Wednesday, November 30, 2011

ग़ज़ल - - - खिरद का मशविरा है, ये की अब अबस निबाह है



खिरद का मशविरा है, ये की अब अबस निबाह है,
दलीले दिल ये कह रही है, उस में उसकी चाह है.
 
मुकाबले में है जुबान कि क़दिरे कलाम है,
सलाम आइना करे है, कि सब जहाँ सियाह है.
 
ज़मीर की रज़ा है गर, किसी अमल के वास्ते,
बहेस मुबाहसे जनाब, उस पे ख्वाह मख्वाह है.
 
लहू से सींच कर तुम्हारी खेतियाँ अलग हूँ मैं,
किसी तरह का मशविरह, न अब कोई सलाह है.
 
नदी में तुम रवाँ दवां, कभी थे मछलियों के साथ,
बला के दावेदार हो, समन्दरों की थाह है.
 
तलाश में वजूद के ये, ज़िन्दगी तड़प गई,
फुजूल का ये कौल है कि चाह है तो रह है.
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*खिरद=विवेक * अबस व्यर्थ *क़दिरे कलाम =भाषाधिकार

Friday, November 25, 2011

ग़ज़ल - - - ये तसन्नो में डूबा हुवा प्यार है


 
 
ये तसन्नो में डूबा हुवा प्यार है,
क्या कोई चीज़ फिर मुफ़्त दरकार है.
 
 
फैली रूहानियत की वबा क़ौम में,
जिस्म मफ़्लूज है, रूह बीमार है.
 
 
नींद मोहलत है इक, जागने के लिए,
जाग कर सोए तो नींद आज़ार है.
 
 
बुद्धि हाथों पे सरसों उगाती रही,
बुद्धू कहते रहे ये चमत्कार है.
 
 
मुज़्तरिब हर तरफ़ सीधी जमहूर है,
मुन्तखिब की हुई किसकी सरकार है.
 
 
बाँटता फिर रहा है वो पैगामे मौत,
भीड़ साकित है, जैसे तलबगार है.
 
 
एक झटके में जोगी कहीं जा के मर,
क़िस्त में मौत तेरी ये बेकार है.
 
 
हों न "मुंकिर" इबारत ये उलटी सभी,
ले के आ आइना, वोह मदद गार है.
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*आज़ार=रोग *मुज़्तरिब=बेचैन *मुन्तखिब=चुनी हुई.

Sunday, November 20, 2011

हिंदी ग़ज़ल - - - ला इल्मी का पाठ पढाएँ अन पढ़ मुल्ला योगी


 
ला इल्मी का पाठ पढाएँ, अन पढ़ मुल्ला योगी,
दुःख दर्दों की दवा बताएँ खुद में बैठे रोगी.
 
 
तन्त्र मन्त्र की दुन्या झूठी, बकता भविश्य अयोगी,
अपने आप में चिंतन मंथन सब को है उपयोगी.
 
 
आँखें खोलें, निंद्रा तोडें, नेता के सहयोगी,
राम राज के सपन दिखाएँ सत्ता के यह भोगी.
 
 
बस ट्रकों में भर भर के ये भेड़ बकरियां आईं,
ज़िदाबाद का शोर मचाती नेता के सहयोगी.
 
 
पूतों फलती, दूध नहाती रनिवास में रानी,
अँधा रजा मुकुट संभाले, मारे मौज नियोगी.
 
 
"मुकिर' को दो देश निकला, चाहे सूली फांसी,
दामे, दरमे,क़दमे, सुखने, चर्चा उसकी होगी.
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दामे,दरमे,क़दमे,सुखने=हर अवसर पर

Friday, November 4, 2011

ग़ज़ल - - - जब से हुवा हूँ बे गरज़, शिकवा गिला किया नहीं


जब से हुवा हूँ बे गरज़, शिकवा गिला किया नहीं,
कोई यहाँ बुरा नहीं, कोई यहाँ भला नहीं.
 
 
अपने वजूद से मिला तो मिल गई नई सेहर,
माज़ी को दफ़्न कर दिया, यादों का सिलसिला नहीं.
 
 
पुख्ता निज़ाम के लिए, है ये ज़मीं तवाफ़ में,
जीना भी इक उसूल है दिल का मुआमला नहीं.
 
 
बख्शा करें ज़मीन को, मानी मेरे नए अमल,
मेरे लिए रिवाजों का, कोई काफ़िला नहीं.
 
 
ज़ेहनों के सब रचे मिले, सच ने कहाँ रचा इन्हें,
ढूँढा किए खुदा को हम, कोई हमें मिला नहीं.
 
 
थोडा सा और चढ़ के आ, हस्ती का यह उरूज है,
कोई भी मंजिले न हों, कोई मरहला नहीं.
 
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