Wednesday, August 31, 2011

ग़ज़ल - - - यह गलाज़त भरी रिशवत


यह गलाज़त भरी रिशवत,
लग रहा खा रहे नेमत.
 
बैठी कश्ती पे माज़ी के,
फँस गई है बड़ी उम्मत.
 
कुफ्र ओ ईमाँ का शर लेके,
जग में फैला दिया नफरत.
 
सर कलम कर दिए कितने,
लेके इक नअरा ए वहदत.
 
सर बुलंदी हुई कैसी?
आप बोया करें वहशत.
 
धर्म ओ मज़हब हो मानवता,
रह गई एक ही सूरत.
 
माँ ट्रेसा बनीं नोबुल,
खिदमतों से मिली अज़मत.
 
हो गया हादसा आखिर,
हो गई थी ज़रा हफ्लत.
 
खा सका न वोह 'मुंकिर",
खा गई उसे है उसे दौलत.
*****
*माज़ी= अतीत *उम्मत=मुस्लमान *शर=बैर *वहदत=एकेश्वर

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