Friday, February 27, 2009

ग़ज़ल - - - मैं अकेला, तू अकेला, सब अकेले हैं यहाँ


ग़ज़ल

मैं अकेला, तू अकेला, सब अकेले हैं यहाँ,
दे रहा उपदेश स्वामी, भीड़ में बैठा वहाँ।

जन हिताय उपवनों के, शुद्ध पावन मौन में,
धर्म की जूठन परोसे, हैं जुनूनी टोलियाँ।

जज्बा ऐ शरदेखिए, उस मर्द ए मोमिन में ज़रा,
या शहीदे जंग होगा, या तो फिर गाज़ी मियां।

बिक गया है कुछ नफ़े के साथ, वह तेरा हबीब,
बाप की लागत थी उस पे, माँ का क़र्ज़े आस्मां।

मैं समझता हूँ नवाहो-गिर्द2 पे ग़ालिब हूँ मैं,
ग़लबा ए रूपोश जैसा गिर्द3 है मेरे जहाँ।

हर तरफ़ *बातिल हैं छाए, और जाहिल की पकड़,
कैसे "मुंकिर" इल्म अपना, झेले इनके दरमियाँ।


१-दुष्ट-भाव मीठी-आस-पास ३-चहु ओर *बातिल =मिथ्य





Thursday, February 26, 2009

ग़ज़ल - - है नहीं मुनासिब ये आप मुझ को तडपाएँ



ग़ज़ल 

है नहीं मुनासिब ये, आप मुझ को तडपाएँ,
ज़लज़ला न आने दें, मेह भी न बरसाएं।

बस कि इक तमाशा हैं, ज़िन्दगी के रोज़ ओ शब,
सुबह हो तो जी उठ्ठें, रात हो तो मर जाएँ।

आप ने ये समझा है ,हम कोई खिलौने हैं,
जब भी चाहें अपना लें, जब भी चाहें ठुकराएँ।

भेद भाव की बातें, आप फिर लगे करने,
आप से कहा था न, मेरे धर पे मत आएं।

वक़्त के बडे मुजरिम, सिर्फ धर्म ओ मज़हब हैं,
बेडी इनके पग डालें, मुंह पे टेप चिपकाएँ।

तीसरा पहर आया, हो गई जवानी फुर्र,
बैठे बैठे "मुंकिर" अब देखें, राल टपकाएं.




ग़ज़ल - - - उन की मुट्ठी में कभी मेरे पर आते नहीं



ग़ज़ल

उन की मुट्ठी में कभी, मेरे पर आते नहीं ,
हम पे पीरे ख़ुद नुमाँ, के असर आते नहीं।


है तग़य्युर जुर्म तुम, ये सबक पढ़ते रहो,
राह में अपने ये, ज़ेरो ज़बर आते नहीं।


है लताफत जिंस में, वह भला बचते हैं क्यूं,
यह ब्रहमचारी हैं क्या? गौर फ़रमाते नहीं।


आज दीवाना तो बस, इस लिए दीवाना है,
छेड़ने वाले उसे क्यूँ नज़र आते नहीं।


मेरे मुजरिम यूँ भुला बैठे हैं, अपने जुर्म को,
सामने आ जाते हैं, अब वह कतराते नहीं।




Sunday, February 22, 2009

ग़ज़ल - - - तारीकियों से पहले सरे शाम चाहिए


ग़ज़ल 

तारीकियों से पहले, सरे शाम चाहिए,
हर सुब्ह आगही से भरा, जाम चाहिए।

अब जशने हुर्रियत को फ़रामोश भी करो,
आजादी ऐ मुआश3 का पैग़ाम चाहिए।

आरी हथौडा छोड़ के, चाक़ू उठा लिया,
मेहनत कशों के हाथों को, कुछ काम चाहिए।

मैं भी दबाए बैठा था, मुद्दत से उसके ऐब,
उस को भी एक ज़िद थी, कि इलज़ाम चाहिये।

कानो में रूई डाल के, बैठा है वह अमीन,
कुछ शोर चाहिए, ज़रा कोहराम चाहिए।

जद्दो जेहाद में, जाने जवानी कहाँ गई,
"मुंकिर" को बाक़ियात में आराम चाहिए।


१- अधकार २ -स्वतंत्रता दिवस ३-जीविका



ग़ज़ल - - - क़हेरो-गज़ब के डर से सिहरने लगे हैं वह


ग़ज़ल

क़हेरो-गज़ब के डर से सिहरने लगे हैं वह,
ख़ुद अपनी बाज़े-गश्त से डरने लगे हैं वह।


गर्दानते हैं शोख़ अदाओं को वह गुनाह,
संजीदगी की घास को चरने लगे हैं वह।


रूहानी पेशवा हैं, या ख़ुद रूह के मरीज़,
पैदा नहीं हुए थे कि मरने लगे हैं वह।


हैं इस लिए खफा, मैं कभी नापता नहीं,
वह काम नेक, जिसको कि करने लगे हैं वह।


ख़ुद अपनी जलवा गाह की पामालियों के बाद,
हर आईने पे रुक के सँवारने लगे हैं वह।


"मुंकिर" ने फेंके टुकड़े, ख्यालों के उनके गिर्द,
माक़ूलियत को पा के, ठहरने लगे हैं वह।

Friday, February 20, 2009

ग़ज़ल - - - हक्कुल इबाद से ये, लबरेज़ है न छलके,



ग़ज़ल


हक्कुल इबाद से ये, लबरेज़ है न छलके,
राहे अमल में थोड़ा, मेरे पिसर संभल के।

ऐ शाखे गुल निखर के, थोड़ा सा और फल के,
अपने फलों को लादे, कुछ और थोड़ा ढल के।

अपने खुदा को ख़ुद मैं, चुन लूँगा बाबा जानी,
मुझ में सिने बलूगत, कुछ और थोड़ा झलके।

लम्हात ज़िन्दगी के, हरकत में क्यूँ न आए,
तुम हाथ थे उठाए, चलते बने हो मल के।

कहते हो उनको काफिर, जो थे तुम्हारे पुरखे,
है तुम में खून उनका, लोंडे अभी हो कल के।

मेहनत कशों की बस्ती, में बेचो मत दुआएं,
"मुंकिर" ये पूछता है, तुम हो भी कुछ अमल के।


हक्कुल इबाद =मानव अधिकार

ग़ज़ल - - - वहम् का परदा उठा क्या, हक था सर में आ गया


ग़ज़ल 

वहम् का परदा उठा क्या, हक़ था सर में आ गया,
दावा ऐ पैग़म्बरी, हद्दे बशर में आ गया।




खौफ़ के बेजा तसल्लुत1, ने बग़ावत कर दिया,
डर का वो आलम जो ग़ालिब था, हुनर में आ गया।




यादे जानाँ तक थी बेहतर, आक़बत2 की फ़िक्र से,
क्यूं दिले नादाँ, तू ज़ाहिद के असर में आ गया।




जितनी शिद्दत से, दुआओं की सदा कश्ती में थी,
उतनी तेज़ी से सफ़ीना, क्यूँ भंवर में आ गया।




छोड़ कर हर काम, मेरी जान तू लाहौल3 पढ़,
मन्दिरो मस्जिद का शैतान, फिर नगर में आ गया।




एक दिन इक बे हुनर, बे इल्म और काहिल वजूद,
लेके पुडिया दीन की "मुंकिर" के घर में आ गया।




१-लदान २ -परलोक ३-धिक्कार मन्त्र

Wednesday, February 18, 2009

ग़ज़ल - - - हैं मसअले ज़मीनी हलहाए आसमानी


ग़ज़ल 

हैं मसअले ज़मीनी, हलहाए आसमानी,
नीचे से बेखबर है, ऊपर की लन तरानी।

फ़रमान सीधे सादे, पुर पेच तर्जुमानी,
उफ़! कूवाते समाअत* उफ़! हद्दे बे जुबानी।

ना जेबा तसल्लुत1 है, बेजा यकीं दहानी2,
ख़ुद बन गई है दुन्या, या कोई इसका बानी।

मैं सच को ढो रहा था, तुम कब्र खोदते थे,
आख़िर ज़मीं ने उगले, सच्चाइयों के मानी।

कर लूँ शिकार तेरा, या तू मुझे करेगा,
बन जा तू ईं जहानी3, या बन जा आँ जहानी4

ईमान ऐ अस्ल शायद, तस्लीम का चुका है,
वह आग आग हस्ती, "मुंकिर" है पानी पानी।


* श्रवण-शक्ति १-लदान २-विशवास दिलाना ३-इस जहान के ४-उस जहान के

Sunday, February 15, 2009

ग़ज़ल --- तालीम नई जेहल मिटाने पे तुली है



ग़ज़ल


तालीम नई जेहल1 मिटाने पे तुली है,
रूहानी वबा है, कि लुभाने पे तुली है।



बेदार शरीअत3 की ज़रूरत है ज़मीं को,
अफ्लाफ़4 की लोरी ये सुलाने पे तुली है।


जो तोड़ सकेगा, वो बनाएगा नया घर,
तरकीबे रफ़ू, उम्र बिताने पे तुली है।


किस शिद्दते जदीद की, दुन्या है उनके सर
बस ज़िन्दगी का जश्न, मनाने पे तुली है।


मैं इल्म की दौलत को, जुटाने पे तुला हूँ,
कीमत को मेरी भीड़, घटाने पे तुली है।


'मुंकिर' की तराजू पे, अनल हक5 की  धरा6 है,
"जुंबिश" है कि तस्बीह के दानों पे तुली है।


१-अंध विशवास २-आध्यात्मिक रोग ३-बेदार शरीअत=जगी हुई नियमावली ४-आकाश ५- मैं ख़ुदा हूँ 6- वह वजन जो तराजू का पासंग ठीक करता है



ग़ज़ल ---तेरे मुबाहिसों का ये लब्बो लुबाब है


ग़ज़ल

तेरे मुबाहिसों का,ये लब्बो लुबाब है,
रुस्वाए हश्र* हैं सभी, तू कामयाब है।


आंखों पे है यकीन, न कानों पे एतबार,
सदियों से क़ौम आला$ज़रा महवे ख़्वाब है।


दुन्या समर भी पाए, जो चूसो ज़मीं का ख़ून ,
जज्बा ज़मीं का है, तो यह हरकत सवाब है।


अफ़सोस मैं किसी की, समाअत3 न बन सका,
चारो तरफ़ ही मेरे, सवालों जवाब है।


पुरसाने हाल बन के, मेरे दिल को मत दुखा,
मुझ में संभलने, उठने और चलने की ताब है।


दर परदए खुलूस, कहीं सांप है छिपा,
'मुंकिर' है बूए ज़हर, यह कैसी शराब है।


रुस्वाए हश्र *=प्रलय के पापी $=इशारा मुसलमान ३-श्रवण शक्ति

ग़ज़ल ---महरूमियाँ सताएं न नींदों की रात हो



ग़ज़ल

महरूमियाँ सताएं न, नींदों की रात हो,
दिन बन के बार गुज़रे न, ऐसी नजात हो।


हाथों की इन लकीरों पे, मत मारिए छड़ी,
उस्ताद मोहतरम, ज़रा शेफ्क़त का हाथ हो।


यह कशमकश सी क्यूं है, बगावत के साथ साथ,
पूरी तरह से देव से छूटो, तो बात हो।


कुछ तर्क गर करें तो सुकोनो क़रार है,
ख़ुद नापिए कि आप की, कैसी बिसात हो।


उंगली से छू रहे हैं, तसव्वर की माहे-रू,
मूसा की गुफ़्तुगु में, खुदाया सबात हो।


इक गोली मौत की मिले 'मुंकिर' हलाल की,
गर रिज़्क1 का ज़रीया2 मदद हो, ज़कात3 हो।


१-भरण-पोषण २-साधन ३-दान





ग़ज़ल --- उफ़! दामे मगफिरत में बहुत मुब्तिला था ये



ग़ज़ल

उफ़! दामे मग्फ़िरत 1 में, बहुत मुब्तिला था ये,
नादाँ था दिल, तलाशे खुदा में पड़ा था ये।

महरूम रह गया हूँ, मैं छोटे गुनाह से ,
किस दर्जा पुर फ़रेब, यक़ीन जज़ा2 था ये।

पुर अमन थी ज़मीन ये, कुछ रोज़ के लिए ,
तारीख़ी वाक़ेओं में, बड़ा वक़िआ का था ये।

मानी सभी थे द्फ़्न समाअत की क़ब्र में,
अल्फ़ाज़ ही न पैदा हुए, सानेहा था ये।

हर ऐरे गैरे बुत को, हरम से हटा दिए,
तेरा4 लगा दिया था, कि सब से बड़ा था ये।

'मुंकिर' पडा है क़ब्र में , तुम ग़म में हो पड़े,
तिफ़ली5 अदावतों का नतीजा मिला था ये।


१-मुक्ति का भ्रम जाल २-मुक्ति का विशवास ३-श्रवण शक्ति ४-अर्थात अल्लाह का ५-बचकाना.

Thursday, February 12, 2009

नज़्म ---अहसासात--- टुकड़े टुकड़े


ग़ज़ल 

तेज़ तर तीर की तरह तुम हो, नसलो! तुम को निशाना पाना है।

हम हैं बूढे कमान की मानिंद, बोलो कितना हमें झुकाना है?

***

सुल्हा कर लूँ कि ऐ अदू तुझ से, मैं ने तदबीर ही बदल डाली,

तेरे जैसा ही क्यूं न बन जाऊं, अपने जैसा ही क्यों बनाना है।

***

रोज़े रौशन को छीन लेती है, तू कि ऐ गर्दिशे ज़मीं हम से,

हम हैं सूरज के वंशजों से मगर, सर पे तारीक2 ये ख़ज़ाना है।

***

कौडी कौडी बचा के रक्खा है, तिनका तिनका सजा के रक्खा है,

गीता संदेश कुछ इशारा कर, हम ने जोड़ा है किस को पाना है।

***

बारी बारी से सोते जगते हैं, मेरे कांधों पे दो फ़रिश्ते ये,

हम सवारी गमो खुशी के हैं, रोते हँसते नजात पाना है।

***

आप के पास भी अन्दाज़ा है, है हमारे भी पास तख़मीना,

आप ने माना एक वाहिद को, हम ने सत्तर करोर माना है।

***

तू है क़ायम फ़क़त गवाही पर, सदियाँ गुज़रीं गवाह गुज़रे हुए,

हिचकिचाहट है इल्म नव3 को अब, तुझ को नुक्तों पे आज़माना है।

***

तेरे एह्काम4 की करूँ तामील, फ़ायदे कुछ न चाहिए मुझ को,

आसमानों से झाँक कर तुझ को,सिर्फ़ इक बार मुस्कुराना है।


१-दुश्मन २-अँधेरा ३-नई शिक्षा ४-आज्ञा



Wednesday, February 11, 2009

ग़ज़ल---कहीं हैं हरम की हुकूमतें, कहीं हुक्मरानी-ऐ-दैर है


ग़ज़ल

कहीं हैं हरम1 की हुकूमतें, कहीं हुक्मरानी-ऐ-दैर2 है,
कहाँ ले चलूँ ,तुझे हम जुनूँ, कहाँ ख़ैर शर3 के बगैर है।


बुते गिल4 में रूह को फूँक कर, उसे तूने ऐसा जहाँ दिया,
जहाँ जागना है एक ख़ता, जहाँ बे ख़बर ही बख़ैर है।


बड़ी खोखली सी ये रस्म है, कि मिलो तो मुँह पे हो ख़ैरियत?
ये तो एक पहलू नफ़ी5 का है, कहाँ इस में जज़्बाए ख़ैर है।


मुझे ज़िन्दगी में ही चाहिए , तेरी बाद मरने कि चाह है,
मेरा इस ज़मीं पे है कारवाँ, तेरी आसमान की सैर है।


सभी टेढे मेढ़े सवाल हैं कि समाजी तौर पे क्या हूँ मैं,
मेरी ज़ात पात से है दुश्मनी, मेरा मज़हबों से भी बैर है।


१-काबा २-मन्दिर ३-झगडा ४-माटी की मूरत ५-नकारात्मक

ग़ज़ल--- देखो पत्थर पे घास उग आई, अच्छे मौसम की सर परस्ती है.


ग़ज़ल

देखो पत्थर पे घास उग आई, अच्छे मौसम की सर परस्ती है,
ऐ क़यादत1 कि बाद कुदरत के, मेरी आंखों में तेरी हस्ती है।


भाग्य को गर न कर तू बैसाखी, तुझ को छोटा सा एक चिंतन दूँ,
सर्व संपन्न के बराबर ही, सर्वहारा की एक बस्ती है।


दहकाँ2 मोहताज दाने दाने का, और मज़दूर भी परीशाँ है,
सुनता किसकी दुआ है तेरा रब, उसकी रहमत कहाँ बरसती है।


ज़िन्दा लाशों में एक को खोजो, जिस में सुनने का होश बाक़ी हो,
उस से कह दो कि नींद महंगी है, उस से कह दो कि जंग सस्ती है।


मेरे हिन्दोस्तां का ज़ेहनी सफ़र, दूर दर्शन पे रोज़ है दिखता,
किसी चैनल पे धर्म कि पुड़िया, किसी चैनल पे मौज मस्ती है।


ज़ब्त बस ज़हर से ज़रा कम है, सब्र इक ख़ुद कुशी कि सूरत है,
इन को खा पी के उम्र भर 'मुंकिर' ज़िन्दगी मौत को तरसती है।


१-सरकार २-किसान







Tuesday, February 10, 2009

ग़ज़ल--- दाग सारे धुल गए तो इस जतन से क्या हुवा


ग़ज़ल

दाग़ सारे धुल गए तो, इस जतन से क्या हुवा,
थोड़ा सा पानी भी रख, ऐ दूध का धोया हुवा।


ज़ेहनी बीमारी पे शक करना है, जैसे फ़र्दे जुर्म,
अंधी और बहरी अकीदत, पे है हक़ रोया हुवा।


थी सदा पुर जोश कि, जगते रहो, जगते रहो,
डाकुओं की सरहदों पर, होश था खोया हुवा।


लगजिशों की परवरिश में, पनपा काँटों का शजर,
बच्चों पर इक दिन गिरेगा, आप का बोया हुवा।


उसकी आबाई किताबों, से जो नावाक़िफ़ हुवा,
देके जाहिल का लक़ब, उस से ख़फ़ा मुखिया हुवा।


भीड़ थामे था अक़ीदत, का मदारी उस तरफ़,
था इधर तनहा मुफ़क्किर* इल्म पर रोया हुवा।


*बुद्धि जीवी

Monday, February 9, 2009

ग़ज़ल ---- पास आ जाएँ तो कुछ बात बने


ग़ज़ल

पास आ जाएँ तो कुछ बात बने,
समझें समझाएं तो कुछ बात बने।


मर्द से कम तो नहीं हैं लेकिन,
नाज़ दिखलाएं तो कुछ बात बनें।




जुज्व आदम! क़सम है हव्वा की,
बहकें, बह्काएँ तो कुछ बात बनें।


कुर्बते वस्ल1 की अज़मत समझें,
थोड़ा शर्माए, तो कुछ बात बनें।


ख़ाना दारी से हयातें हैं रवाँ,
घर को महकाएँ तो कुछ बात बनें।


तूफाँ रोकेंगे नारीना2 बाजू,
पीछे आ जाएँ तो कुछ बात बनें।


कौन रोकेगा तुम्हें अब 'मुंकिर',
हद जो पा जाएँ तो कुछ बात बनें।


१-मिलन की निकटता 2- मर्दाना 

Saturday, February 7, 2009

ग़ज़ल ------- उसकी टेढी नज़र है


ग़ज़ल 


उसकी टेढी नज़र है,
सिर फिरी राह पर है।

तेरा पत्थर का दिल है,
मेरा शीशे का घर है।

मसख़रा आ गया है,
आबरू दाँव पर है।

हो गए हैं वो राज़ी ,
साथ में इक मगर है।
इल्मे-नव शेख़ समझें?

नए मानो का डर है।

निभावो या की जाओ ,
तुम्हीं पर मुनहसर है।

खेतियाँ बस कमल की,
बाग़ बानी में शर है।

दुश्मनों में घुसे वह,
उन में दिल है, जिगर है।

Thursday, February 5, 2009

ग़ज़ल ---अगर ख़ुद को समझ पाओ, तो ख़ुद अपने खुदा हो तुम


ग़ज़ल

अगर ख़ुद को समझ पाओ, तो ख़ुद अपने ख़ुदा हो तुम,
 किन किन के बतलाए हुओं में, मुब्तिला हो तुम।

है अपने आप में ही खींचा-तानी, तुम लडोगे क्या ?
इकट्ठा कर लो ख़ुद को, मुन्तशिर हो, जा बजा1 हो तुम।

मरे माज़ी2 का अपने, ऐ ढिंढोरा पीटने वालो!
बहुत शर्मिन्दा है ये हाल, जिस के सानेहा3 हो तुम।

तुम अपने ज़हर के सौगात को, वापस ही ले जाओ,
कहाँ इतने बड़े हो? तोह्फ़ा दो मुझ को, गदा4 हो तुम।

फ़लक़ पर आक़बत 5 की, खेतियों को जोतने वालो,
ज़मीं कहती है इस पर एक, दाग़े बद नुमा हो तुम।

चलो वीराने में 'मुंकिर' कि फुर्सत हो ख़ुदाओं से,
बहुत मुमकिन है मिल जाए खुदाई भी, बजा हो तुम.

१-बिखरे हुए २-अतीत ३-विडम्बना ४-भिखरी ५-परलोक

ग़ज़ल _____उस भटकी आत्मा से चलो कुछ पता करो


ग़ज़ल 

हर शब की क़ब्रगाह से, उठ कर जिया करो,
दिन भर की ज़िन्दगी में, नई मय पिया करो।

उस भटकी आत्मा से, चलो कुछ पता करो,
इस बार आइना में बसे, इल्तेजा करो।

दिल पर बने हैं बोझ, दो मेहमान लड़े हुए,
लालच के संग क़ेनाअत1, इक को दफ़ा करो।

तुम को नजात देदें, शबो-रोज़ के ये दुःख,
ख़ुद से ज़रा सा दूर, जो फ़ाज़िल गिज़ा करो।

दरवाज़ा खटखटाओ, है गर्क़े-मुराक़्बा2,
आई नई सदी है, ज़रा इत्तेला करो।

'मुंकिर' को क़त्ल कर दो, है फ़रमाने-किब्रिया3 ,
आओ कि हक़ शिनास को, मिल कर ज़िबा करो।

१-संतोष २-तपस्या रत ३-ईश्वरीय आगयान




Tuesday, February 3, 2009

ग़ज़ल-----मख़लूक़ ए ज़माने1 की ज़रूरत को समझ ले,


ग़ज़ल 

मख़लूक़ ए ज़माने1 की ज़रूरत को समझ ले,
बेहतर है इबादत से, तिजारत को समझ ले।

ऐ मरदे-जवान साल, तू अब सीख ले उड़ना,
माँ-बाप की मजबूर किफ़ालत को समझ ले।

हुजरे3 में मसाजिद के, अज़ीज़ों को मत पढ़ा,
गिलमा के तलब गारों की, ख़सलत को समझ ले।

बारातों, जनाजों के लिए, चाहिए इक भीड़,
नादाँ तबअ उनकी, सियासत को समझ ले।

मनवा के "उसे" अपने को मनवाएगा वह शेख़ ,
यह दूर कि कौडी है, नज़ाक़त को समझ ले।

'मुंकिर' हो फ़िदा ताकि बक़ा6 हाथ हो तेरे,
मशरूत7 वजूदों की, शहादत को समझ ले।


१-जन साधारण २ -पालन-पोषण ३-कमरों ४-सेवक बालक ५-सरल-स्वभाव ६-स्थायित्व ७- सशर्त


हज़ल -------हर सच पे ही लाहौल1 पढ़ा करता है शेखू




शेखू ----


हर सच पे ही लाहौल1 पढ़ा करता है शेखू ,


हर झूट दलीलों से गढा करता है शेखू।




चट  करता है बेवाओं , यतीमों की अमानत,


कुफ़्फ़ारह2 दुआओं से, अदा करता है शेखू ।




देता है सबक सब को, क़िनाअत 3की सब्र की ।


ख़ुद मुर्गे-मुसल्लम पे, चढा करता है शेखू ।




दो बीवी निंभाता है, शरीअत4 के तहत वह,


दोनों को फ़क़त निस्फ़,5 अता करता है शेखू ।




हर शाम मुरीदों को चराता है इल्मे-ताक़ ,


हर सुब्ह इल्मे-ख़ाक पढ़ा करता है शेखू ।




बख्शेगी इसे दुन्या, न बख्शेगा खुदा ही ,


'मुंकिर' ये ख़ताओं पे ख़ता करता है शेखू ।



१-धिक्कार २- प्रायश्चित ३-संतोष ४-धर्म-विधान ५-आधा

मुस्कुराहटें

डर डरा डर डर, डर डर डर

है बाढ़ का, क़हत का, बड़े ज़लज़ला का डर,


पर्यावरण से दूषित, आबो-हवा का डर,


है कैंसर से, एड्स से, सब को फ़ना का डर,


राहों पे चलते फिरते, किसी हादसा का डर,


साँपों का, बिछुओं का, मुए भेड़िया का डर,


नेता, पुलिस, लुटेरे, गुरू, माफिया का डर,


इन सब से बच बचा के भी, बाकी बचा रहा,


शैतान, भूत, जिन्न ओ मलायक, खुदा का डर।


पंडितो-मुल्ला -----

पंडितो-मुल्ला दो गहरे दोस्त थे इक चाल में,

खूब बनती, खूब छनती दोनों की हर हाल में,

एक दिन मुल्ला ये बोला , सुन कि ऐ पंडित महान!

बाँधता तू है ग़लत , पेशाब में बेचारे कान ?

सुन के पंडित ने कहा और वज़ू तेरा मियाँ,

गंध करता है कहाँ से ? साफ़ करता है कहाँ ?

तेरे मेरे आस्थाओं में ज़रा सा फ़र्क़ है,

मेरी कश्ती नर्क में है, तेरा बेडा ग़र्क़ है।

Sunday, February 1, 2009

दोहा-तीहा-चौहा

दोहा
मानव जीवन युक्ति है, संबंधों का जाल।
मतलब के फांसे रहे, बाक़ी दिया निकाल॥

पानी की कल कल सुने, सुन ले राग बयार।
ईश्वर वाणी है यही, अल्ला की गुफ्तार॥

चित को कैदी कर गई, लोहे की दीवार।
बड़ी तिजोरी में छिपी, दौलत की अम्बार॥

ससुरी माया जाल को, सर पे लिया है लाद।
अपने बैरी बन गए, रख के ये बुन्याद॥

'मुंकिर' हड्डी मॉस का, पुतला तू मत पाल।
तन में मन का शेर है, बाहर इसे निकाल॥
तीहा
हे दो मन की बालिके ! देहे पर दे ध्यान।
चलत ,फिरत,डोलत तुझे,पल पल होत थकान,
पर मुँह ढोवे न थके, तन यह ढोल समान॥
चौहा
सात नवाँ तिरसठ भया, तीन औ छ चुचलाएँ,
तीन नवाँ छत्तीस हुआ , तीन औ छ टकराएँ,
छत्तीस का यह आकड़ा , अकड़े बीच बजार,
तिरसठ की है आकडी , गलचुम्मी कर जाएँ॥