Sunday, July 31, 2011

आस्तिक और नास्तिक


आस्तिक और नास्तिक


बच्चों को लुभाते हैं परी देव के क़िस्से,
 
ज़हनों में यकीं बन के समाते हैं ये क़िस्से,
 
 
होते हैं बड़े फिर वह समझते हैं हकीक़त,
 
ज़हनों में मगर रहती है कुछ वैसी ही चाहत।
 
 
इस मौके पे तैयार खडा रहता है पाखण्ड,
 
भगवानो-खुदा, भाग्य और कर्म व क्षमा दंड।
 
 
नाकारा जवानों को लुभाती है कहानी,
 
खोजी को मगर सुन के सताती है कहानी।
 
 
कुछ और वह बढ़ता है तो बनता है नास्तिक,
 
जो बढ़ ही नहीं पारा वह रहता है आस्तिक।
 

Thursday, July 28, 2011

इल्म और लाइल्मी


इल्म और लाइल्मी




मैं ने इक मुल्ला से पूछा,"वाकई क्या है खुदा?"
बोला, "हाँ!हाँ!! हाँ!!!, सौ फ़ीसदी से भी सिवा "




और दे डालीं खुदा के हक़ में इक सौ एक दलील,
एक सौ इक नाम की लेकर उठा फेहरिस्त तवील।




एक साइंस दाँ से दोहराया जो मैंने यह सवाल,
कम सुख़न के वास्ते कुछ भी कहना था मुहाल।




कशमकश में बोला अब तक जो खुदा मौजूद हैं,
सब के सब साबित हुवा है झूट तक महदूद हैं।




हाँ! मगर इम्कानो-अंदेशा2 का मैं 'मुंकिर' नहीं,
हो भी सकता है कहीं पर इक खुदाए ला यकीं।
१-कम वाला 2 संभावनाएं और संशय

Tuesday, July 26, 2011

ग़ज़ल - - - तू है रुक्न अंजुमन का तेरी अपनी एक खू है


तू है रुक्न अंजुमन का, तेरी अपनी एक खू है,
मैं अलग हूँ अंजुमन से, मेरा अपना रंग ओ बू है.
 
वतो इज़जो मन तोशाए, वतो ज़िल्लो मन तोशाए,
जो था शर पे, सुर्ख रू है, बेकुसूर ज़र्द रू है.
 
तेरा दीं सुना सुनाया, है मिला लिखा लिखाया,
मेरे ज़ेहन की इबारत, मेरी अपनी जुस्तुजू है.
 
मुझे खौफ है खुदा का, न ही एहतियात ए शैतान,
नहीं खौफ दोज़खों का, न बेहिश्त आरज़ू है.
 
वोह नहीं पसंद करते जो हैं सर्द मुल्क वाले,
तेरी जन्नतों के नीचे, वो जो बहती अब ए जू है.
 
तेरे ध्यान की ये डुबकी, है सरल बहुत ही ओशो,
कि बहुत सी भंग पी लूँ तो ये पाऊँ तू ही तू है.
*****
* वतो इज़जो मन तोशाए, वतो ज़िल्लो मन तोशाए=खुदा जिसको चाहे इज्ज़त दे,जिसको काहे जिल्लत.

Monday, July 25, 2011

एहसासे कम्तरो!



नज़्म 
ताज़ियाने 


एहसासे कम्तरो तुम, ज़ेहनी गदागरो3तुम,
पैरों में रह के देखा, अब सर में भी रहो तुम।


इनकी सुनो न उनकी, ऐ मेरे दोस्तों तुम,
अपनी खिरद4 की निकली, आवाज़ को सुनो तुम।


दुनिया की गोद में तुम, जन्में थे, बे-ख़बर थे,
ज़ेहनी बलूग़तों5 में, इक और जन्म लो तुम।


अंधे हो गर सदाक़त, कानो से देख डालो,
बहरे हो गर हक़ीक़त, आखों से अब सुनो तुम।


ख़ुद को संवारना है, धरती संवारनी है,
दुन्या संवारने तक, इक दम नहीं रुको तुम।


मैं ख़ाक लेके अपनी, पहुँचा हूँ पर्वतों तक,
ज़िद में अगर अड़े हो, पाताल में रहो तुम।


२-हीनाभासी3-तुच्छाभास ४-बुद्धि ५-बौधिक

Sunday, July 24, 2011

हिन्दी ग़ज़ल


 
तुम जाने किस युग के साथी, साथ मेरे क्यूं आए हो,
सर का भेद नहीं समझे, दाढ़ी-चोटी चिपकाए हो।
 
चमत्कार चतुराई है उसकी, तुम जैसा इंसान है वह,
करके महिमा मंडित उसको, तुम काहे बौराए हो।
 
माथा टेकू मस्तक वालो, यह भी कोई शैली है,
धोती ऊपर टोपी नीचे, इतना शीश नवाए हो।
 
मुझ तक अल्लह यार है मेरा, मेरे संग संग रहता है,
तुम तक अल्लह एक पहेली, बूझे और बुझाए हो।
 
चाहत की नगरी वालो, कुछ थोड़ा सा बदलाव करो,
तुम उसके दिल में बस जाओ, दिल में जिसे बसाए हो।
 
यह चिंतन, यह शोधन मेरे, मेरे ही उदगार नहीं,
अपने मन में इनके जैसा, तुम भी कहीं छुपाए हो।
 
चाँद, सितारे, सूरज, पर्बत, ज़ैतूनो-इन्जीरों की,
मौला! 'मुंकिर; समझ न पाया, इनकी क़समें खाए हो।
१-कुरान में अल्लाह इन चीज़ों की क़समें खा खा कर अपनी बातों का यकीन दिलाता है.
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Wednesday, July 20, 2011

उन्नति शरणम् गच्छामि



नज़्म 

उन्नति शरणम् गच्छामि
 
गौतम था बे नयाज़-अलम1, जब बड़ा हुवा,
महलों की ऐश गाह में, इक ख़ुद कुशी किया।

पैदा हुवा दोबारा, हक़ीक़त की कोख से,
तब इस जहाँ के क़र्ब2 से वह आशना हुवा।

देखा ज़ईफ़3 को तो, हुवा ख़ुद नहीफ़4 वह,
बीमारियों को देख के, बीमार हो गया।

मुर्दे को देख कर तो, वह मायूस यूँ हुवा,
महलों की ऐश गाह से, संन्यास ले लिया।

बीवी की चाहतों से, रुख अपना मोड़ कर,
मासूम नव निहाल को, भी तनहा छोड़ कर,

महलों के क़ैद ख़ानों से, पाता हुवा नजात,
जंगल में जन्म पाया था, जंगल को चल दिया.

असली ख़ुदा तलाश, वह करता रहा वहां,
कोई ख़ुदा मिला न उसे, यह हुवा ज़रूर

वह इन्क़्शाफ़5 सब से बड़े, सच का कर गया,
"दिल में है अगर अम्न, तो समझो खुदा मिला"।

सौ फ़ीसदी था सच, जो यहाँ तक गुज़र गया,
अफ़सोस का मुक़ाम है, जो इसके बाद है,

शहज़ादे के मुहिम की, शुरुआत यूँ हुई,
तन पोशी, घर, मुआश, बतर्ज़े-गदा6 हुई।

दर असल थी मुहिम, हो खुदाओं का सद्दे-बाब 7,
मुहिम-ए-अज़ीम8 थी, कि जो राहें भटक गई,

राहों में इस अज़ीम के जनता निकल पड़ी,
उसने महेल को छोड़ा था और इसने झोपडी।

शीराज़ा9 बाल बच्चों के, घर का बिखर गया,
आया शरण में इसके जो, वह भिक्षु बन गया।

मानव समाज की धुरी, जो डगमगा गई।
मेहनत कशों पे और क़ज़ा10, दूनी हो गई।

काहिल अमल फ़रार, ये हिन्दोस्तां हुवा,
जद्दो-जेहद का देवता, चरणों में जा बसा,

तामीर11 क़ौम के रुके, सदियाँ गुज़र गईं,
'मुंकिर' ख़ुमार बुत का, ये छाया है आज तक,


माज़ी गुज़र गया है,बुरा हाल है बसर।
आबादियों को खाना, न पानी है मयस्सर ,

ज़ेरे सतर गरीबी12, जिए जा रहे हैं हम,
बानी महात्मा की,  पिए जा रहे हैं हम.


१-दुःख से अज्ञान 2 -पीडा ३-बृध ४-कमज़ोर ५-उजागर करना ६-भिखारी की तरह जीवन यापन ७-समाप्त होना ८-महान ९-प्रबंधन १०-मौत ११-रचना १२-गरीबी रेखा

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Tuesday, July 19, 2011

कुदरत का मशविरा


नज़्म 

कुदरत का मशविरा


अध्-जले ऐ पेड़! तू है, उम्र-रफ़्ता0 का शिकार,
कर्बे-गरमा झेलता, तनहा खडा है धूप में,
इब्ने-आदम को है बेचैनी, कि इन हालात में,
ढूँदता फिरता है पगला, मंदिरों-मस्जिद की छाँव।


जानता है तू कि बस ग़ालिब है, क़ुदरत का निज़ाम3,
ज़िन्दगी धरती पे जब, होती है बे बर्गो-समर4,
तब ज़मीं पर बार, बन जाता है हर पैदा शुदा,
है ज़मीं बर हक़, कि ढोने हैं उसे अगले जनम,
तेरे, मेरे, इनके, उनके, गोया हर मख्लूक़5 के।

ऐ शजर! कर तू , जुबां पैदा, बता नादान को,
बस तेरे जैसे मुक़ाबिल, ये भी हों मैदान में,
मत पनाहें ढूँढें अपनी, रूह की बाज़ार में,

नातवानी-ए-ज़ईफी7 का, न हल ढूँढें 'जुनैद',

काट लें बस हौसले से, यह सज़ाए उम्र क़ैद।
 

0-जरा-वस्था १-गर्मी की पीड़ा 3-आदम की औलाद ३-व्यवस्था ४-पत्ते एवं फल रहित ५ प्राणी वर्ग ६-पेड़ ७-बुढ़ाप काल

Monday, July 18, 2011

छीछा लेदर

छीछा लेदर


ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी,
भए न्याय के सब अधिकारी।

इन सब को अपराधी जान्यो,
सभै की मौन समाधि जान्यो।

निर्बल जीव को पापी संजयो,
ताड़क को परतापी समझयो।

इनके मूडे सींग उग आई,
इनके मार से कौन बचाई?

गंवरा भए शहर के बासी,
न्याय धीश हैं चमरा पासी।

पशुअन तक सनरक्षन पाइन,
सवरण जान्यो जनम गंवाइन।

नारी माँ बेटी बन बनयाई,
तुलसी बाबा राम दुहाई।

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Saturday, July 16, 2011

ग़ज़ल - - - अपने घरों में मंदिर ओ मस्जिद बनाइए



अपने घरों में मंदिर ओ मस्जिद बनाइए,
अपने सरों पे धर्म और मज़हब सजाइए.
 
उस सब्ज़ आसमान के नीचे न जाइए,
इस भगुवा कायनात से खुद को बचाइए.
 
सड़कों पे हो नमाज़ न फुट पथ पर भजन,
जो रह गुज़र अवाम है, उस पर न छाइए.
 
बचिए ज़ियारतों से, दर्शन की दौड़ से,
थोडा वक़्त बैठ के खुद में बिताइए.
 
परिक्रमा और तवाफ़ के हासिल पे गौर हो,
मत ज़िन्दगी को नक़ली सफ़र में गंवाइए.
 
बच्चों का इम्तेहान है, बीमार घर पे हैं,
मीलाद ओ जागरण के ये भोपू हटाइए.
 
अरबों की सर ज़मीन है जंगों से बद नुमा,
"मुंकिर" वतन की वादियों में घूम आइए.
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Friday, July 15, 2011

मशविरे


नज़्म 

मशविरे 
छोड़ो पुरानी राहें, सभी हैं गली हुई,
राहें बहुत सी आज भी, हैं बे चली हुई।

महदूद1 मोहमिलात में, क्यूं हो फंसे हुए,
ढूँढो जज़ीरे आज भी हैं, बे बसे हुए।

ऐ नौ जवानो अपना, नया आसमां रचो,
है उम्र अज़्मो-जोश की, संतोष से बचो।

कोहना रिवायतों4 की, ये मीनार तोड़ दो,
धरती पे अपनी थोडी सी, पहचान छोड़ दो।

धो डालो इस नसीब को, अर्क़े जबीं से तुम,
अपने हुक़ूक़ लेके ही मानो ज़मीं से तुम।

फ़रमान हों ख़ुदा के, कि इन्सान के नियम,
इन सब से थोड़ा आगे, बढ़ाना है अब क़दम।
 
१ -सीमित २ -अर्थ -हीन ३- उत्साह ४ -पुराणी मान यातें ५ -माथे का पसीना ६ -अधिकार .

Tuesday, July 12, 2011

ग़ज़ल - - - मुतलेआ करे चेहरों का चश्मे नव खेजी


ग़ज़लमुतलेआ करे चेहरों का चश्मे नव खेजी,

छलक न जाए कहीं यह शराब ए लब्रेजी. 




हलाकतों पे है माइल निजामे चंगेजी,

तरस न जाए कहीं आरजू ए खूँ रेजी.




अगर है नर तो बसद फ़िक्र शेर पैदा कर,

मिसाले गाव, बुज़, ओ खर है तेरी ज़र खेज़ी.




तू अपनी मस्त खरामी पे नाज़ करती फिर,

लुहा, लुहा से न डर, ए जबाने अंग्रेजी. 





नए निज़ाम के जानिब क़दम उठा अपने,

ये खात्मुन की सदा छोड़ कर ज़रा तेजी.




बचेगी मिल्लत खुद बीं की आबरू "मुंकिर",

अगर मंज़ूर हूँ मंसूर शम्स ओ तबरेज़ी.






*****
१ अध्ययन २-किशोरी चितवन ३-ध्यानाकर्षित ४-सैकड़ा ५- गे, बकरी,गधे ६-व्यावस्था ७-आखिरी ८- स्यंभू ९- दो संत मंसूर और तबरेज़

Sunday, July 10, 2011

बड़ा सलाम


नज़्म 

बड़ा सलाम 
जिंदगी इतनी क़ीमती भी नहीं,
यार कि जितना तुम समझते हो।




यह रवायत1 के नज़्र होती है,
आधी जगती है, आधी सोती है।




तन का ढकना है, पेट का भरना,
धर्म ओ मज़हब के, घास को चरना।



यह कभी क़र्ब से गुज़रती है,
कभी काटे नहीं, ये कटती है।




इसका अपना कोई निशाना हो,
ज़िन्दगी जश्न हो, तराना हो।




इसको मौके पे काम आने दो,
जंगे-हक़ पर महाज़ पाने दो।



इसका अंजाम बालातर आए,
आख़िरी वक़्त में निखर जाए।



सच का एलान, कर के मर जाओ,
आख़िरी वक़्त में, संवर जाओ।



मियां 'मुंकिर' ज़रा सा काम करो,
ज़िंदगी को बड़ा सलाम करो।
 

१-कही सुनी बातें २-पीडा ३-सच्ची लडाई ४-मोर्चा ५-श्रेष्ट
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Saturday, July 9, 2011

शक बहक


नज़्म 

शक बहक




यकीं बहुत कर चुके हो यारो ,
इक मरहला1 है गुमाँ 2को समझो ।



यकीं है अक्सर तुम्हारी गफ़लत ,
खिरद 3के आबे- रवां को समझो ।



अक़ीदतें और आस्थाएँ ,
यकीं की धुंधली सी रह गुज़र 4हैं ।



ख़रीदती हैं यह सादा लौही 5,
यकीं की नाक़िस दुकाँ को समझो ।

१-पड़ाव २-अविश्वाश का उचित मार्ग ३-अक्ल ४-सरल स्वभाव ५-हानि करक



Wednesday, July 6, 2011

मैं ? मैं ----




नज़्म 


मैं ----


सदियों की काविशों1 का ये रद्दे अमल2 हूँ मैं ,
लाखों बरस के अज़्म ए मुसलसल3 का फल हूँ मैं ।



हालाते ज़िंदगी ने मुझे, नज़्म4 कर दिया ,
फ़ितरत5 के आईने में, वगरना ग़ज़ल6 हूँ मैं।



मेयारे आम7 होगा कि, जिस के हैं सब असीर8 ,
हस्ती है मेरी अपनी, ख़ुद अपना ही बल हूँ मैं ।



उक़्दा कुशाई9 मेरी, ढलानों पे मत करो ,
थोड़ा सा कुछ फ़राज़10 पे, आओ तो हल हूँ मैं ।



ये तुम पे मुनहसर है, मुझे किस तरह छुओ ,
पत्थर की तरह सख्त, तो कोमल कमल हूँ मैं ।



मुझ को क़सम है रुक्न,हुक़ूक़ुल  इबाद11 की ,
ज़मज़म12 सा पाक साफ़ हूँ, और गंगा जल हूँ मैं ।



इंसानियत से बढ़ के, मेरा दीन कुछ नहीं ,
सच की तरह ज़मीन पर, एकदम अटल हूँ मैं ।



दैर-ओ-रसन का खौफ़, मुनाफ़िक़ की ख़ू नहीं ,
मैं हूँ खुली किताब, बबांगे दुहल14 हूँ मैं ।



मैं कुछ अज़ीम लोगों का, सजदा न कर सका ,
उनकी ही पैरवी में, मगर बा अमल हूँ मैं ।



'मुंकिर' को कोई ज़िद है न कोई जूनून है ,
लाओ किताबे सिदक़15 तो देखो रेहल16 हूँ में ।




१-प्रय्तानो २-प्रतिक्रया ३-लगातार उत्साह ४-शीर्षक अधीन कविता ५-प्रकृति ६-प्रेमिका से वरत्लाप ७-मध्यम अस्तर ८-कैद ९-गाठे खोलना १०-ऊंचाई ११-बन्दों का अधिकार १२-मक्के का जल १३-दोगुला १४-डंके की चोट १५-सच्ची किताब १६-किताब पढने का स्टैंड
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शक के मोती


नज़्म


शक के मोती


शक जुर्म नहीं ,शक पाप नहीं ,शक ही तो इक पैमाना है ,
विश्वाश में तुम लुटते हो सदा ,विश्वाश में कब तक जाना है ।


शक लाज़िम है भगवान व खुदा पर जिनकी सौ दूकानें हैं ,
औतार पयम्बर पर शक हो ,जो ज़्यादा तर अफ़साने1हैं ।


शक हो सूफ़ी सन्यासी पर जो छोटे ख़ुदा बन बैठे हैं ,
शक फूटे धर्म ग्रंथों पर, फ़ासिक़ हैं दुआ बन बैठे हैं ।


शक पनपे धर्म के अड्डों पर, जो अपनी हुकूमत पाये हैं ,
जो पिए हैं खून की गंगा जल ,जो माले ग़नीमत3 खाए हैं ।

शक थोड़ा सा ख़ुद पर भी हो, मुझ पर कोई ग़ालिब तो नहीं ?
जो मेरा गुरू बन बैठा है, वह बदों का ग़ासिब तो नहीं ?

शक के परदे हट जाएँ तो 'मुंकिर' हक़ की तस्वीर मिले ,
क़ौमों को नई तालीम मिले ,ज़ेहनों को नई तासीर मिले ।

१-कहानी २- मिठिया ३-युद्ध में लूटी सम्पत्ति ४-विजई ५ -अप्भोगी ६-सत्य

Monday, July 4, 2011

नज़्म


नज़्म 

अपील


लिपटे- लिपटे सदियाँ गुज़रीं वहेम् की इन मीनारों से ,


मन्दिर ,मस्जिद ,गिरजा ,मठ और दरबारी दीवारों से ,


अन्याई उपदेशों से और कपट भरे उपचारों से ,


दोज़ख़, जन्नत की कल्पित, अंगारों, उपहारों से ।



बहुत अनोखा जीवन है ये, इन पर मत बरबाद करो ,


माज़ी के हैं मुर्दे ये सब , इनको मुर्दाबाद करो ,


इनका मंतर उनका छू, निज भाषा में अनुवाद करो ।


निजता का काबा काशी, निज चिंतन में आबाद करो.