Friday, December 23, 2011

गज़ल - - - यादे माज़ी को तो बेहतर है भुलाए रखिए


 
यादे माज़ी को तो बेहतर है भुलाए रखिए,
हाल शीशे का है, पत्थर से बचे रखिए।
 
दोस्ती, यारी, नज़रियात, मज़ाहिब, हालात,
ज़हन ओ दिल पे न बहानों को बिठाए रखिए।
 
मैं फ़िदा आप पे कैसे जो बराबर हैं सभी,
ऐ मसावती मुजाहिद! मुझे पाए रखिए।
 
सात पुश्तों से खजाना ये चला आया है,
सात पुश्तों के लिए माँ इसे ताए रखिए।
 
आबला पाई भुला बैठी है राहें सारी,
आप कुछ रोज़ चरागों को बुझाए रखिए।
 
सच की किरणों से जहाँ में लगे न आग कहीं,
आतिशे दिल अभी "मुंकिर" ये बुझाए रखिए।
*****

Wednesday, December 14, 2011

ग़ज़ल - - - वोह जब करीब आए



 
वोह जब करीब आए ,
 
इक खौफ़ दिल पे छाए।


 
जब प्यार ही न पाए,
 
महफिल से लौट आए।


 
दिन रात गर सताए,
 
फ़िर किस तरह निंभाए?

 
इस दिल से निकली हाय!
 
अब तू रहे की जाए।


 
रातों की नींद खो दे,
 
गर दिन को न सताए।


 
ताक़त है यारो ताक़त,
 
गर सीधी रह पाए।
 


है बैर भी तअल्लुक़
 
दुश्मन को भूल जाए।

 
हो जा वही जो तू है,
 
होने दे हाय, हाय।
 


इकरार्यों का काटा,
 
"मुंकिर" के पास आए.

 
*****

Thursday, December 8, 2011

हिन्दी ग़ज़ल - - - मन को लूटे धर्म की दुन्या , धन को लूटे नेता


मन को लूटे धर्म की दुन्या , धन को लूटे नेता,
देश को लूटे नौकर शाही, गुंडा इज्ज़त लेता।
 
आटोमेटिक प्रोडक्शन है, श्रम को कोई न टेता,
तन लूटे सरमायादारी,जतन को घूस का खेता।
 
चैन की सांस प्रदूषण लूटे, गति लूटे अतिक्रमण,
उन्नत भक्षी जन संख्या ने अपना गला ही रेता।
 
प्रतिभा देश से करे पलायन सिस्टम को गरियाती,
आरक्षन का कोटा सब को दूध भात है देता।
 
प्रदेशिकता देश को बाटे, कौम को जाति बिरादर,
भारत माता भाग्य को रोए, कोई नहीं सुचेता।
 
सब के मन का चोर है शंकित, मुंह देखी बातें हैं,
"मुंकिर" शब्द का लहंगा चौडा, मन का घेर सकेता।
*****
ग़ज़ल - - - वोह जब करीब आए

Wednesday, December 7, 2011

ग़ज़ल - - - है कैसी कशमकश ये, कैसा या वुस्वुसा है


 
है कैसी कशमकश ये, कैसा या वुस्वुसा है,
यकसूई चाहता है, दो पाट में फँसा है।
 
दिल जोई तेरी की थी, बस यूँ ही वह हँसा है,
दिलबर समझ के जिस को तू छूने में लसा है।
 
बकता है आसमा को, तक तक के मेरी सूरत,
पागल ने मेरा बातिन, किस जोर से कसा है।
 
सच बोलने के खातिर दो आँख ही बहुत थीं,
अल्फाज़ चुभ रहे हैं, आवाज़ ने डंसा है।
 
कैसी है सीना कूबी? भूले नहीं हो अब तक,
बहरों का फासला था, सदियों का हादसा है।
 
है वादियों में बस्ती, आबादी साहिलों पर,
देखो जुनून ए "मुंकिर" गिर्दाब में बसा है.
*****

*बातिन=अंतरात्मा *सीना कूबी=मातम *बहरों=समन्दरों *गिर्दाब=भंवर

Saturday, December 3, 2011

gazal - - - सुकून क़ल्ब को दिल की हसीं परी तो मिले


सुकूने क़ल्ब को, दिल की हसीं परी तो मिले,
तेरे शऊर को इक हुस्ने दिलबरी तो मिले.
 
नफ़स नफ़स की बोखालत को ख़त्म कर देंगे,
तेरे निज़ाम में पाकीज़ा रहबरी तो मिले.
 
केनाआतें तेरी तुझ को सुकूं भी देदेंगी,
कि तुझ को सब्र बशकले कलंदरी तो मिले.
 
जेहाद अब नए मानो को ले के आई है.
तुम्हें ''सवाब ओ गनीमत'' से बे सरी तो मिले.
 
वहाँ पे ढूँढा तो बेहतर न कोई बरतर था,
फरेब खुर्दाए एहसास बरतरी तो मिले.
 
तू एक रोज़ बदल सकता है ज़माने को,
ख़याल को तेरे 'मुंकिर" सुखनवरी तो मिले.
*****
*बोखालत=कंजूसी *केनाआतें=संतोष *कलंदरी=मस्त-मौला *''सवाब ओ गनीमत'' =पुण्य एवं लूट-पाट*सुखनवरी=वाक्-पुटता.

Wednesday, November 30, 2011

ग़ज़ल - - - खिरद का मशविरा है, ये की अब अबस निबाह है



खिरद का मशविरा है, ये की अब अबस निबाह है,
दलीले दिल ये कह रही है, उस में उसकी चाह है.
 
मुकाबले में है जुबान कि क़दिरे कलाम है,
सलाम आइना करे है, कि सब जहाँ सियाह है.
 
ज़मीर की रज़ा है गर, किसी अमल के वास्ते,
बहेस मुबाहसे जनाब, उस पे ख्वाह मख्वाह है.
 
लहू से सींच कर तुम्हारी खेतियाँ अलग हूँ मैं,
किसी तरह का मशविरह, न अब कोई सलाह है.
 
नदी में तुम रवाँ दवां, कभी थे मछलियों के साथ,
बला के दावेदार हो, समन्दरों की थाह है.
 
तलाश में वजूद के ये, ज़िन्दगी तड़प गई,
फुजूल का ये कौल है कि चाह है तो रह है.
*****

*खिरद=विवेक * अबस व्यर्थ *क़दिरे कलाम =भाषाधिकार

Friday, November 25, 2011

ग़ज़ल - - - ये तसन्नो में डूबा हुवा प्यार है


 
 
ये तसन्नो में डूबा हुवा प्यार है,
क्या कोई चीज़ फिर मुफ़्त दरकार है.
 
 
फैली रूहानियत की वबा क़ौम में,
जिस्म मफ़्लूज है, रूह बीमार है.
 
 
नींद मोहलत है इक, जागने के लिए,
जाग कर सोए तो नींद आज़ार है.
 
 
बुद्धि हाथों पे सरसों उगाती रही,
बुद्धू कहते रहे ये चमत्कार है.
 
 
मुज़्तरिब हर तरफ़ सीधी जमहूर है,
मुन्तखिब की हुई किसकी सरकार है.
 
 
बाँटता फिर रहा है वो पैगामे मौत,
भीड़ साकित है, जैसे तलबगार है.
 
 
एक झटके में जोगी कहीं जा के मर,
क़िस्त में मौत तेरी ये बेकार है.
 
 
हों न "मुंकिर" इबारत ये उलटी सभी,
ले के आ आइना, वोह मदद गार है.
*****

*आज़ार=रोग *मुज़्तरिब=बेचैन *मुन्तखिब=चुनी हुई.

Sunday, November 20, 2011

हिंदी ग़ज़ल - - - ला इल्मी का पाठ पढाएँ अन पढ़ मुल्ला योगी


 
ला इल्मी का पाठ पढाएँ, अन पढ़ मुल्ला योगी,
दुःख दर्दों की दवा बताएँ खुद में बैठे रोगी.
 
 
तन्त्र मन्त्र की दुन्या झूठी, बकता भविश्य अयोगी,
अपने आप में चिंतन मंथन सब को है उपयोगी.
 
 
आँखें खोलें, निंद्रा तोडें, नेता के सहयोगी,
राम राज के सपन दिखाएँ सत्ता के यह भोगी.
 
 
बस ट्रकों में भर भर के ये भेड़ बकरियां आईं,
ज़िदाबाद का शोर मचाती नेता के सहयोगी.
 
 
पूतों फलती, दूध नहाती रनिवास में रानी,
अँधा रजा मुकुट संभाले, मारे मौज नियोगी.
 
 
"मुकिर' को दो देश निकला, चाहे सूली फांसी,
दामे, दरमे,क़दमे, सुखने, चर्चा उसकी होगी.
*****
दामे,दरमे,क़दमे,सुखने=हर अवसर पर

Friday, November 4, 2011

ग़ज़ल - - - जब से हुवा हूँ बे गरज़, शिकवा गिला किया नहीं


जब से हुवा हूँ बे गरज़, शिकवा गिला किया नहीं,
कोई यहाँ बुरा नहीं, कोई यहाँ भला नहीं.
 
 
अपने वजूद से मिला तो मिल गई नई सेहर,
माज़ी को दफ़्न कर दिया, यादों का सिलसिला नहीं.
 
 
पुख्ता निज़ाम के लिए, है ये ज़मीं तवाफ़ में,
जीना भी इक उसूल है दिल का मुआमला नहीं.
 
 
बख्शा करें ज़मीन को, मानी मेरे नए अमल,
मेरे लिए रिवाजों का, कोई काफ़िला नहीं.
 
 
ज़ेहनों के सब रचे मिले, सच ने कहाँ रचा इन्हें,
ढूँढा किए खुदा को हम, कोई हमें मिला नहीं.
 
 
थोडा सा और चढ़ के आ, हस्ती का यह उरूज है,
कोई भी मंजिले न हों, कोई मरहला नहीं.
 
*****

Friday, October 28, 2011

ग़ज़ल - - -कभी कभी तो मुझे तू निराश करता है


कभी कभी तो मुझे तू निराश करता है,
मेरे वजूद में खुद को तलाश करता है.
 
मेरे वजूद का खुद अपना एक परिचय है,
सुधारता नहीं तू इस को लाश करता है.
 
किसी इलाके के थोड़े विकास के खातिर,
बड़ी ज़मीन का तू सर्वनाश करता है.
 
मैं होश में हूँ हजारों कटार के आगे,
तुहारे हाथ का कंकड़ निराश करता है.
 
निसार जाँ से तेरी इस लिए अदावत है,
तेरे खुदाओं का वोह पर्दा फाश करता है.
 
नशा हो शक्ति का या हो शराब का 'मुंकिर" ,
नशे की शान है वोह सर्व नाश करता है.
*****

Saturday, October 22, 2011

ग़ज़ल - - - गफलतों की इजाज़त नहीं है


 
गफलतों की इजाज़त नहीं है?

ये तो सच्ची इबादत नहीं है.
 
 
कडुई सच्चाइयाँ हैं सुनाऊं?
मीठे झूटों की आदत नहीं है.
 
 
चित तुम्हारी है पट भी तुम्हारी,
भाग्य लिक्खे में गैरत नहीं है.
 
 
छोड़ कर बाल बच्चों को बैठे,
सन्त जी ये शराफ़त नहीं है.
 
 
दुःख न पहुँचाओ तुम हर किसी को,
सुख जो देने की वोसअत नहीं है.
 
 
रोग अपना ज़ियाबैतिशी है,
अब कोई शै भी नेमत नहीं है.
 
 
हों वो पत्थर के या फिर हवा के,
इन बुतूं में हकीक़त नहीं है.
 
 
ये हैं "मुंकिर" में फूटी निदाएँ,
आसमानों की हुज्जत नहीं है.
*****

Monday, October 17, 2011

ग़ज़ल - - - तरस न खाओ मुझे प्यार कि जरूरत है


तरस न खाओ मुझे प्यार कि जरूरत है,
मुशीर कार नहीं यार कि ज़रुरत है.
 
तुहारे माथे पे उभरे हैं सींग के आसार,
तुम्हें तो फ़तह नहीं हार की ज़रुरत है.
 
कलम कि निब ने कुरेदा है ला शऊर तेरा,
जवाब में कहाँ तलवार की ज़रुरत है.
 
अदावतों को भुलाना भी कोई मुश्क़िल है,
दुआ, सलाम, नमस्कार की ज़रुरत है.
 
शुमार शेरों का होता है, न कि भेड़ों का,
कसीर कौमों बहुत धार की ज़रुरत है.
 
तुम्हारे सीनों में आबाद इन किताबों को,
बस एक "मुंकिर" ओ इंकार कि ज़रुरत है.
*****

Thursday, October 13, 2011

ग़ज़ल - - - मोहलिक तरीन रिश्ते निभाए हुए थे हम



मोहलिक तरीन रिश्ते निभाए हुए थे हम,
बारे गराँ को सर पे उठाए हुए थे हम.


खामोश थी ज़ुबान की अल्फाज़ ख़त्म थे,
लाखों गुबार दिल में दबाए हुए थे हम.


ठगता था हम को इश्क, ठगाता था खुद को इश्क,
कैसा था एतदाल कि पाए हुए थे हम.


गहराइयों में हुस्न के कुछ और ही मिला,
न हक वफ़ा को मौज़ू बनाए हुए थे हम.


उसको भगा दिया कि वोह कच्चा था कान का,
नाकों चने चबा के अघाए हुए थे हम.


सब से मिलन का दिन था, बिछड़ने की थी घडी,
"मुंकिर" थी क़ब्रगाह की छाए हुए थे हम,
*****

*मोहलिक तरीन =हानि कारक *बारे गराँ=भारी बोझ *एतदाल=संतुलन *मौज़ू=विषय.

Friday, October 7, 2011

ग़ज़ल - - - जितना बड़ा है क़द तेरा उतना अजीम है


जितना बड़ा है क़द तेरा उतना अजीम है,
ऐ पेड़! तू भी राम है तू भी रहीम है.
 
ईमान दार लोगों के ज़ानों पे रख के सर,
बे खटके सो रहे हो ये अक़्ले सलीम है.
 
तेरह दिलों की धड़कनें, तेरह दलों का बल,
जम्हूर का मरज़ ये वबाल ए हकीम है.
 
अलकाब में आदाब के अम्बार मत लगा,
बालाए ताक कर इसे, क़द्रे क़दीम है.
 
खून का लिखा हुवा मेरा दिल में उतार लो,
ये आसमानी कुन, न अलिफ़,लाम, मीम है.
 
"मुंकिर"खिला रहा है जो कडुई सी गोलियां,
इंकार की दवा है, ये तासीर नीम है.
*****

Sunday, October 2, 2011

ग़ज़ल - - - आप वअदों की हरारत को कहाँ जानते हैं


आप वअदों की हरारत को कहाँ जानते हैं.
हम जो रखते हैं वह पत्थर की ज़ुबान जानते हैं.
 
पुरसाँ हालों को बताते हुए मेरी हालत,
मुस्कुराते हैं, मेरा दर्दे निहाँ निहाँ जानते हैं.
 
क़ौम को थोडी ज़रुरत है मसीहाई की,
आप तो बस की फने तीर ओ कमाँ जानते हैं.
 
नंगे सर, नंगे बदन उनको चले आने दो,
वोह अभी जीने के आदाब कहाँ जानते हैं.
 
नहीं मअलूम किसी को कि कहाँ है लादेन,
सब को मअलूम है कि अल्लाह मियाँ जानते हैं.
 
न तवानी की अज़ीयत में पड़े हैं "मुंकिर",
है बहारों का ये अंजाम खिजां जानते हैं.
*****
*मसीहाई=मसीहाई*न तवानी=दुर्बलता* अज़ीयत=कष्ट

Monday, September 19, 2011

ग़ज़ल - - -ये जम्हूरियत बे असर है


ये जम्हूरियत बे असर है,
संवारे इसे, कोई नर है?
 
बहुत सोच कर खुद कशी कर,
किसी का तू नूरे नज़र है.
 
दिखा दे उसे क़ौमी दंगे,
सना ख्वान मशरिक किधर हैं.
 
बहुत कम है पहचान इसकी,
रिवाजों में डूबा बशर है.
 
नहीं बन सका फर्द इन्सां,
कहाँ कोई कोर ओ कसर है.
 
है ऊपर न जन्नत, न दोज़ख,
खला है, नफ़ी है, सिफ़र है.
 
इबादत है रोज़ी मशक्क़त,
अजान ए कुहन पुर ख़तर है.
 
ये सोना है जागने की मोहलत,
जागो! ज़िन्दगी दांव पर है.
 
है तकलीद बेजा ये "मुंकिर",
तेरे जिस्म पर एक सर है.
*****
*जम्हूरियत=गण-तन्त्र *नूरे नज़र=आँख का तारा *सना ख्वान मशरिक=पूरब का गुण-गण करने वाले*खला, नफ़ी=क्षितिज एवं शून्य * तकलीद=अनुसरण
.

Thursday, September 15, 2011

ग़ज़ल


सुब्ह फिर शुरू हुई है, आँखें फिर हुई न हैं नम,
चल गरानी ए तबअ, सर पे रख के अपने गम.
 
नेमतें हज़ार थीं, इक खुलूस ही न था,
तशना रूह हो गई, भर गया था जब शिकम.
 
बे यकीन लोग हैं उन सितारों की तरह,
टिमटिमा रहे हैं कुछ और दिख रहे है कम.
 
उँगलियाँ थमा दिया था मैं ने उस कमीन को,
कर के मुझको सीढयाँ, सर पे रख दिया क़दम.
 
कहर न गज़ब है वह, फितरी वाक़ेआत हैं,
तुम मुकाबला करो, वोह है माइले सितम.
 
राज़दार हो चुका है, कायनात का जुनैद,
जुज़्व बे बिसात था, कुल में हो गया है ज़म..
*****

Saturday, September 10, 2011

ग़ज़ल - - - बडी कोताहियाँ जी लीं, बड़ी आसानियाँ जी लीं

बडी कोताहियाँ जी लीं, बड़ी आसानियाँ जी लीं,
कि अब जीना है फितरत को बहुत नादानियाँ जी लीं.


तलाशे हक में रह कर अपनी हस्ती में न कुछ पाया,
कि आ अब अंजुमन आरा! बहुत तन्हाईयाँ जी लीं.


जवानी ख्वाब में बीती, ज़ईफी सर पे आ बैठी,
हकीक़त कुछ नहीं यारो की बस परछाइयाँ जी लीं.


मेरी हर साँस मेरे हाफ्ज़े से मुन्क़ते कर दो,
कि बस उतनी ही रहने दो कि जो रानाइयाँ जी लीं.


जो घर में प्यार के काबिल नहीं, तो दर गुज़र घर है,
बहुत ही सर कशी झेलीं, बहुत ही खामियाँ जी लीं.


तआकुब क्या तजाऊज़ कुछ खताएँ कर रहीं "मुंकिर",
इन्हें रोको की कफ्फारे की हमने सख्तियाँ जी लीं.
*****

*फितरत=प्रक्रिति *हक=खुदा * हाफ्ज़े=स्मरण *मुन्क़ते=विच्छिन *तआकुब=पीछा करना *तजाऊज़=उल्लंघन *कफ्फारे=प्राश्यचित

Wednesday, August 31, 2011

ग़ज़ल - - - यह गलाज़त भरी रिशवत


यह गलाज़त भरी रिशवत,
लग रहा खा रहे नेमत.
 
बैठी कश्ती पे माज़ी के,
फँस गई है बड़ी उम्मत.
 
कुफ्र ओ ईमाँ का शर लेके,
जग में फैला दिया नफरत.
 
सर कलम कर दिए कितने,
लेके इक नअरा ए वहदत.
 
सर बुलंदी हुई कैसी?
आप बोया करें वहशत.
 
धर्म ओ मज़हब हो मानवता,
रह गई एक ही सूरत.
 
माँ ट्रेसा बनीं नोबुल,
खिदमतों से मिली अज़मत.
 
हो गया हादसा आखिर,
हो गई थी ज़रा हफ्लत.
 
खा सका न वोह 'मुंकिर",
खा गई उसे है उसे दौलत.
*****
*माज़ी= अतीत *उम्मत=मुस्लमान *शर=बैर *वहदत=एकेश्वर

Monday, August 29, 2011

ग़ज़ल - - - हम घर के हिसरों का सफ़र छोड़ रहे हैं




हम घर के हिसारों का सफ़र छोड़ रहे हैं,
दुन्या भी ज़रा देख लें, घर छोड़ रहे हैं.
 
मन में बसी वादी का पता ढूंढ रहे हैं,
तन का बसा आबाद नगर छोड़ रहे है.
 
जाते हैं कहाँ पोंछ के माथे का पसीना?
लगता है कोई कोर कसर छोड़ रहे हैं.
 
फिर वाहिद ए मुतलक की वबा फैल रही है,
फिर बुत में बसे देव शरर छोड़ रहे हैं.
 
सर मेरा कलम है कि यूं मंसूर हुवा मैं,
"जुंबिश" को हवा ले उडी, सर छोड़ रहे हैं.
 
है सच की सवारी पे ही मेराज मेरा यह,
"मुंकिर" नहीं जो 'उनकी' तरह छोड़ रहे हैं.
*****

*हिसारों=घेरा *वाहिद ए मुतलक=एकेश्वरवाद यानि इसलाम *शरर=लपटें *.

Saturday, August 27, 2011

ग़ज़ल - - - इस्तेंजाए खुश्क की इल्लत में लगे हैं




इस्तेंजाए खुश्क की इल्लत में लगे हैं,
वह बे नहाए धोए तहारत में लगे हैं.#
 
मीरास की बला ये बुजुर्गों से है मिली,
तामीर छोड़ कर वह अदावत में लगे हैं.
 
वह गिर्द मेरे अपनी गरज ढूँढ रहा है,
हम बंद किए आँख मुरव्वत में लगे हैं.
 
दोनों को सर उठाने की फुर्सत ही नहीं है,
खालिक से आप, हम है कि खिल्क़त से लगे हैं.
 
तन्हाई चाहता हूँ तड़पने के लिए मैं,
ये सर पे खड़े मेरी अयादत में लगे हैं.
 
"मुंकिर" ने नियत बांधी है अल्लाह हुअक्बर,
फिर उसके बाद आयते गीबत में लगे हैं.$
*****
# इस शेर का मतलब किसी मुल्ला से दरयाफ्त करें.*मीरास=पैत्रिक सम्पत्ति *तामीर=रचनात्मक कार्य *खालिक=खुदा *अयादत =पुरसा हाली $=कहते हैं की नमाज़ पढ़ते समय शैतान विचारो में सम्लित हो जाता है.

Wednesday, August 24, 2011

ग़ज़ल


आज़माने की बात करते हो,
 
दिल दुखाने की बात करते हो।
 
 
 
उसके फ़रमान में सभी हल हैं,
 
किस फ़साने की बात करते हो।
 
 
 
मुझको फुर्सत मिली है रूठों से,
 
तुम मनाने की बात करते हो।
 
 
ऐसी मैली कुचैली गंगा में,
 
तुम नहाने की बात करते हो।
 
 
"मेरी तकदीर का लिखा सब है,"
 
मार खाने की बात करते हो।
 
 
झुर्रियां हैं जहाँ कुंवारों पर ,
 
उस घराने की बात करते हो।
 
 
हाथ 'मुंकिर' दुआ में फैलाएं,
 
क़द घटाने की बात करते हो।

Wednesday, August 17, 2011

ग़ज़ल ------साफ़ सुथरी सी काएनात मिले

साफ़ सुथरी सी काएनात मिले, 

तंग जेहनो से कुछ नजात मिले।


संस्कारों में धर्म और मज़हब,

न विरासत में जात, पात मिले। 

   

आप की मजलिसे मुक़द्दस1 में,

सिर्फ़ फितनों के कुछ नुक़ात2 मिले।  


तुझ से मिल कर गुमान होता है,

बस की जैसे खुदा की ज़ात मिले।


उलझी गुत्थी है सांस की गर्दिश,  

एक सुलझी हुई हयात मिले।   


हर्फे-आखीर हैं तेरी बातें,   

इस में ढूंडा कि कोई बात मिले।       


१-सदभाव-सभा २-षड़यंत्र-सूत्र

Saturday, August 13, 2011

ग़ज़ल - - -बहुत दुखी है जीता है वह बस केवल अभिलाषा में


बहुत दुखी है जीता है वह बस केवल अभिलाषा में,
सांस ऊपर की आशा में ले, नीचे जाए निराशा में.
 
बड़ी तरक्की की है उसने लोगों की परिभाषा में,
पाप कमाया मन मन भर और पुन्य है तोला माशा में.
 
अय्याशी में कटी जवानी, पाल न पाए बच्चों को,
अंत में गेरुवा बस्तर धारा, पल जाने की आशा में.
 
महशर के इन हंगामों को मेरे साथ ही दफ़ना दो,
अमल ने सब कुछ खोया पाया, क्या रक्खा है लाशा में.
 
ज्ञानी, ध्यानी, आलिम, फ़ाजिल, श्रोता गण की महफ़िल में,
"मुंकिर" अपनी ग़ज़ल सुनाए टूटी फूटी भाषा में.
*****

Tuesday, August 9, 2011

ग़ज़ल - - - तुम भी अवाम की ही तरह डगमडा गए


 
तुम भी अवाम की ही तरह डगमडा गए,
मेरे यकीं के शीशे पे पत्थर चला गए.
 
 
घायल अमल हैं और नज़रिया लहू लुहान,
तलवार तुम दलीलों की ऐसी चला गए.
 
 
मफरूज़ा हादसात तसुव्वुर में थे मेरे,
तुम कार साज़ बन के हक़ीक़त में आ गए.
 
 
पोशीदा एक डर था मेरे ला शऊर में,
माहिर हो नफ़्सियात के चाकू थमा गए.
 
 
भेड़ों के साथ साथ रवाँ आप थे जनाब,
उन के ही साथ गिन जो दिया तिलमिला गए.
 
 
खुद एतमादी मेरी खुदा को बुरी लगी,
सौ कोडे आ के उसके सिपाही लगा गए.
*****
*मफरूज़ा=कल्पित *कार साज़=सहायक *ला शऊर=अचेतन मन *नफ़्सियात=मनो विज्ञानं *खुद एतमादी=आत्म विश्वास

Monday, August 8, 2011

ग़ज़ल - - - अपने घरों में मंदिर ओ मस्जिद बनाइए


अपने घरों में मंदिर ओ मस्जिद बनाइए,
अपने सरों पे धर्म और मज़हब सजाइए.

उस सब्ज़ आसमान के नीचे न जाइए,
इस भगुवा कायनात से खुद को बचाइए.

सड़कों पे हो नमाज़ न फुट पथ पर भजन,
जो रह गुज़र अवाम है, उस पर न छाइए.

बचिए ज़ियारतों से, दर्शन की दौड़ से,
थोडा वक़्त बैठ के खुद में बिताइए.

परिक्रमा और तवाफ़ के हासिल पे गौर हो,
मत ज़िन्दगी को नक़ली सफ़र में गंवाइए.

बच्चों का इम्तेहान है, बीमार घर पे हैं,
मीलाद ओ जागरण के ये भोपू हटाइए.

अरबों की सर ज़मीन है जंगों से बद नुमा,
"मुंकिर" वतन की वादियों में घूम आइए.
*****

Saturday, August 6, 2011

ghazal जहान ए अर्श का बन्दा है, बार ए अन्जुमन होगा,


जहान ए अर्श का बन्दा है, बार ए अन्जुमन होगा,
मसाइल पेश कर देगा, नशा सारा हिरन होगा.
 
मुझे दो गज़ ज़मीन देदे अगर शमशान में अपने,
मज़ार ए यार पे अर्थी जले तेरी, मिलन होगा.
 
मिले हैं पेट पीठों से, तलाशी इनकी भी लेना,
कहीं कुछ अन्न मिल जाए तो बाकी है हवन होगा.
 
वो जिस दिन से गलाज़त साफ़ करना बंद कर देगा,
कोई सय्यद न होगा और न कोई बरहमन होगा.
 
अपीलें सेक्स करता हो, तो ऐसा हुस्न है बरतर,
अजब मेयार लेके हुस्न का अब बांक पन होगा.
 
फिरी के, गिफ्ट के, और मुफ्त के, हमराह हैं सौदे,
खरीदो मौत गर "मुंकिर" तो तौफ़े में कफ़न होगा.
*****

Thursday, August 4, 2011

ग़ज़ल - - - आलम ए गुम की चीज़ होती है



आलम ए गुम की चीज़ होती है,
जान कितनी अज़ीज़ होती है.
 
 
अच्छा शौहर गुलाम होता है,
अच्छी बीवी कनीज़ होती है.
 
 
बात बिगडे तो जाए रुसवाई,
बात बन कर तमीज़ होती है.
 
मुफ्त का मॉल खाने वालों की,
खाल कितनी दबीज़ होती है.
 
 
फिल्म बे दाग़ रहनुमाओं की ,
देखिए कब रिलीज़ होती है.
 
 
बे खयाली में लम्स की बोटी,
हाय कितनी लज़ीज़ होती है.
*****
*कनीज़=दासी * दबीज़=मोटी*लम्स=स्पर्श

Sunday, July 31, 2011

आस्तिक और नास्तिक


आस्तिक और नास्तिक


बच्चों को लुभाते हैं परी देव के क़िस्से,
 
ज़हनों में यकीं बन के समाते हैं ये क़िस्से,
 
 
होते हैं बड़े फिर वह समझते हैं हकीक़त,
 
ज़हनों में मगर रहती है कुछ वैसी ही चाहत।
 
 
इस मौके पे तैयार खडा रहता है पाखण्ड,
 
भगवानो-खुदा, भाग्य और कर्म व क्षमा दंड।
 
 
नाकारा जवानों को लुभाती है कहानी,
 
खोजी को मगर सुन के सताती है कहानी।
 
 
कुछ और वह बढ़ता है तो बनता है नास्तिक,
 
जो बढ़ ही नहीं पारा वह रहता है आस्तिक।
 

Thursday, July 28, 2011

इल्म और लाइल्मी


इल्म और लाइल्मी




मैं ने इक मुल्ला से पूछा,"वाकई क्या है खुदा?"
बोला, "हाँ!हाँ!! हाँ!!!, सौ फ़ीसदी से भी सिवा "




और दे डालीं खुदा के हक़ में इक सौ एक दलील,
एक सौ इक नाम की लेकर उठा फेहरिस्त तवील।




एक साइंस दाँ से दोहराया जो मैंने यह सवाल,
कम सुख़न के वास्ते कुछ भी कहना था मुहाल।




कशमकश में बोला अब तक जो खुदा मौजूद हैं,
सब के सब साबित हुवा है झूट तक महदूद हैं।




हाँ! मगर इम्कानो-अंदेशा2 का मैं 'मुंकिर' नहीं,
हो भी सकता है कहीं पर इक खुदाए ला यकीं।
१-कम वाला 2 संभावनाएं और संशय

Tuesday, July 26, 2011

ग़ज़ल - - - तू है रुक्न अंजुमन का तेरी अपनी एक खू है


तू है रुक्न अंजुमन का, तेरी अपनी एक खू है,
मैं अलग हूँ अंजुमन से, मेरा अपना रंग ओ बू है.
 
वतो इज़जो मन तोशाए, वतो ज़िल्लो मन तोशाए,
जो था शर पे, सुर्ख रू है, बेकुसूर ज़र्द रू है.
 
तेरा दीं सुना सुनाया, है मिला लिखा लिखाया,
मेरे ज़ेहन की इबारत, मेरी अपनी जुस्तुजू है.
 
मुझे खौफ है खुदा का, न ही एहतियात ए शैतान,
नहीं खौफ दोज़खों का, न बेहिश्त आरज़ू है.
 
वोह नहीं पसंद करते जो हैं सर्द मुल्क वाले,
तेरी जन्नतों के नीचे, वो जो बहती अब ए जू है.
 
तेरे ध्यान की ये डुबकी, है सरल बहुत ही ओशो,
कि बहुत सी भंग पी लूँ तो ये पाऊँ तू ही तू है.
*****
* वतो इज़जो मन तोशाए, वतो ज़िल्लो मन तोशाए=खुदा जिसको चाहे इज्ज़त दे,जिसको काहे जिल्लत.

Monday, July 25, 2011

एहसासे कम्तरो!



नज़्म 
ताज़ियाने 


एहसासे कम्तरो तुम, ज़ेहनी गदागरो3तुम,
पैरों में रह के देखा, अब सर में भी रहो तुम।


इनकी सुनो न उनकी, ऐ मेरे दोस्तों तुम,
अपनी खिरद4 की निकली, आवाज़ को सुनो तुम।


दुनिया की गोद में तुम, जन्में थे, बे-ख़बर थे,
ज़ेहनी बलूग़तों5 में, इक और जन्म लो तुम।


अंधे हो गर सदाक़त, कानो से देख डालो,
बहरे हो गर हक़ीक़त, आखों से अब सुनो तुम।


ख़ुद को संवारना है, धरती संवारनी है,
दुन्या संवारने तक, इक दम नहीं रुको तुम।


मैं ख़ाक लेके अपनी, पहुँचा हूँ पर्वतों तक,
ज़िद में अगर अड़े हो, पाताल में रहो तुम।


२-हीनाभासी3-तुच्छाभास ४-बुद्धि ५-बौधिक

Sunday, July 24, 2011

हिन्दी ग़ज़ल


 
तुम जाने किस युग के साथी, साथ मेरे क्यूं आए हो,
सर का भेद नहीं समझे, दाढ़ी-चोटी चिपकाए हो।
 
चमत्कार चतुराई है उसकी, तुम जैसा इंसान है वह,
करके महिमा मंडित उसको, तुम काहे बौराए हो।
 
माथा टेकू मस्तक वालो, यह भी कोई शैली है,
धोती ऊपर टोपी नीचे, इतना शीश नवाए हो।
 
मुझ तक अल्लह यार है मेरा, मेरे संग संग रहता है,
तुम तक अल्लह एक पहेली, बूझे और बुझाए हो।
 
चाहत की नगरी वालो, कुछ थोड़ा सा बदलाव करो,
तुम उसके दिल में बस जाओ, दिल में जिसे बसाए हो।
 
यह चिंतन, यह शोधन मेरे, मेरे ही उदगार नहीं,
अपने मन में इनके जैसा, तुम भी कहीं छुपाए हो।
 
चाँद, सितारे, सूरज, पर्बत, ज़ैतूनो-इन्जीरों की,
मौला! 'मुंकिर; समझ न पाया, इनकी क़समें खाए हो।
१-कुरान में अल्लाह इन चीज़ों की क़समें खा खा कर अपनी बातों का यकीन दिलाता है.
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Wednesday, July 20, 2011

उन्नति शरणम् गच्छामि



नज़्म 

उन्नति शरणम् गच्छामि
 
गौतम था बे नयाज़-अलम1, जब बड़ा हुवा,
महलों की ऐश गाह में, इक ख़ुद कुशी किया।

पैदा हुवा दोबारा, हक़ीक़त की कोख से,
तब इस जहाँ के क़र्ब2 से वह आशना हुवा।

देखा ज़ईफ़3 को तो, हुवा ख़ुद नहीफ़4 वह,
बीमारियों को देख के, बीमार हो गया।

मुर्दे को देख कर तो, वह मायूस यूँ हुवा,
महलों की ऐश गाह से, संन्यास ले लिया।

बीवी की चाहतों से, रुख अपना मोड़ कर,
मासूम नव निहाल को, भी तनहा छोड़ कर,

महलों के क़ैद ख़ानों से, पाता हुवा नजात,
जंगल में जन्म पाया था, जंगल को चल दिया.

असली ख़ुदा तलाश, वह करता रहा वहां,
कोई ख़ुदा मिला न उसे, यह हुवा ज़रूर

वह इन्क़्शाफ़5 सब से बड़े, सच का कर गया,
"दिल में है अगर अम्न, तो समझो खुदा मिला"।

सौ फ़ीसदी था सच, जो यहाँ तक गुज़र गया,
अफ़सोस का मुक़ाम है, जो इसके बाद है,

शहज़ादे के मुहिम की, शुरुआत यूँ हुई,
तन पोशी, घर, मुआश, बतर्ज़े-गदा6 हुई।

दर असल थी मुहिम, हो खुदाओं का सद्दे-बाब 7,
मुहिम-ए-अज़ीम8 थी, कि जो राहें भटक गई,

राहों में इस अज़ीम के जनता निकल पड़ी,
उसने महेल को छोड़ा था और इसने झोपडी।

शीराज़ा9 बाल बच्चों के, घर का बिखर गया,
आया शरण में इसके जो, वह भिक्षु बन गया।

मानव समाज की धुरी, जो डगमगा गई।
मेहनत कशों पे और क़ज़ा10, दूनी हो गई।

काहिल अमल फ़रार, ये हिन्दोस्तां हुवा,
जद्दो-जेहद का देवता, चरणों में जा बसा,

तामीर11 क़ौम के रुके, सदियाँ गुज़र गईं,
'मुंकिर' ख़ुमार बुत का, ये छाया है आज तक,


माज़ी गुज़र गया है,बुरा हाल है बसर।
आबादियों को खाना, न पानी है मयस्सर ,

ज़ेरे सतर गरीबी12, जिए जा रहे हैं हम,
बानी महात्मा की,  पिए जा रहे हैं हम.


१-दुःख से अज्ञान 2 -पीडा ३-बृध ४-कमज़ोर ५-उजागर करना ६-भिखारी की तरह जीवन यापन ७-समाप्त होना ८-महान ९-प्रबंधन १०-मौत ११-रचना १२-गरीबी रेखा

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Tuesday, July 19, 2011

कुदरत का मशविरा


नज़्म 

कुदरत का मशविरा


अध्-जले ऐ पेड़! तू है, उम्र-रफ़्ता0 का शिकार,
कर्बे-गरमा झेलता, तनहा खडा है धूप में,
इब्ने-आदम को है बेचैनी, कि इन हालात में,
ढूँदता फिरता है पगला, मंदिरों-मस्जिद की छाँव।


जानता है तू कि बस ग़ालिब है, क़ुदरत का निज़ाम3,
ज़िन्दगी धरती पे जब, होती है बे बर्गो-समर4,
तब ज़मीं पर बार, बन जाता है हर पैदा शुदा,
है ज़मीं बर हक़, कि ढोने हैं उसे अगले जनम,
तेरे, मेरे, इनके, उनके, गोया हर मख्लूक़5 के।

ऐ शजर! कर तू , जुबां पैदा, बता नादान को,
बस तेरे जैसे मुक़ाबिल, ये भी हों मैदान में,
मत पनाहें ढूँढें अपनी, रूह की बाज़ार में,

नातवानी-ए-ज़ईफी7 का, न हल ढूँढें 'जुनैद',

काट लें बस हौसले से, यह सज़ाए उम्र क़ैद।
 

0-जरा-वस्था १-गर्मी की पीड़ा 3-आदम की औलाद ३-व्यवस्था ४-पत्ते एवं फल रहित ५ प्राणी वर्ग ६-पेड़ ७-बुढ़ाप काल

Monday, July 18, 2011

छीछा लेदर

छीछा लेदर


ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी,
भए न्याय के सब अधिकारी।

इन सब को अपराधी जान्यो,
सभै की मौन समाधि जान्यो।

निर्बल जीव को पापी संजयो,
ताड़क को परतापी समझयो।

इनके मूडे सींग उग आई,
इनके मार से कौन बचाई?

गंवरा भए शहर के बासी,
न्याय धीश हैं चमरा पासी।

पशुअन तक सनरक्षन पाइन,
सवरण जान्यो जनम गंवाइन।

नारी माँ बेटी बन बनयाई,
तुलसी बाबा राम दुहाई।

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Saturday, July 16, 2011

ग़ज़ल - - - अपने घरों में मंदिर ओ मस्जिद बनाइए



अपने घरों में मंदिर ओ मस्जिद बनाइए,
अपने सरों पे धर्म और मज़हब सजाइए.
 
उस सब्ज़ आसमान के नीचे न जाइए,
इस भगुवा कायनात से खुद को बचाइए.
 
सड़कों पे हो नमाज़ न फुट पथ पर भजन,
जो रह गुज़र अवाम है, उस पर न छाइए.
 
बचिए ज़ियारतों से, दर्शन की दौड़ से,
थोडा वक़्त बैठ के खुद में बिताइए.
 
परिक्रमा और तवाफ़ के हासिल पे गौर हो,
मत ज़िन्दगी को नक़ली सफ़र में गंवाइए.
 
बच्चों का इम्तेहान है, बीमार घर पे हैं,
मीलाद ओ जागरण के ये भोपू हटाइए.
 
अरबों की सर ज़मीन है जंगों से बद नुमा,
"मुंकिर" वतन की वादियों में घूम आइए.
*****

Friday, July 15, 2011

मशविरे


नज़्म 

मशविरे 
छोड़ो पुरानी राहें, सभी हैं गली हुई,
राहें बहुत सी आज भी, हैं बे चली हुई।

महदूद1 मोहमिलात में, क्यूं हो फंसे हुए,
ढूँढो जज़ीरे आज भी हैं, बे बसे हुए।

ऐ नौ जवानो अपना, नया आसमां रचो,
है उम्र अज़्मो-जोश की, संतोष से बचो।

कोहना रिवायतों4 की, ये मीनार तोड़ दो,
धरती पे अपनी थोडी सी, पहचान छोड़ दो।

धो डालो इस नसीब को, अर्क़े जबीं से तुम,
अपने हुक़ूक़ लेके ही मानो ज़मीं से तुम।

फ़रमान हों ख़ुदा के, कि इन्सान के नियम,
इन सब से थोड़ा आगे, बढ़ाना है अब क़दम।
 
१ -सीमित २ -अर्थ -हीन ३- उत्साह ४ -पुराणी मान यातें ५ -माथे का पसीना ६ -अधिकार .

Tuesday, July 12, 2011

ग़ज़ल - - - मुतलेआ करे चेहरों का चश्मे नव खेजी


ग़ज़लमुतलेआ करे चेहरों का चश्मे नव खेजी,

छलक न जाए कहीं यह शराब ए लब्रेजी. 




हलाकतों पे है माइल निजामे चंगेजी,

तरस न जाए कहीं आरजू ए खूँ रेजी.




अगर है नर तो बसद फ़िक्र शेर पैदा कर,

मिसाले गाव, बुज़, ओ खर है तेरी ज़र खेज़ी.




तू अपनी मस्त खरामी पे नाज़ करती फिर,

लुहा, लुहा से न डर, ए जबाने अंग्रेजी. 





नए निज़ाम के जानिब क़दम उठा अपने,

ये खात्मुन की सदा छोड़ कर ज़रा तेजी.




बचेगी मिल्लत खुद बीं की आबरू "मुंकिर",

अगर मंज़ूर हूँ मंसूर शम्स ओ तबरेज़ी.






*****
१ अध्ययन २-किशोरी चितवन ३-ध्यानाकर्षित ४-सैकड़ा ५- गे, बकरी,गधे ६-व्यावस्था ७-आखिरी ८- स्यंभू ९- दो संत मंसूर और तबरेज़

Sunday, July 10, 2011

बड़ा सलाम


नज़्म 

बड़ा सलाम 
जिंदगी इतनी क़ीमती भी नहीं,
यार कि जितना तुम समझते हो।




यह रवायत1 के नज़्र होती है,
आधी जगती है, आधी सोती है।




तन का ढकना है, पेट का भरना,
धर्म ओ मज़हब के, घास को चरना।



यह कभी क़र्ब से गुज़रती है,
कभी काटे नहीं, ये कटती है।




इसका अपना कोई निशाना हो,
ज़िन्दगी जश्न हो, तराना हो।




इसको मौके पे काम आने दो,
जंगे-हक़ पर महाज़ पाने दो।



इसका अंजाम बालातर आए,
आख़िरी वक़्त में निखर जाए।



सच का एलान, कर के मर जाओ,
आख़िरी वक़्त में, संवर जाओ।



मियां 'मुंकिर' ज़रा सा काम करो,
ज़िंदगी को बड़ा सलाम करो।
 

१-कही सुनी बातें २-पीडा ३-सच्ची लडाई ४-मोर्चा ५-श्रेष्ट
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Saturday, July 9, 2011

शक बहक


नज़्म 

शक बहक




यकीं बहुत कर चुके हो यारो ,
इक मरहला1 है गुमाँ 2को समझो ।



यकीं है अक्सर तुम्हारी गफ़लत ,
खिरद 3के आबे- रवां को समझो ।



अक़ीदतें और आस्थाएँ ,
यकीं की धुंधली सी रह गुज़र 4हैं ।



ख़रीदती हैं यह सादा लौही 5,
यकीं की नाक़िस दुकाँ को समझो ।

१-पड़ाव २-अविश्वाश का उचित मार्ग ३-अक्ल ४-सरल स्वभाव ५-हानि करक



Wednesday, July 6, 2011

मैं ? मैं ----




नज़्म 


मैं ----


सदियों की काविशों1 का ये रद्दे अमल2 हूँ मैं ,
लाखों बरस के अज़्म ए मुसलसल3 का फल हूँ मैं ।



हालाते ज़िंदगी ने मुझे, नज़्म4 कर दिया ,
फ़ितरत5 के आईने में, वगरना ग़ज़ल6 हूँ मैं।



मेयारे आम7 होगा कि, जिस के हैं सब असीर8 ,
हस्ती है मेरी अपनी, ख़ुद अपना ही बल हूँ मैं ।



उक़्दा कुशाई9 मेरी, ढलानों पे मत करो ,
थोड़ा सा कुछ फ़राज़10 पे, आओ तो हल हूँ मैं ।



ये तुम पे मुनहसर है, मुझे किस तरह छुओ ,
पत्थर की तरह सख्त, तो कोमल कमल हूँ मैं ।



मुझ को क़सम है रुक्न,हुक़ूक़ुल  इबाद11 की ,
ज़मज़म12 सा पाक साफ़ हूँ, और गंगा जल हूँ मैं ।



इंसानियत से बढ़ के, मेरा दीन कुछ नहीं ,
सच की तरह ज़मीन पर, एकदम अटल हूँ मैं ।



दैर-ओ-रसन का खौफ़, मुनाफ़िक़ की ख़ू नहीं ,
मैं हूँ खुली किताब, बबांगे दुहल14 हूँ मैं ।



मैं कुछ अज़ीम लोगों का, सजदा न कर सका ,
उनकी ही पैरवी में, मगर बा अमल हूँ मैं ।



'मुंकिर' को कोई ज़िद है न कोई जूनून है ,
लाओ किताबे सिदक़15 तो देखो रेहल16 हूँ में ।




१-प्रय्तानो २-प्रतिक्रया ३-लगातार उत्साह ४-शीर्षक अधीन कविता ५-प्रकृति ६-प्रेमिका से वरत्लाप ७-मध्यम अस्तर ८-कैद ९-गाठे खोलना १०-ऊंचाई ११-बन्दों का अधिकार १२-मक्के का जल १३-दोगुला १४-डंके की चोट १५-सच्ची किताब १६-किताब पढने का स्टैंड
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शक के मोती


नज़्म


शक के मोती


शक जुर्म नहीं ,शक पाप नहीं ,शक ही तो इक पैमाना है ,
विश्वाश में तुम लुटते हो सदा ,विश्वाश में कब तक जाना है ।


शक लाज़िम है भगवान व खुदा पर जिनकी सौ दूकानें हैं ,
औतार पयम्बर पर शक हो ,जो ज़्यादा तर अफ़साने1हैं ।


शक हो सूफ़ी सन्यासी पर जो छोटे ख़ुदा बन बैठे हैं ,
शक फूटे धर्म ग्रंथों पर, फ़ासिक़ हैं दुआ बन बैठे हैं ।


शक पनपे धर्म के अड्डों पर, जो अपनी हुकूमत पाये हैं ,
जो पिए हैं खून की गंगा जल ,जो माले ग़नीमत3 खाए हैं ।

शक थोड़ा सा ख़ुद पर भी हो, मुझ पर कोई ग़ालिब तो नहीं ?
जो मेरा गुरू बन बैठा है, वह बदों का ग़ासिब तो नहीं ?

शक के परदे हट जाएँ तो 'मुंकिर' हक़ की तस्वीर मिले ,
क़ौमों को नई तालीम मिले ,ज़ेहनों को नई तासीर मिले ।

१-कहानी २- मिठिया ३-युद्ध में लूटी सम्पत्ति ४-विजई ५ -अप्भोगी ६-सत्य

Monday, July 4, 2011

नज़्म


नज़्म 

अपील


लिपटे- लिपटे सदियाँ गुज़रीं वहेम् की इन मीनारों से ,


मन्दिर ,मस्जिद ,गिरजा ,मठ और दरबारी दीवारों से ,


अन्याई उपदेशों से और कपट भरे उपचारों से ,


दोज़ख़, जन्नत की कल्पित, अंगारों, उपहारों से ।



बहुत अनोखा जीवन है ये, इन पर मत बरबाद करो ,


माज़ी के हैं मुर्दे ये सब , इनको मुर्दाबाद करो ,


इनका मंतर उनका छू, निज भाषा में अनुवाद करो ।


निजता का काबा काशी, निज चिंतन में आबाद करो.