे चीन जापान,
दीन धरम की नींद में, पड़ा है हिन्दुस्तान.
*
ले कर आपस में लड़ें, दीन धरम का ज्ञान,
इनमे कितना मेल था, जब थे ये अज्ञान.
*
चले जिहादी अरब से, न पहुंचे जापान,
भारत आकर फ़ांस गया , इस्लामी अभियान.
*
मुल्ला पंडित एक हैं, जनता को लड्वाएं ,
बोएं पेड़ बबूल का, आम मगर ये  खाएँ .
*
'मुनकिर' मत दे भीख तू , इसका बड तर अंजाम,
विकलांगों पर कर दया, दे कुछ इनको काम.
*


Friday, December 21, 2012

Dohe


दोहे  

ससुरी माया जाल को, सर पे लिया है लाद, 
अपने दुश्मन हो गए, रख कर ये बुन्याद. 
हिन्दू मुलिम लड़ मरे, मरे रज़ा और भीम, 
सुलभ तमाशा बैठ के, देखें राम रहीम. 
मानव-जीवन युक्ति है, संबंधों का जाल, 
मतलब के पाले रहे, बाकी दिया निकाल. 
नादानों की सोच है ऐसा बने विधान,
वैदिक  युग में जा बसे अपना हिदुस्ता.
*
इंसानी तहजीब के मिटे हैं कितने रूप,
भगुवा, हरिया टर रटें , खोदें मन में कूप.
*

अल्ला को तू भूल जा, मत कर उसका ध्यान,
अल्ला की मखलूक का, पहले कर कल्यान.
*
सबसे अच्छी बात है, दुन्या हो महबूब,
अपने आप से प्यार कर, जीवन से मत ऊब.
*


Friday, December 14, 2012

Dohe


दोहे 




हम में तुम में रह गई, न नफरत न ही चाह, 
बेहतर है हो जाएं अब, अलग अलग ही राह
'मुनकिर' हड्डी मॉस का , पुतला तू मत पाल, 
तन में मन का शेर है, बाहर इसे निकाल. 
* तुलसी बाबा की कथा, है धारा प्रवाह, 
राम लखन के काल के, जैसे होएँ गवाह. 
कुदरत का ये रूप है, देख खिला है फूल, 
अल्लाह की धुन छोड़ दे, पत्थर पूजा भूल. 
कुदरत ही है आईना, प्रक्रति ही है माप, 
तू भी इसका अंश है, तू भी इसकी ताप. 

Friday, December 7, 2012

Saturday, November 17, 2012

ग़ज़ल - - -अपनी हस्ती में सिमट जाऊं तो कुछ आराम हो




ख़ारजी हैं सब तमाशे, साक़िया इक जाम हो,

अपनी हस्ती में सिमट जाऊं तो कुछ आराम हो।


ख़ुद सरी, खुद बीनी, खुद दारी, मुझे इल्हाम है,

क्यूं ख़ुदा साजों की महफ़िल से मुझे कुछ काम हो।


तुम असीरे पीर मुर्शिद हो कि तुम मफ़रूर  हो,

हिम्मते मरदां न आई या की तिफ़ले  ख़ाम   हो।


हाँ यक़ीनन एक ही लम्हे की यह तख़लीक़, 


वरना दुन्या यूं अधूरी और तशना काम हो।


हम पशेमाँ हों कभी न फ़ख्र के आलम में हों,

आलम मासूमियत हो बे ख़बर अंजाम हो।


अस्तबल में नींद की मारी हैं "मुंकिर" करवटें,

औने पौने बेच दे घोडे को खाली दाम  हो.

Thursday, November 1, 2012

ग़ज़ल- - -सच्चाइयों ने हम से जब तक़रार कर दिया,



सच्चाइयों ने हम से जब तक़रार कर दिया,
हमने ये सर मुक़बिल-ए-दीवार कर दिया.


अपनी ही कायनात से बेज़ार जो हुए,
इनको सलाम, उनको नमस्कार कर दिया।


तन्हाइयों का सांप, जब डसने लगा कभी,
खुद को सुपुर्दे गाज़ी-ए-गुफ़्तार  कर दिया।


देकर ज़कात सदक़ा मुख़य्यर  अवाम ने,
अच्छे भले ग़रीब को बीमार कर दिया।


हाँ को न रोक पाया, नहीं भी न कर सका,
न करदा थे गुनाह कि इक़रार कर दिया।


रूहानी हादसा-ए-अक़ीदत के ज़र्ब ने,
फ़ितरी  असासा क़ौम का बेकार कर दिया.

Friday, October 26, 2012

ग़ज़ल - - - थीं बहुत कुछ सूरतें अहदों उसूलों से भली




थीं बहुत कुछ सूरतें अहदों उसूलों से भली,
जान लेने, जान देने में ही तुम ने काट दी।

भेडिए, साँपों, सुवर, के साथ ही यह तेरे लब,
पड़ चुके किस थाल में हैं, ऐ मुक़द्दस आदमी।

नेक था सरवन मगर सीमित वो होकर रह गया,
सेवा में माँ बाप के ही काट डाली ज़िन्दगी।

ढूंढो मत इतिहास के जंगल में शेरों का पता,
ऐ चरिन्दों! क्या हुवा जो पा गए सींगें नई।

आप ने देखा नहीं क्या, न मुकम्मल था खुदा,
खैर छोडो, अब चलो खोजें मुकम्मल आदमी।

करता है बे चैन "मुंकिर" देके कुछ सच्ची ख़बर,
सच का वह मुखबिर बना है, इस लिए है दुश्मनी.

Friday, October 19, 2012

ग़ज़ल - - - बात नाज़ेबा तुहारे मुंह से पहुंची यार तक


ग़ज़ल


बात नाज़ेबा तुहारे मुंह की पहुंची यार तक,

अब न ले कर जाओ इसको, मानी ओ मेयार तक।


पहले आ कर खुद में ठहरो, फिर ज़रा आगे बढो,

ऊंचे, नीचे रास्तों से, खित्ताए हमवार तक।


घुल चुकी है हुक्म बरदारी तुमरे खून में,

मिट चुके हैं खुद सरी, खुद्दारी के आसार तक।


इक इलाजे बे दवा अल्फाज़ की तासीर है,

कोई पहुंचा दे मरीज़े दिल के गहरे गार तक।


रब्त में अपने रयाकारी की आमेज़िश लिए,

पुरसाँ हाली में चले आए हो इस बीमार तक।


मैं तेरे दौलत कदे की सीढयों तक आऊँ तो,

तू मुझे ले जाएगा अपनी चुनी मीनार तक।


कुछ इमारत की तबाही पर है मातम की फ़ज़ा,

हीरो शीमा नागा शाकी शहर थे यलगार तक।


उम्र भर लूतेंगे तुझ को मज़हबी गुंडे हैं ये,

फ़ासला बेहतर है इनसे आलम बेदार तक।

Friday, October 12, 2012

ग़ज़ल - - - काँटों की सेज पर मेरी दुन्या संवर गई



काँटों की सेज पर मेरी दुन्या संवर गई,
फूलों का ताज था, वहां इक गए चार गई।

रूहानी भूक प्यास में, मैं उसके घर  गया,
दूभर था सांस लेना, वहां नाक भर गई।

वोह साठ साठ साल के बच्चों का थ गुरू,
सठियाए बालिग़ान पे उस की नज़र गई।

लड़ कर किसी दरिन्दे से जंगल से आए हो?
मीठी जुबान, भोली सी सूरत किधर गई?

नाज़ुक सी छूई मूई पे काज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के ग़ैरत  से मर गई।

सोई हुई थी बस्ती, सनम और खुदा लिए,
"मुंकिर" ने दी अज़ान तो इक दम बिफर गई,

Friday, October 5, 2012

रुबाईयाँ 20X5=100


रुबाईयाँ 

योरोप की तरह अपना भी भारत जागे,
क्या कहना, निकल जाए ये सबसे आगे,
बन जाएँ सभी हिन्दी मुकम्मल इन्सां ,
गर धर्म ओ मज़ाहिब की मुसीबत भागे.
*

देहात की मुस्लिम थी, ग़र्क़े-सना, 
" आ जाओ मोरे अंगना कभी, अल्ला मियाँ "
लाहौल पढ़ी, सुनके, ये ज़ाहिद बोले,
"गोया कि कन्हैया जी, हुए अल्ला मियाँ."
*

'मुनकिर' ये बताओ, पीकर आए हो क्या?
खुशबुओं के परदे में छिपाए हो क्या?
कुछ दिन ही हुए हैं कि हुए उन्सठ के,
कुछ उम्र से पहले सठियाए हो क्या?
*

बेलौस निहत्थे से सिपाही बन जाओ, 
मुख़्तसर सफ़र के, इक रही बन जाओ, 
दूर रखकर ही देखो, ये ख़ुशी और गम, 
आदी न बनो,इनकी गवाही बन जाओ. 


जमहूर में एहसास की पस्ती देखी, 
दौलत को अमीरों पे, बरसती देखी, 
दानो को तरसती हुई बस्ती देखी, 
अफ्लास के संग, मौज और मस्ती देखी. 




Tuesday, October 2, 2012

रुबाइयाँ


रुबाइयाँ  


घर वाली का, हर वक़्त हिमायत छोड़ो, 
नर जैसे बनो, मादा की ख़सलत छोडो, 
फुंक जाते हो, गर कान को फूँके  कोई, 
बस थोडा सा ग़ैरत में हरारत छोडो. 

माजी की तल्ख़ यादें, आती क्यों हैं? 
जब देखो मुझे आके, सताती क्यों हैं? 
हों मेरे मुस्बतों में नाफियाँ मुजरा, 
नफियाँ ही मुझे रोज़ गिनाती क्यों है. 

कमज़ोर हो, बूढ़े हो, अब आराम करो,
पैसे को बटोरो न, भले कम करो,
पोते, पड़ पोते, कहें तुम्हें खूसट,
गर हो जो सके, अपने को गुम नाम करो. 
*

कटती है मज़ेदार निवालों में इमाम,
छनती रहे सिरेट, मसलों में इमाम,
क्या जानो मशक्कत में सनी रोटी को,
पलते रहो मज़हब के कमालों में इमाम. 
*

फतवे दिया करते हो, ये हाबी है जनाब?
'मुनकिर' को करो क़त्ल, नवाबी है जनाब?
मज़हब की खुराफ़ात पर भड़के क्यों हो?
वल्दियत में क्या बड़ी खराबी है जनाब?
*

Saturday, September 29, 2012

रुबाइयाँ



रुबाइयाँ 



तहरीक ए सदाक़त हो दिलों में पैदा, 
तबलीग़  ए जिसारत हो दिलों में पैदा, 
समझा दो ज़माने को खुदा भी बुत है, 
फ़ितरत की अक़ीदत को दिलों में पैदा. 

मुझको क्या कुछ, समझा बूझा है तुमने, 
या अपने ही जैसा, जाना तुमने, 
मेरे ईमान में फ़र्क लाने का ख़याल, 
चन्दन पे है गोया, साँप पाला तुमने. 

फिर धर्म के पाखंड पे, भारत है रवाँ, 
खो दे न तवानाई, तरक़क़ी ये जवाँ, 
बढ़ चढ़ के दिमाग़ों में है मज़हब की अफ़ीम, 
हुब्बुल बतानी का जज़्बा है कहाँ. 

दिल चाहता है, जिस्म थका, फिर हो जवाँ, 
खूँ नाब में, परियों की अदा, फिर हो जवाँ, 
कुछ ऐसा मुअज्ज़ा हो कि लौट आए जवानी, 
मय, जाम, सुबू, साग़र ओ साक़ी का जहाँ हो, 

रोज़ों का असर देखो कि कुछ काम आया, 
वह ईद के मौके पे लबे-बाम आया. 
आदाब की झंकार, सिवइयों के साथ, 
मुज्दः ! कि वह पलकों पे रखे जाम आया. 

Saturday, September 22, 2012

रुबाइयाँ


रुबाइयाँ  



इंसान नहीफ़ों को दवा देते हैं, 
हैवान नफीफ़ों को मिटा देता हैं, 
है कौन समझदार यहाँ दोनों में? 
कुछ देर ठहर जाओ, बता देते हैं. 

यह मर्द नुमायाँ हैं मुसीबत की तरह,
यह ज़िदगी जीते हैं अदावत की तरह ,
कुछ दिन के लिए निस्वाँ क़यादत आए, 
खुशियाँ हैं मुअननस सभी औरत की तरह. 
*

सद-बुद्धि दे उसको तू निराले भगवन, 
अपना ही किया करता है पैहम नुक़सान, 
नफ़रत है उसे सारे मुसलमानों से, 
पक्का हिन्दू है वह कच्चा इन्सान. 
* 

जन्मे तो सभी पहले हैं हिन्दू माई! 
इक ख़म माल जैसे हैं ये हिन्दू भाई, 
इनकी लुद्दी से हैं ये डिज़ाइन सभी, 
मुस्लिम, बौद्ध, सिख हों या ईसाई. 

गुफ़्तार के फ़नकार कथा बाचेंगे, 
मुँह आँख किए बंद भगत नाचेंगे, 
एजेंट उड़ा लेंगे जो थोड़ी इनकम, 
महराज खफ़ा होंगे बही बंचेगे. 

Friday, September 21, 2012

रुबाइयाँ

रुबाइयाँ    


इक फ़ासले के साथ मिला करते थे,
शिकवा न कोई और न गिला करते थे,
क़ुरबत की शिद्दतों ने डाली है दराड़ ,
दो रंग में दो फूल खिला करते थे.
*

खामोश हुए, मौत के ग़म मैंने पिए,
अब तुम भी न जलने दो ये आंसू के दिए,
मैं भूल चुका होता हूँ अपने सदमें,
तुम रोज़ चले आते हो पुरसे को लिए.
*

माइल बहिसाब यूँ न होना था तुम्हें ,
मालूम न था अज़ाब होना था तुम्हें,
हंगामे-जवानी की मेरी तासवीरों,
इतनी जल्दी ख़राब होना था तुन्हें?
*

पंडित जी भी आइटम का ही दम ले आए,
तुम भी मियाँ परमाणु के बम ले आए,
लड़ जाओ धर्म युद्ध या मज़हबी जंगें ,
हम सब्र करेगे, उम्र कम ले आए.
*

तेरी मर्ज़ी पे है, मै बे दाग मरूँ,
हल्का हूँ पेट का, सुबकी को चरुं,
'मुनकिर' को नहीं हज्म बहुत से मौज़ूअ.
गीबात न करे तू तो, मैं चुगली न करून, 
*

Saturday, September 15, 2012

रुबाइयाँ


रुबाइयाँ

औकात बदलते हैं, बदलतीं सूरत, 
अहकाम इलाही में हो कैसे हुज्जत, 
खैरात, ज़कात, फ़ितरा तब किसको दें, 
जब हों सभी खुश, सभी बा गैरत. 

किस बात पे यूँ गाना बजाना छोड़ा,
नाराज़ हुए, आब ओ दाना छोड़ा,
कुछ सुनने सुनाने की क़सम भी खली,
इक हिचकी ली और सारा ज़माना छोड़ा.
*

आवाज़ मुझे आखिरी देकर न गए,
आवाज़ मेरी आखिरी लेकर न गए,
बस चलते चलाते ही जहाँ छोड़ दिया,
अफ़सोस कि समझा के, समझ कर न गए. 
*

होते हुए पुर अम्न ये हैबत में ढली, 
लगती है ख़तरनाक मगर कितनी भली,
है ज़िन्दगी दो चार दिनों की ही बहार,
ये मौत की हुई , जो फूली न फली.
*

वह करके दुआ सबके लिए सोता है,
खिलक़त के लिए तुख्म -समर बोता है,
तुम और सताओ न मियां मुनकिर को,
मासूम की आहों में असर होता है.
*

Friday, September 14, 2012

Rubaiyan -13


रुबाइयाँ  

क्यों सच के मज़ामीन यूँ मल्फूफ़ हुए, 
फ़रमान बजनिब हक, मौकूफ हुए, 
इंसान लरज़ जाता है गलती करके, 
लग्ज़िश के असर में खुदा मौसूफ़ हुए. 

ग़ारत हैं इर्तेक़ाई मज़मून वले, 
अज़हान थके हो गए, ममनून वले,
साइन्स के तलबा को खबर खुश है ये, 
इरशाद हुवा "कुन" तो "फयाकून"वले,

काफ़िर है न मोमिन, न कोई शैताँ है, 
हर रूप में हर रंग में यही इन्सां है, 
मज़हब ने, धर्म ने, किया छीछा लेदर, 
बेहतर है मुअतक़िद नहीं, जो हैवाँ है. 

तुम अपने परायों की खबर रखते थे, 
हालात पे तुम गहरी नज़र रखते थे, 
रूठे  हों कि छूटे हों तुम्हारे अपने, 
हर एक के दिलों में, घर रखते थे. 
* 

बेयार ओ मददगार हमें छोड़ गए, 
कैसे थे वफ़ादार हमें छोड़ गए, 
अब कौन निगहबाने-जुनूँ होगा मेरा, 
लगता है कि घर बार हमें छोड़ गए. 

Saturday, September 8, 2012

रुबाइयाँ



रुबाइयाँ  

गफ़लत थी मेरी या कि तुम्हारी जय थी.
ग़ालिब थी मुरव्वत जो अजब सी शय थी,
तुम पर था चढ़ा जोश तशद्दुद का खुमार,
दो जाम भरे सुल्ह के, मेरी मय थी.
*

ऐ गाज़ी ए गुफ़तार ज़रा थोडा सँभल,
माहौल में है तेरे छिपी तेरी अजल,
यलगार लिए है तेरी गुफ्तार की बू,
गीबत का नतीजा न हो चाकू का अमल.
*

मज़हब है रहे-गुम पे, दिशा हीन धरम,
आपस में दया भाव हैं नही है,न करम,
तलवार धनुष बान उठाए दोनों,
मानव के लिए पीड़ा हैं, इंसान के गम.
*

इन रस्म रवायत की मत बात करो,
तुम जिंसी खुराफात की मत बात करो,
कुछ बातें हैं मायूब नई क़दरों में ,
मज़हब की, धरम ओ ज़ात की मत बात करो.
*

आओ कि लबे-क़ल्ब, खुदा को ढूंढें,
रूहानी दुकानों में, वबा को ढूंढें,
क्यूं कौम हुई पस्त सफ़े अव्वल की?
मज़हब की पनाहों में ख़ता को ढूंढें.
*

Friday, September 7, 2012

रुबाइयाँ

रुबाइयाँ  



दोज़ख से डराए है मुसलसल मौला,
जन्नत से लुभाए है मुसलसल मौला,
है ऐसी ज़हानत कि ज़हीनो को चुभे ,
हिकमत को जताए है मुसलसल मौला,.
*

बस गाफिल ओ नादर डरा करते हैं,
यारों से कहीं यार डरा करते हैं,
मत मुझको डरना किसी क़ह्हारी से,
मौला से गुनहगार डरा करते हैं.
*

कब तक ते रवादारियाँ जायज़ होंगी,
औरत की ये कुरबानियाँ जायज़ होंगी,
हर रोज़ तलाक़ और हल्लाला ओ निकाह?
कब तक ये कलाकारयाँ जायज़ होंगी,
*

शैतान को भड़काते, किसी ने देखा?
आवाज़ सुनी उसकी, किसी नें समझा?
आओ मैं दिखता हूँ अगर चाहो तो,
तबलीग के परदे में छिपा है बैठा.
*

ईसाई गनीमत हैं, बदल जाते हैं,
हालात के साँचे में ही ढल जाते हैं,
फ़ितरत के हुए कायल, साइंस शुआर,
मजलिस की जिहालत से निकल जाते हैं.
*

Thursday, August 30, 2012

रुबाईयाँ


रुबाईयाँ 


लोगों के मुक़दमों में पड़े रहते हो,
नज़रों को नज़ारों को तड़े रहते हो,
खुद अपने ही हस्ती से नहीं मिलते कभी,
और ताज में ग़ैरों के जड़े रहते हो.
*

बेचैन सा रहता भरी महफ़िल में,
है कौन छिपा बैठा, तड़पते दिल में,
रहती हैं ये आखें, मतलाशी किसकी ?
मंजिल है कहाँ, कौन निहाँ मंजिल में.
*

धरती के हैं, धरती की रज़ा रखते हैं,
हक धरती का हर रोज़ अदा करते हैं,
वह चाहने वाले हैं फ़लक के 'मुंकिर',
ऊपर की दुआओं में लगे रहते हैं.
*

तस्बीह, तसवीर, मसाजिद, तोगरा,
एक्सपोर्ट करे चीन, खरीदे मक्का,
सीने से लगाए हैं इन्हें हाजी जी,
बेदीनों के तिकड़म का यह दीनी तुक्का.
*

दंगों में शिकारी को लगा देते हो,
शैतां की तरह पाठ पढ़ा देते हो,
फुफकारते हो धर्म ओ मज़ाहिब के ज़हर,
तुम जलते हुए दीप बुझा देते हो.
*

Friday, August 24, 2012

रुबाइयाँ


रुबाइयाँ

पीटते रहोगे ये लकीरें कब तक?
याद करोगे माज़ी की तीरें कब तक,
मुस्तकबिल पामाल किए हो यारो,
हर हर महादेव, तक्बीरें कब तक?
*

माद्दा परस्ती में है बिरझाई हुई,
नामूस ए खुदाई पे है ललचाई हुई,
इंसानी तरक्की से कहो जल्द मरे,
है आलम ए बाला से खबर ई हुई.
*

मोमिन ये भला क्या है, दहरया क्या है,
आला है भला कौन, ये अदना क्या है,
देखो कि मुआश का क्या है ज़रीआ?
जिस्मों में रवां खून का दरिया क्या है?
*

सब कुछ यहीं ज़ाहिर है, खुला देख रहे हो,
क़ुदरत लिए हाज़िर है, खुला देख रहे हो,
बातिन में छिपाए है, वह इल्मे- नाक़िस,
वह झूट में माहिर है खुला देख रहे हो,
*

छाई है घटाओं की बला, आ जाओ,
हल्का सा तबस्सुम ही सही, गा जाओ,
गर चाहो तो, हो जाओ ज़रा दरया दिल,
प्यासों पे घटाओं की तरह छा  जाओ.
*

Wednesday, August 22, 2012

रुबाइयाँ



रुबाइयाँ  

सर को ठंडा, पैर गरम रख भाई, 
हो पीठ कड़ी, पेट नरम रख भाई, 
सच्चाई भरे अच्छे करम हों तेरे, 
ढोंगी न बन काँटे धरम रख भाई. 

किस धुन से बजाय था मजीरा देखो, 
छल बल से चुने मोती ओ हीरा देखो, 
बनिए की समाधि है, कि इबरत का मुक़ाम, 
इस कब्र का बे कैफ़ जज़ीरा देखो. 

मातूब हुवा जाए बुढ़ापे में वजूद, 
लगत मिली बीवी से , न औलाद से सूद, 
संन्यास की ताक़त है, न अब भाए जुमूद, 
बूढ़े को सताए हैं, बचे हस्त ओ बूद. 

हाँ! जिहादी तालिबों को पामाल करो, 
इन जुनूनियों का बुरा हाल करो, 
बे कुसूर, बे नयाज़ पर आंच न आए, 
आग के हवाले न कोई माल करो. 

शीशे के मकानों में बसा है पच्छिम, 
मय नोश, गिज़ा ख़ोर, है पुर जोश मुहिम, 
सब लेता है मशरिक के गदा मग़ज़ोन से, 
उगते हैं जहाँ धर्म गुरु और आलिम. 

Thursday, August 16, 2012

Rubaaiyaan


रुबाइयाँ
  


शैतान मुबल्लिग़! अरे सबको बहका, 
जन्नत तू सजा, फिर आके दोज़ख दहका, 
फितरत की इनायत है भले 'मुंकिर' पर, 
इस फूल से कहता है कि नफरत महका. 


पसमांदा अक़वाम पे, क़ुरबान हूँ मै, 
मुस्लिम के लिए खासा परीशान हूँ मैं, 
पच्चीस हैं सौ में, इन्हें बेदार करो, 
सब से बड़ा हमदरदे-मुसलमान हूँ मैं. 
* 


दौलत से कबाड़ी की है, बोझिल ये हयात, 
हैं रोज़ सुकून के, न चैन की रात, 
बुझती ही नहीं प्यास कभी दौलत की, 
देते नहीं राहत इन्हें सदका ओ ज़कात. 


मस्जिद के ढहाने को विजय कहते हो, 
तुम दिल के दुखाने को विजय कहते हो, 
होती है विजय सरहदों पे, दुश्मन पर, 
सम्मान गंवाने को विजय कहते हो. 
हों फ़ेल मेरे ऐसे, मेरी नज़रें न झुकें, 
सब लोग हसें और क़दम मेरे रुकें, 
अफकार ओ अमल हैं लिए सर की बाज़ी. 
'मुंकिर' की नफ़स चलती रहे या कि रुके, 

  

Thursday, August 9, 2012

Rubaaiyan

रुबाइयाँ  


हलकी सी तजल्ली से हुआ परबत राख,
इंसानी बमों से हुई है बस्ती ख़ाक,
इन्सान ओ खुदा दोनों ही यकसाँ ठहरे,
शैतान गनीमत है रखे धरती पाक.
*
हम लाख संवारें , वह संवारता ही नहीं,
वह रस्म ओ रिवाजों से उबरता ही नहीं,
नादाँ है, समझता है दाना खुद को,
पस्ता क़दरें लिए, वह डरता ही नहीं. 
*
हों यार ज़िन्दगी के सभी कम सहिह, 
देते हैं ये इंसान को आराम सहिह 
है एक ही पैमाना, आईना सा,
औलादें सहिह हैं तो है अंजाम सहिह. 
*
मज़दूर थका मांदा है देखो तन से, 
वह बूढा मुफक्किर भी थका है मन से, 
थकना ही नजातों की है कुंजी मुंकिर, 
दौलत का पुजारी नहीं थकता धन से. 
हर सम्त सुनो बस कि सियासत के बोल, 
फुटते ही नहीं मुंह से सदाक़त के बोल , 
मजलूम ने पकड़ी रहे दहशत गर्दी, 
गर सुन जो सको सुन लो हकीकत के बोल. 

Friday, August 3, 2012

रुबाइयाँ


रुबाइयाँ 

चेहरे पे क़र्ब है, लिए दिल में यास,
कैसे तुझे यह ज़िन्दगी, आएगी रास,
मुर्दा है, गया माजी, मुस्तक़बिल है क़यास,
है हाल ग़नीमत ये, भला क्यों है उदास.
*
हर सुब्ह को आकर ये रुला देता है, 
मज़्मूम बलाओं का पता देता है,
बेहतर है कि बेखबर रहें "मुनकिर",
अख़बार दिल ओ जान सुखा देता है.
*
तबअन हूँ मै आज़ाद नहीं क़ैद ओ बंद,
हैं शोखी ओ संजीदगी, दोनों ही पसंद,
दिल का मेरे, दर दोनों तरफ खुलता है,
है शर्त कि दस्तक का हो मेयार बुलंद. 
*
अल्लाह उन्हें रख्खे, उनकी क्या बात,
हर वक़्त रहा करते हैं सब से मुहतात,
खाते हैं छील छाल कर रसगुल्ले, 
पीते है उबाल कर मिला आबे-हयात.
*
फ़िरऔन मिटे, ज़ार ओ सिकंदर टूटे,
अँगरेज़ हटे नाज़ि ओ हिटलर टूटे,
इक आलमी गुंडा है उभर कर आया,
अल्लाह करे उसका भी ख़जर टूटे.
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Saturday, July 28, 2012

रुबाइयाँ

रुबाइयाँ 


मज्मूम सियासत की फ़ज़ा है पूरी,
हमराह मुनाफ़िक़ हो नहीं मजबूरी, 
ढोता है गुनाहों को, उसे ढोने दो,
इतना ही बहुत है कि रहे कुछ दूरी.
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मेहनत की कमाई   पे ही जीता है फ़कीर,
हर गाम कटोरे में भरे अपना ज़मीर,
फतवों की हुकूमत थी,था शाहों का जलाल,
बे खौफ़ खरी बात ही करता था कबीर.
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फ़न को तौलते रहे, गारत थी फ़िक्र,
था मेराज पर उरूज़, नदारत थी फ़िक्र,
थी ग़ज़ल ब-अकद, समाअत क्वाँरी,
थी ज़बाँ ब वस्ल , ब इद्दत थी फ़िक्र. 
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खुद मुझ से मेरा ज़र्फ़ जला जाता है,
कज़ोरियों पर हाथ मला जाता है,
दिल मेरा कभी मुझ से बग़ावत करके,
शैतान के क़ब्ज़े में चला जाता है.
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कारूनी ख़ज़ाना है, हजारों के पास,
शद्दाद की जन्नत, बे शुमारों के पास,
जम्हूरी तबर्रुक की ये बरकत देखो,
खाने को नहीं है थके हारों के पास. 
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Friday, July 20, 2012

रुबाइयाँ


जब तक नहीं जागोगे दलित और पिछडो,
आपस में लड़ोगे यूं ही शोषित बंदो,
ग़ालिब ही रहेंगे तुम पे ये मनुवादी,
ऐ अक्ल के अन्धो! और करम के फूटो !!
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क्या शय है मनुवाद तेरा खोटा निजाम,
महफूज़ बरहमन के लिए हर इक जाम,
मैं ने है पढ़ा तेरी मनु स्मृति में,
सर शर्म से झुकता है तेरा पढ़ के पयाम.
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मूसा सा अड़ा मैं तो क़बा खोल दिया, 
सदयों से पड़ी ज़िद की गिरह खोल दिया,
रेहल रख दिया, उसपे किताबे महशर,
पढने के लिए उसने नदा खोल दिया.
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मिम्बर पे मदारी को अदा मिलती है,
मौज़ूअ पे मुक़र्रिर को सदा मिलती है,
रुतबा मेरा औरों से ज़रा हट के है,
हम पहुंचे हुवों को ही नदा मिलती है. 
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बस यूं ही ज़रा पूछ लिया क्यों है खड़ा?
दो चार अदद घूँसे मेरे मुंह जड़ा ,
आई हुई शामत थी , मज़ा चखना था,
सोए हुए कुत्ते पे मेरा पैर पड़ा. 
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Thursday, July 12, 2012

रुबाइयाँ


रुबाइयाँ    

कुछ जीने उरूजों के हैं, लोगो चढ़ लो,
रह जाओगे पीछे, जरा आगे बढ़ लो, 
चश्मा है अकीदत का उतारो इसको , 
मत उलटी किताबें पढो, सीधी पढ़ लो.
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है मुक्ति का अनुमान, जनम अच्छा है,
जन्नत के है इमकान, भरम अच्छा है, 
कहते हैं सभी मेरा धरम अच्छा है,
आमाल हैं अच्छे, न करम अच्छा है. 

बतलाई हुई राह, बसलना है तुम्हें,
सांचा है कदामत का, न ढलना है तुम्हें,
ये दुन्या बहुत आगे निकल जाएगी,
अब्हाम के आलम से निकलना है तुम्हें.
*
ज़ालिम के लिए है तेरी रस्सी ढीली,
मजलूम की चड्ढी रहे पीली  गीली,
औतार ओ पयम्बर को, दिखाए जलवा,
और हमको दिखाए, फ़क़त छत्री नीली.
*
है रीश रवाँ, शक्ल पे गेसू है रवां,
हँसते हैं परी ज़ाद सभी, तुम पे मियाँ, 
मसरूफ इबादत हो, मशक्क़त बईद,
करनी नहीं शादी तुम्हें? कैसे हो जवान.

Thursday, July 5, 2012

Rubaaiyan

रुबाइयाँ   


लगता है कि जैसे हो पराया ईमान, 
या आबा ओ अजदाद से पाया ईमान , 
या उसने डराया धमकाया इतना , 
वह खौफ के मारे ले आया ईमान. 
चाहे जिसे इज्ज़त दे, चाहे ज़िल्लत, 
चाहे जिसे ईमान दे, चाहे लानत, 
समझाने बुझाने की मशक्क़त क्यों है? 
जब खुद तेरे ताबे में है सारी हिकमत . 
अल्लाह ने बनाया है जहान ओ इन्सां, 
मशकूक ख़िरद है कि  कहूं न या हाँ, 
इक बात है, यक़ीनन सुनो या न सुनो, 
अल्लाह को बनाए है, कयासे- इन्सां. 
जब गुज़रे हवादिस तो तलाशे है दिमाग, 
तब मय की परी हमको दिखाती चराग़, 
रुक जाती है वजूद में बपा जंग, 
फूल बन कर खिल जाते हैं दिल के सब दाग 
औलादें बड़ी हो गईं, अब उंगली छुडाएं , 
हमने जो पढाया है इन्हें, वो हमको पढ़ें, 
हो जाएँ अलग इनकी नई दुनया से, 
माँ बाप बचा कर रख्खें, अपना खाएँ. 

Thursday, June 28, 2012

Rubaiyan



रुबाइयाँ  

नन्हीं सी मेरी जान से जलते क्यों हो,
यारो मेरी पहचान से जलते क्यों हो,
तुम खुद ही किसी भेड़ की गुम शुदगी हो, 
मुंकिर को मिली शान से जलते क्यों हो. 
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आजमाइशें हुईं, करीना आया,
चैलेंज हुए कुबूल, जीना आया.
शम्स ओ कमर की हुई पैमाइश,
लफ्फाज़ के दांतों पसीना आया. 
*
मुमकिन है कि माज़ी में ख़िरद गोठिल हो, 
समझाने ,समझने में बड़ी मुश्किल हो, 
कैसा है ज़ेहन अब जो समझ लेता है, 
मज़मून में मफ़हूम अगर मुह्मिल हो. 
ये ईश की बानी, ये निदा की बातें, 
आकाश से उतरी हुई ये सलवातें , 
इन्सां में जो नफ़रत की दराडें डालें, 
पाबन्दी लगे ज़प्त हों इनकी घातें. 
कहते हैं कि मुनकिर कोई रिश्ता ढूंढो, 
बेटी के लिए कोई फ़रिश्ता ढूंढो, 
माँ   बाप के मेयर पे आएं पैगाम, 
अब कौन कहे , अपना गुज़िश्ता ढूंढो.