Saturday, May 16, 2009

ग़ज़ल - - - हम घर के हिसरों का सफ़र छोड़ रहे हैं


ग़ज़ल

हम घर के हिसारों का, सफ़र छोड़ रहे हैं,
दुन्या भी ज़रा देख लें, घर छोड़ रहे हैं.

मन में बसी वादी का, पता ढूंढ रहे हैं,
तन का बसा आबाद नगर छोड़ रहे है.

जाते हैं कहाँ पोंछ के, माथे का पसीना?
लगता है कोई, कोर कसर छोड़ रहे हैं.

फिर वाहिद ए मुतलक की, वबा फैल रही है,
फिर बुत में बसे देव, शरर छोड़ रहे हैं.

सर मेरा कलम है कि यूं मंसूर हुवा मैं,
'जुंबिश' को हवा ले उडी, सर छोड़ रहे हैं.

है सच की सवारी पे ही मेराज मेरा यह,
'मुंकिर' नहीं, जो 'उनकी' तरह छोड़ रहे हैं.
*****
*हिसारों=घेरा *वाहिद ए मुतलक=एकेश्वरवाद यानि इसलाम *शरर=लपटें *.

2 comments:

  1. bahut sunder gazal ke liye abhar
    hai sach ki svari pe hi meraz mera ye
    mukir nahi jo un ki tarah chhod rahe hain
    bahut bdiya

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर गजल
    ये शेर ख़ास पसंद आये

    मन में बसी वादी का पता ढूंढ रहे हैं,
    तन का बसा आबाद नगर छोड़ रहे है.

    जाते हैं कहाँ पोंछ के माथे का पसीना?
    लगता है कोई कोर कसर छोड़ रहे हैं.


    वीनस केसरी

    ReplyDelete