Friday, March 20, 2009

ग़ज़ल- - -तोहमत शिकस्ता पाई की मुझ पर मढे हो तुम


ग़ज़ल

तोहमत शिकस्ता पाई की, मुझ पर मढ़े हो तुम,
राहों के पत्थरों को, हटा कर ब
ढ़े हो तुम?

कोशिश नहीं है, नींद के आलम में दौड़ना,
बेदारियों की शर्त को, कितना पढ़े हो तुम?

बस्ती है डाकुओं की, यहाँ लूट के ख़िलाफ़ ,
तक़रीर ही गढे, कि जिसारत ग
ढ़े हो तुम?

अलफ़ाज़ से बदलते हो, मेहनत कशों के फल,
बाज़ारे हादसात में, कितने क
ढ़े हो तुम।

इंसानियत के फल हों? धर्मों के पेड़ में,
ये पेड़ है बबूल का, जिस पे चढ़े हो तुम।

"मुंकिर" जो मिल गया, तो उसी के सुपुर्द हो,
खुद को भी कुछ तलाशो,लिखे और पढ़े हो तुम.


शिकस्ता पाई=सुस्त चाल

2 comments:

  1. waah khubsurat kafiye ke saath umda she'r.. dhero badhaaee aapko...


    arsh

    ReplyDelete
  2. बहुत बढ़िया आपके चिठ्ठे की चर्चा समयचक्र में आज

    ReplyDelete