Sunday, February 1, 2009

दोहा-तीहा-चौहा

दोहा
मानव जीवन युक्ति है, संबंधों का जाल।
मतलब के फांसे रहे, बाक़ी दिया निकाल॥

पानी की कल कल सुने, सुन ले राग बयार।
ईश्वर वाणी है यही, अल्ला की गुफ्तार॥

चित को कैदी कर गई, लोहे की दीवार।
बड़ी तिजोरी में छिपी, दौलत की अम्बार॥

ससुरी माया जाल को, सर पे लिया है लाद।
अपने बैरी बन गए, रख के ये बुन्याद॥

'मुंकिर' हड्डी मॉस का, पुतला तू मत पाल।
तन में मन का शेर है, बाहर इसे निकाल॥
तीहा
हे दो मन की बालिके ! देहे पर दे ध्यान।
चलत ,फिरत,डोलत तुझे,पल पल होत थकान,
पर मुँह ढोवे न थके, तन यह ढोल समान॥
चौहा
सात नवाँ तिरसठ भया, तीन औ छ चुचलाएँ,
तीन नवाँ छत्तीस हुआ , तीन औ छ टकराएँ,
छत्तीस का यह आकड़ा , अकड़े बीच बजार,
तिरसठ की है आकडी , गलचुम्मी कर जाएँ॥

2 comments:

  1. तीहा तो बिल्कुल तीर है!! :)

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  2. आप सादर आमंत्रित हैं, आनन्द बक्षी की गीत जीवनी का दूसरा भाग पढ़ें और अपनी राय दें!
    दूसरा भाग | पहला भाग

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