Wednesday, March 18, 2009

ग़ज़ल - - - काँटों की सेज पर मेरी दुन्या संवर गई


ग़ज़ल

काँटों की सेज पर, मेरी दुन्या संवर गई,
फूलों का ताज था वहां, इक गए चार गई।

रूहानी भूक प्यास में, मैं उसके घर गया,
दूभर था सांस लेना, वहां नाक भर गई।

वोह साठ साठ साल के, बच्चों का था गुरू,
सठियाए बालिगान पे, उस की नज़र गई।

लड़ के किसी दरिन्दे से, जंगल से आए हो?
मीठी जुबान, भोली सी सूरत, किधर गई?

नाज़ुक सी छूई मूई पे, क़ाज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के, ग़ैरत से मर गई।

सोई हुई थी बस्ती, सनम और खुदा लिए,
"मुंकिर" ने दी अज़ान तो, इक दम बिफर गई,

3 comments:

  1. लाजवाब ....बहुत ही उम्दा लेखन है ...खासकर

    लड़ के किसी दरिन्दे से जंगल से आए हो?
    मीठी जुबान, भोली सी सूरत किधर गई?

    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  2. कुछ मात्रा दोष के अतिरिक्त रचना बहुत सुन्दर बन पडी है.. भाव सशक्त हैं

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  3. बहुत खुबसूरत...बहुत-बहुत बधाई...

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