Tuesday, June 2, 2009

रुबाइयाँ


रुबाइयाँ

सच्चे को बसद शान ही, बन्ने न दिया
बस साहिबे ईमान ही, बन्ने न दिया
पैदा होते ही कानों में, फूँक दिया झूट
इंसान को इंसान ही, बन्ने न दिया
*
ये लाडले, प्यारे, ये दुलारे मज़हब
धरती पे घनी रात हैं, सारे मज़हब
मंसूर हों, तबरेज़ हों, या फिर सरमद
इन्सान को हर हाल में, मारे मज़हब
*
हैवान हुवा क्यूँ न भला, तख्ता ए मश्क़
इंसान का होना है, रज़ाए अहमक
शैतान कराता फिरे, इन्सां से गुनाह
अल्लाह करता रहे, उट्ठक बैठक
*****

Thursday, May 28, 2009

ग़ज़ल - - - बडी कोताहियाँ जी लीं, बड़ी आसानियाँ जी लीं



ग़ज़ल

बडी कोताहियाँ जी लीं, बड़ी आसानियाँ जी लीं,
कि अब जीना है फ़ितरत को, बहुत नादानियाँ जी लीं.

तलाशे हक़ में रह कर, अपनी हस्ती में न कुछ पाया,
कि आ अब अंजुमन आरा!, बहुत तन्हाईयाँ जी लीं.

जवानी ख्वाब में बीती, ज़ईफ़ी सर पे आ बैठी,
हक़ीक़त कुछ नहीं यारो, कि बस परछाइयाँ जी लीं.

मेरी हर साँस, मेरे हाफ्ज़े से, मुन्क़ते कर दो,
कि बस उतनी ही रहने दो, कि जो रानाइयाँ जी लीं.

जो घर में प्यार के काबिल नहीं, तो दर गुज़र घर हो,
बहुत ही सर कशी झेलीं, बहुत ही ख़ामियाँ जी लीं.

तआकुब क्या, तजाऊज़, कुछ ख़ताएँ कर रहीं 'मुंकिर',
इन्हें रोको कि कफ़्फ़ारे  की, हमने सख्तियाँ जी लीं.
*****

*फितरत=प्रक्रिति *हक=खुदा * हाफ्ज़े=स्मरण *मुन्क़ते=विच्छिन *तआकुब=पीछा करना *तजाऊज़=उल्लंघन *कफ्फारे=प्राश्यचित

Friday, May 22, 2009

ग़ज़ल - - - इस्तेंजाए खुश्क की इल्लत में लगे हैं


ग़ज़ल

इस्तेंजाए ख़ुश्क की, इल्लत में लगे हैं,
वह बे नहाए धोए, तहारत में लगे हैं.

मीरास की बला, ये बुजुर्गों से है मिली,
तामीर छोड़ कर वह, अदावत में लगे हैं.

वह गिर्द मेरे, अपनी ग़रज़  ढूँढ रहा है,
हम बंद किए आँख, मुरव्वत में लगे हैं.

दोनों को सर उठाने की, फुर्सत ही नहीं है,
ख़ालिक़ से आप, हम है कि खिल्क़त से लगे हैं.

तन्हाई चाहता हूँ , तड़पने के लिए मैं,
ये सर पे खड़े, मेरी अयादत में लगे हैं.

'मुंकिर' ने नियत बांधी है, अल्लाह हुअक्बर,
फिर उसके बाद, आयते ग़ीबत में लगे हैं.$
*****
# इस शेर का मतलब किसी मुल्ला से दरयाफ्त करें.*मीरास=पैत्रिक सम्पत्ति *तामीर=रचनात्मक कार्य *खालिक=खुदा *अयादत =पुरसा हाली $=कहते हैं की नमाज़ पढ़ते समय शैतान विचारो में सम्लित हो जाता है.

Saturday, May 16, 2009

ग़ज़ल - - - हम घर के हिसरों का सफ़र छोड़ रहे हैं


ग़ज़ल

हम घर के हिसारों का, सफ़र छोड़ रहे हैं,
दुन्या भी ज़रा देख लें, घर छोड़ रहे हैं.

मन में बसी वादी का, पता ढूंढ रहे हैं,
तन का बसा आबाद नगर छोड़ रहे है.

जाते हैं कहाँ पोंछ के, माथे का पसीना?
लगता है कोई, कोर कसर छोड़ रहे हैं.

फिर वाहिद ए मुतलक की, वबा फैल रही है,
फिर बुत में बसे देव, शरर छोड़ रहे हैं.

सर मेरा कलम है कि यूं मंसूर हुवा मैं,
'जुंबिश' को हवा ले उडी, सर छोड़ रहे हैं.

है सच की सवारी पे ही मेराज मेरा यह,
'मुंकिर' नहीं, जो 'उनकी' तरह छोड़ रहे हैं.
*****
*हिसारों=घेरा *वाहिद ए मुतलक=एकेश्वरवाद यानि इसलाम *शरर=लपटें *.

Monday, May 11, 2009

ग़ज़ल - - - मुतलेआ करे चेहरों का चश्मे नव खेजी


ग़ज़ल

मुतालेआ करे चेहरों का, चश्मे नव ख़ेज़ी ,
छलक न जाए कहीं यह, शराब ए लब्रेजी.

हलाकतों पे है माइल, निज़ामे चंगेजी,
तरस न जाए कहीं, आरजू ए खूँ रेज़ी .

अगर है नर तो, बसद फ़िक्र शेर पैदा कर,
मिसाले गाव, बुज़, ओ ख़र है तेरी ज़र ख़ेज़ी.

तू अपनी मस्त ख़ेरामी पे, नाज़ करती फिर,
लुहा, लुहा से न डर, ए जबाने अंग्रेजी.

नए निज़ाम के जानिब क़दम उठा अपने,
ये खात्मुन की सदा छोड़, कर ज़रा तेज़ी .

बचेगी मिल्लत ख़ुद बीं, की आबरू 'मुंकिर',
अगर मंज़ूर हों  मंसूर, शम्स ओ तबरेज़ी.
*****
*मुतलेआ= अद्ध्य्यन *निजामे=व्योवस्था *गाव, बुज़, खर=भेडें,बकरियां,गधे *उपजता *मिल्लत खुद बीन =इशारा वर्ग विशेष की ओर

Friday, May 8, 2009

ग़ज़ल - - - तू है रुक्न अंजुमन का तेरी अपनी एक खू है


ग़ज़ल 

तू है रुक्न अंजुमन का, तेरी अपनी एक ख़ू है,
मैं अलग हूँ अंजुमन से, मेरा अपना रंग ओ बू है.

वतो इज़ज़ो मन तोशाए, वतो ज़िल्लो मन तोशाए,
जो था शर पे, सुर्ख़ रू है, बेक़ुसूर ज़र्द रू है.

तेरा दीं सुना सुनाया, है मिला लिखा लिखाया,
मेरे ज़ेहन की इबारत, मेरी अपनी जुस्तुजू है.

मुझे खौफ है ख़ुदा का, न ही एहतियात ए शैतान,
नहीं खौफ दोज़खों का, न बेहिश्त आरज़ू है.

वोह नहीं पसंद करते, जो हैं सर्द मुल्क वाले,
तेरी जन्नतों के नीचे, वो जो बहती अब ए जू है.

तेरे ध्यान की ये डुबकी, है सरल बहुत ही जोगी ,
कि बहुत सी भंग पी लूँ ,तो ये पाऊँ तू ही तू है.
*****
* वतो इज़जो मन तोशाए, वतो ज़िल्लो मन तोशाए=खुदा जिसको चाहे इज्ज़त दे,जिसको काहे जिल्लत.

Wednesday, May 6, 2009

ग़ज़ल - - - यह गलाज़त भरी रिशवत

यह गलाज़त भरी रिशवत,
लग रहा खा रहे नेमत.

बैठी कश्ती पे माज़ी के,
फँस गई है बड़ी उम्मत.

कुफ्र ओ ईमाँ का शर लेके,
जग में फैला दिया नफरत.

सर कलम कर दिए कितने,
लेके इक नअरा ए वहदत.

सर बुलंदी हुई कैसी?
आप बोया करें वहशत.

धर्म ओ मज़हब हो मानवता,
रह गई एक ही सूरत.

माँ ट्रेसा बनीं नोबुल,
खिदमतों से मिली अज़मत.

हो गया हादसा आखिर,
हो गई थी ज़रा हफ्लत.

खा सका न वोह 'मुंकिर",
खा गई उसे है उसे दौलत.
*****
*माज़ी= अतीत *उम्मत=मुस्लमान *शर=बैर *वहदत=एकेश्वर

Thursday, April 30, 2009

ग़ज़ल - - - आलम ए गुम की चीज़ होती है



ग़ज़ल

आलम ए गुम की चीज़ होती है,
जान कितनी अज़ीज़ होती है.

अच्छा शौहर गुलाम होता है,
अच्छी बीवी कनीज़ होती है.

बात बिगडे तो जाए रुसवाई,
बात बन कर तमीज़ होती है.

मुफ़्त का मॉल खाने वालों की,
खाल कितनी दबीज़ होती है.

फिल्म बे दाग़ रहनुमाओं की ,
देखिए कब रिलीज़ होती है.

बे ख़याली में लम्स की बोटी,
हाय कितनी लज़ीज़ होती है.

*****

*कनीज़=दासी * दबीज़=मोटी*लम्स=स्पर्श

Wednesday, April 29, 2009

ग़ज़ल - - - सुब्ह फिर शुरू हुई है, आँखें फिर हुई न हैं नमसुब्ह फिर शुरू हुई है, आँखें फिर हुई न हैं नम,



ग़ज़ल 

सुब्ह फिर शुरू हुई है, आँखें फिर हुई न हैं नम,
चल गरानी ए तबअ, सर पे रख के अपने ग़म.

नेमतें हज़ार थीं, इक ख़ुलूस ही न था,
तशना रूह हो गई, भर गया था जब शिकम.

बे यक़ीन लोग हैं, उन सितारों की तरह,
टिमटिमा रहे हैं कुछ, और दिख रहे है कम.

उँगलियाँ थमा दिया था, मैं ने उस कमीन को,
कर के मुझको सीढयाँ, सर पे रख दिया क़दम.

कहर न गज़ब है वह, फ़ितरी वाक़ेआत हैं,
तुम मुक़ाबला करो, वोह है माइले सितम.

राज़दार हो चुका है, कायनात का जुनैद,
जुज़्व बे बिसात था, कुल में हो गया है ज़म.


*****

Tuesday, April 28, 2009

ग़ज़ल - - -बहुत दुखी है जीता है वह बस केवल अभिलाषा में


ग़ज़ल

बहुत दुखी है जीता है वह, बस केवल अभिलाषा में,
सांस ऊपर की आशा में ले, नीचे जाए निराशा में.

बड़ी तरक्की की है उसने, लोगों की परिभाषा में,
पाप कमाया मन मन भर, और पुन्य है तोला माशा में.

अय्याशी में कटी जवानी, पाल न पाए बच्चों को,
अंत में गेरुवा बस्तर धारा, पल जाने की आशा में.

महशर के इन हंगामों को, मेरे साथ ही दफ़ना दो,
अमल ने सब कुछ खोया पाया, क्या रक्खा है लाशा में.

ज्ञानी, ध्यानी, आलिम, फ़ाज़िल, श्रोता गण की महफ़िल में,
'मुंकिर' अपनी ग़ज़ल सुनाए, टूटी फूटी भाषा में.

*****

Monday, April 27, 2009

ग़ज़ल - - - अपने घरों में मंदिर ओ मस्जिद बनाइए


ग़ज़ल

अपने घरों में, मंदिर ओ मस्जिद बनाइए,
अपने सरों पे, धर्म और मज़हब सजाइए.

उस सब्ज़ आसमान के, नीचे न जाइए,
इस भगुवा कायनात से, खुद को बचाइए.

सड़कों पे हो नमाज़, न फुटपाथ पर भजन,
जो रह गुज़र अवाम है, उस पर न छाइए.

बचिए ज़ियारतों से, दर्शन की दौड़ से,
थोडा वक़्त बैठ के खुद में बिताइए.

परिक्रमा और तवाफ़ के हासिल पे गौर हो,
मत ज़िन्दगी को नक़ली सफ़र में गंवाइए.

बच्चों का इम्तेहान है, बीमार घर पे हैं,
मीलाद ओ जागरण के ये भोपू हटाइए.

अरबों की सर ज़मीन है, जंगों से बद नुमा,
'मुंकिर' वतन की वादियों में घूम आइए.

*****

Sunday, April 26, 2009

ग़ज़ल - - -ये जम्हूरियत बे असर है


ग़ज़ल

ये जम्हूरियत बे असर है,
संवारे इसे, कोई नर है?

बहुत सोच कर खुद कशी कर,
किसी का तू ,नूरे नज़र है.

दिखा दे उसे क़ौमी दंगे,
सना ख्वान मशरिक, किधर हैं.

बहुत कम है पहचान इसकी,
रिवाजों में डूबा बशर है.

नहीं बन सका फर्द इन्सां,
कहाँ कोई कोर ओ कसर है.

है ऊपर न जन्नत, न दोज़ख,
खला है, नफ़ी है, सिफ़र है.

इबादत है, रोज़ी मशक्क़त,
अज़ान ए कुहन, पुर ख़तर है.

ये सोना है, जागने की मोहलत,
जागो! ज़िन्दगी दांव पर है.

है तक़लीद बेजा ये 'मुंकिर',
तेरे जिस्म पर एक सर है.
*****
*जम्हूरियत=गण-तन्त्र *नूरे नज़र=आँख का तारा *सना ख्वान मशरिक=पूरब का गुण-गण करने वाले*खला, नफ़ी=क्षितिज एवं शून्य * तकलीद=अनुसरण.

Saturday, April 25, 2009

ग़ज़ल - - - आप वअदों की हरारत को कहाँ जानते हैं


ग़ज़ल

आप वअदों की हरारत को, कहाँ जानते हैं.
हम जो रखते हैं, वह पत्थर की ज़ुबाँ जानते हैं.

पुरसाँ हालों को, बताते हुए मेरी हालत,
मुस्कुराते हैं, मेरा दर्दे निहाँ निहाँ जानते हैं.

क़ौम को थोडी ज़रुरत है, मसीहाई की,
आप तो बस की फ़ने तीर ओ कमाँ जानते हैं.

नंगे सर, नंगे बदन, उनको चले आने दो,
वोह अभी जीने के, आदाब कहाँ जानते हैं.

नहीं मअलूम किसी को, कि कहाँ है लादेन,
सब को मअलूम है कि अल्लाह मियाँ जानते हैं.

न तवानी की अज़ीयत में पड़े हैं 'मुंकिर',
है बहारों का ये अंजाम,खिज़ां जानते हैं.
*****
*मसीहाई=मसीहाई*न तवानी=दुर्बलता* अज़ीयत=कष्ट


Friday, April 24, 2009

ग़ज़ल - - - जहान ए अर्श का बन्दा है बार ए अन्जुमन होगा


ग़ज़ल

जहान ए अर्श का बन्दा है, बार ए अन्जुमन होगा,
मसाइल पेश कर देगा, नशा सारा हिरन होगा.

मुझे दो गज़ ज़मीन दे दे अगर शमशान में अपने,
मज़ार ए यार पे अर्थी जले तेरी, मिलन होगा.

मिले हैं पेट पीठों से, तलाशी इनकी भी लेना,
कहीं कुछ अन्न मिल जाए, तो बाक़ी है हवन होगा.

वो जिस दिन से ग़लाज़त साफ़ करना बंद कर देगा,
कोई सय्यद न होगा, और न कोई बरहमन होगा.

अपीलें सेक्स करता हो, तो ऐसा हुस्न है बरतर,
अजब मेयार लेके हुस्न का, यह बांक पन होगा.

फिरी के, गिफ्ट के, और मुफ़्त के, हमराह हैं सौदे,
खरीदो मौत गर 'मुंकिर' तो तोहफ़े में कफ़न होगा.
*****

Thursday, April 23, 2009

ग़ज़ल - - - जितना बड़ा है क़द तेरा उतना अजीम है


ग़ज़ल

जितना बड़ा है क़द तेरा, उतना अज़ीम है,
ऐ पेड़! तू भी राम है, तू भी रहीम है.

ईमान दार लोगों के, ज़ानों पे रख के सर,
बे खटके सो रहे हो, ये अक़्ले सलीम है.

तेरह दिलों की धड़कनें, तेरह दलों का बल,
जम्हूर का मरज़ ये, वबाल ए हकीम है.

अलक़ाब में आदाब के, अम्बार मत लगा,
बालाए ताक कर इसे, क़द्रे क़दीम है.

खूं का लिखा हुवा, मेरा दिल में उतार लो,
ये आसमानी कुन, न अलिफ़,लाम, मीम है.

'मुंकिर' खिला रहा है, जो कडुई सी गोलियां,
इंकार की दवा है, ये तासीर नीम है.
*****

Wednesday, April 22, 2009

ग़ज़ल - - - तुम भी अवाम की ही तरह डगमडा गए


ग़ज़ल

तुम भी अवाम की, ही तरह डगमडा गए,
मेरे यकीं के शीशे पे, पत्थर चला गए.

घायल अमल हैं, और नज़रिया लहू लुहान,
तलवार तुम दलील की, ऐसी चला गए.

मफरूज़ा हादसात, तसुव्वुर में थे मेरे,
तुम कार साज़ बन के, हक़ीक़त में आ गए.

पोशीदा एक डर था, मेरे ला शऊर में,
माहिर हो नफ़्सियात के, चाक़ू थमा गए.

भेड़ों के साथ साथ, रवाँ आप थे जनाब,
उन के ही साथ गिन जो दिया, तिलमिला गए.

खुद एतमादी मेरी, खुदा को बुरी लगी,
सौ कोडे आ के उसके सिपाही लगा गए.
*****
*मफरूज़ा=कल्पित *कार साज़=सहायक *ला शऊर=अचेतन मन *नफ़्सियात=मनो विज्ञानं *खुद एतमादी=आत्म विश्वास

Tuesday, April 21, 2009

ग़ज़ल - - - मोहलिक तरीन रिश्ते निभाए हुए थे हम


ग़ज़ल

मोहलिक तरीन रिश्ते, निभाए हुए थे हम,
बारे गराँ को सर पे, उठाए हुए थे हम.

खामोश थी ज़ुबान, कि  अल्फ़ाज़  ख़त्म थे,
लाखों गुबार दिल में दबाए हुए थे हम.

ठगता था हम को इश्क, ठगाता था खुद को इश्क,
कैसा था एतदाल, कि पाए हुए थे हम.

गहराइयों में हुस्न के, कुछ और ही मिला,
न हक़ वफ़ा को मौज़ू ,बनाए हुए थे हम.

उसको भगा दिया कि वोह, कच्चा था कान का,
नाकों चने चबा के, अघाए हुए थे हम.

सब से मिलन का दिन था, बिछड़ने की थी घडी,
'मुंकिर' थी क़ब्रगाह, कि  छाए हुए थे हम,
*****
*मोहलिक तरीन =हानि कारक *बारे गराँ=भारी बोझ *एतदाल=संतुलन *मौज़ू=विषय.

Monday, April 20, 2009

ग़ज़ल - - - तरस न खाओ मुझे प्यार कि जरूरत है


ग़ज़ल

तरस न खाओ, मुझे प्यार कि ज़रुरत है,
मुशीर कार नहीं यार कि ज़रुरत है.

तुम्हारे माथे पे उभरे हैं, सींग के आसार,
तुम्हें तो फ़तह नहीं हार की ज़रुरत है.

कलम की निब ने, कुरेदा है ला शऊर तेरा,
जवाब में कहाँ, तलवार की ज़रुरत है.

अदावतों को भुलाना भी, कोई मुश्क़िल है,
दुआ, सलाम, नमस्कार की ज़रुरत है.

शुमार शेरों का होता है, न कि भेड़ों का,
कसीर कौमों, बहुत धार की ज़रुरत है.

तुम्हारे सीनों में आबाद इन किताबों को,
बस एक 'मुंकिर' ओ इंकार कि ज़रुरत है.
*****
*मुशीर कार = परामर्श दाता *ला शऊर =अचेतन मन

Sunday, April 19, 2009

ग़ज़ल - - - गफलतों की इजाज़त नहीं है



ग़ज़ल

ग़फ़लतों की इजाज़त नहीं है,
ये तो सच्ची इबादत नहीं है.

कडुई सच्चाइयाँ हैं सुनाऊं?
मीठे झूटों की आदत नहीं है.

चित तुम्हारी है, पट भी तुम्हारी,
भाग्य लिक्खे में गैरत नहीं है.

छोड़ कर बाल बच्चों को बैठे,
सन्त जी ये शराफ़त नहीं है.

दुःख न पहुँचाओ, तुम हर किसी को,
सुख जो देने की, वोसअत नहीं है.

रोग अपना ज़ियाबैतिशी है,
अब कोई शै भी, नेमत नहीं है.

हों वो पत्थर के या फिर हवा के,
इन बुतूं में, हक़ीक़त नहीं है.

ये हैं 'मुंकिर'में फूटी निदाएँ,
आसमानों की हुज्जत नहीं है.
*****
*वोसअत=क्षम्ता *ज़ियाबैतिशी=डायबिटीज़

Friday, April 17, 2009

ग़ज़ल - - -कभी कभी तो मुझे तू निराश करता है


ग़ज़ल

कभी कभी तो, मुझे तू निराश करता है,
मेरे वजूद में, खुद को तलाश करता है.

मेरे वजूद का, खुद अपना एक परिचय है,
सुधारता नहीं, तू इस को लाश करता है.

किसी इलाके के, थोड़े विकास के ख़ातिर,
बड़ी ज़मीन का, तू सर्वनाश करता है.

मैं होश में हूँ ,हजारों कटार के आगे,
तुम्हारे हाथ का कंकड़, निराश करता है.

निसार जाँ से तेरी, इस लिए अदावत है,
तेरे खुदाओं का, वह पर्दा फ़ाश करता है.

नशा हो शक्ति का, या हो शराब का 'मुंकिर" ,
नशे की शान है वह सर्व नाश करता है.
*****

Thursday, April 16, 2009

ग़ज़ल - - - जब से हुवा हूँ बे गरज़, शिकवा गिला किया नहीं


ग़ज़ल

जब से हुवा हूँ बे ग़रज़, शिकवा गिला किया नहीं,
कोई यहाँ बुरा नहीं, कोई यहाँ भला नहीं.

अपने वजूद से मिला तो मिल गई नई सेहर,
माज़ी को दफ़्न कर दिया, यादों का सिलसिला नहीं.

पुख्ता निज़ाम के लिए, है ये ज़मीं तवाफ़ में,
जीना भी इक उसूल है, दिल का मुआमला नहीं.

बख्शा करें ज़मीन को, मानी मेरे नए अमल,
मेरे लिए रिवाजों का, कोई काफ़िला नहीं.

ज़ेहनों के सब रचे मिले, सच ने कहाँ रचा इन्हें,
ढूँढा किए खुदा को हम, कोई हमें मिला नहीं.

थोडा सा और चढ़ के आ, हस्ती का यह उरूज है,
कोई भी मंजिले न हों, कोई मरहला नहीं.
*****

Tuesday, April 14, 2009

हिंदी ग़ज़ल - - - ला इल्मी का पाठ पढाएँ अन पढ़ मुल्ला योगी


 ग़ज़ल

ला इल्मी का पाठ पढाएँ, अन पढ़ मुल्ला योगी,
दुःख दर्दों की दवा बताएँ, ख़ुद में बैठे रोगी.

तन्त्र मन्त्र की दुन्या झूठी, बकता भविश्य अयोगी,
अपने आप में चिंतन मंथन, सब को है उपयोगी.

आँखें खोलें, निंद्रा तोडें, नेता के सहयोगी,
राम राज के सपन दिखाएँ, सत्ता के यह भोगी.

बस ट्रकों में भर भर के, ये भेड़ बकरियां आईं,
ज़िदाबाद का शोर मचाती, नेता के सहयोगी.

पूतों फलती, दूध नहाती, रनिवास में रानी,
अँधा रजा मुकुट संभाले, मारे मौज नियोगी.

"मुकिर' को दो देश निकला, चाहे सूली फांसी,
दामे, दरमे, क़दमे, सुखने, चर्चा उसकी होगी.
*****
दामे,दरमे,क़दमे,सुखने=हर अवसर पर

Monday, April 13, 2009

ग़ज़ल - - - ये तसन्नो में डूबा हुवा प्यार है



ग़ज़ल

ये तसन्नो में डूबा हुवा, प्यार है,
क्या कोई चीज़ फिर, मुफ़्त दरकार है.

फैली रूहानियत की, वबा क़ौम में,
जिस्म मफ़्लूज है, रूह बीमार है.

नींद मोहलत है इक, जागने के लिए,
जाग कर सोए तो नींद, आज़ार है.

बुद्धि हाथों पे सरसों, उगाती रही,
बुद्धू कहते रहे, ये चमत्कार है.

मुज़्तरिब हर तरफ़, सीधी जमहूर है,
मुन्तखिब की हुई, किसकी सरकार है.

बाँटता फिर रहा है, वो पैग़ामे मौत,
भीड़ थमती है, जैसे तलबगार है.

एक झटके में जोगी, कहीं जा मर,
क़िस्त में मौत तेरी, ये बेकार है.

हों न'मुंकिर' इबारत ये उलटी सभी,
ले के आ आइना वोह मदद गर है.
*****

*आज़ार=रोग *मुज़्तरिब=बेचैन *मुन्तखिब=चुनी हुई.

Sunday, April 12, 2009

ग़ज़ल - - - खिरद का मशविरा है, ये की अब अबस निबाह है



ग़ज़ल

ख़िरद का मशविरा है, ये की अब अबस निबाह है,
दलीले दिल ये कह रही है, उस में उसकी चाह है.

मुक़ाबले में है जुबान कि क़दिरे कलाम है,
सलाम आइना करे है, कि सब जहाँ सियाह है.

ज़मीर की रज़ा है गर, किसी अमल के वास्ते,
बहेस मुबाहसे जनाब, उस पे ख्वाह मख्वाह है.

लहू से सींच कर तुम्हारी खेतियाँ, अलग हूँ मैं,
किसी तरह का मशविरह, न अब कोई सलाह है.

नदी में तुम रवाँ दवां, कभी थे मछलियों के साथ,
बला के दावेदार हो, समन्दरों की थाह है.

तलाश में वजूद के ये, ज़िन्दगी तड़प गई,
फुजूल का ये कौल है, कि चाह है तो राह है.
*****
*खिरद=विवेक * अबस व्यर्थ *क़दिरे कलाम =भाषाधिकार

Saturday, April 11, 2009

ग़ज़ल - - - इस शहरी आबादी को, जंगल में बोया जाए



ग़ज़ल

इस शहरी आबादी को, जंगल में बोया जाए,
परबत के दामन हैं खाली, चलो वहीँ सोया जाए.

जीवन भर के सृजित हीरे, आँख खुली तो पत्थर थे,
चुन कर लाए जहाँ से इनको, वहीँ कहीं खोया जाए.

आहें निकलें, आंसू बरसें, हस्ती का कुछ बोझ कटे,
मन भारी है, तन है बोझिल, फूट फूट रोया जाए.

ऐ फ़ातेह! यह तेरा जिगरा, बस्ती है वीरान पड़ी,
तौबा का साबुन ले कर आ, दागे जिगर धोया जाए.

दुःख को ढूंढो बाती लेकर, मिले कहीं तो बतलाना,
सुख की गठरी नहीं है सर पे, इस पर क्यों रोया जाए.

जुल दे कर भागी है "मुंकिर" उम्र जवानी हाय रे अब,
बूढी पीठ पे इस की करनी, किस बल से ढोया जाए.
*****

Friday, April 10, 2009

ग़ज़ल - - - सुकून क़ल्ब को दिल की हसीं परी तो मिले


ग़ज़ल 

सुकूने क़ल्ब को, दिल की हसीं परी तो मिले,
तेरे शऊर को, इक हुस्ने दिलबरी तो मिले.

नफ़स नफ़स की बुख़ालत  को ख़त्म कर देंगे,
तेरे निज़ाम में, पाकीज़ा रहबरी तो मिले.

क़िनाअतें तेरी, तुझ को सुकूं भी देदेंगी,
कि तुझ को सब्र, बशकले क़लन्दरी तो मिले.

जेहाद अब नए मअनो को ले के आई है.
तुम्हें ''सवाब ओ ग़नीमत'' से, बे सरी तो मिले.

वहाँ पे ढूँढा तो, बेहतर न कोई बरतर था,
फ़रेब खुर्दाए एहसास ए बरतरी तो मिले.

तू एक रोज़ बदल सकता है ज़माने को,
ख़याल को तेरे 'मुंकिर" सुख़नवरी तो मिले.
*****
*बोखालत=कंजूसी *केनाआतें=संतोष *कलंदरी=मस्त-मौला *''सवाब ओ गनीमत'' =पुण्य एवं लूट-पाट*सुखनवरी=वाक्-पुटता.

Thursday, April 9, 2009

ग़ज़ल - - - है कैसी कशमकश ये, कैसा या वुस्वुसा है


ग़ज़ल

है कैसी कशमकश ये, कैसा या वुस्वुसा है,
यकसूई चाहता है, दो पाट में फँसा है।

दिल जोई तेरी की थी, बस यूँ ही वह हँसा है,
दिलबर समझ के जिस को, तू छूने में लसा है।

बकता है आसमा को, तक तक के मेरी सूरत,
पागल ने मेरा बातिन, किस ज़ोर से कसा है।

सच बोलने के खातिर, दो आँख ही बहुत थीं,
अलफ़ाज़ चुभ रहे हैं, आवाज़ ने डंसा है।

कैसी है सीना कूबी? भूले नहीं हो अब तक,
बहरों का फ़ासला था, सदियों का हादसा है।

है वादियों में बस्ती, आबादी साहिलों पर,
देखो जुनून ए 'मुंकिर' गिर्दाब में बसा है.

*****
*बातिन=अंतरात्मा *सीना कूबी=मातम *बहरों=समन्दरों *गिर्दाब=भंवर

Wednesday, April 8, 2009

हिन्दी ग़ज़ल - - - मन को लूटे धर्म की दुन्या , धन को लूटे नेता



ग़ज़ल

मन को लूटे धर्म की दुन्या , धन को लूटे नेता,
देश को लूटे नौकर शाही, गुंडा इज्ज़त लेता।

आटोमेटिक प्रोडक्शन है, श्रम को कोई न टेता,
तन लूटे सरमायादारी,जतन को घूस का खेता।

चैन की सांस प्रदूषण लूटे, गति लूटे अतिक्रमण,
उन्नत भक्षी जन संख्या ने, अपना गला ही रेता।

प्रतिभा देश से करे पलायन, सिस्टम को गरियाती,
आरक्षन का कोटा सब, को दूध भात है देता।

प्रदेशिकता देश को बाटे, कौम को जाति बिरादर,
भारत माता भाग्य को रोए, कोई नहीं सुचेता।

सब के मन का चोर है शंकित, मुंह देखी बातें हैं,
"मुंकिर" शब्द का लहंगा चौडा, मन का घेर सकेता।
*****

Monday, April 6, 2009

ग़ज़ल - - - वोह जब करीब आए


ग़ज़ल

वह  जब क़रीब आए ,
इक खौफ़ दिल पे छाए।

जब प्यार ही न पाए,
महफ़िल से लौट आए।

दिन रत गर सताए,
फ़िर किस तरह निंभाए?

इस दिल से निकली हाय!
अब तू रहे की जाए।

रातों की नींद खो दे,
गर दिन को न सताए।

ताक़त है यारो ताक़त,
गर सीधी रह पाए।

है बैर भी तअल्लुक़
दुश्मन को भूल जाए।

हो जा वही जो तू है,
होने दे हाय, हाय।

इक़रार्यों का काटा,
'मुंकिर' के पास आए.
*****

Sunday, April 5, 2009

गज़ल - - - यादे माज़ी को तो बेहतर है भुलाए रखिए


गज़ल

यादे माज़ी को तो, बेहतर है भुलाए रखिए,
हाल शीशे का है, पत्थर से बचे रखिए।

दोस्ती, यारी, नज़रियात, मज़ाहिब, हालात,
ज़हन ओ दिल पे, न बहनों को बिठाए रखिए।

मैं फ़िदा आप पे कैसे, जो बराबर हैं सभी,
ऐ मसावाती मुजाहिद! मुझे पाए रखिए।

सात पुश्तों से ख़ज़ाना,  ये चला आया है,
सात पुश्तों के लिए माँ, इसे ताए रखिए।

आबला पाई भुला बैठी है, राहें सारी,
आप कुछ रोज़, चरागों को बुझाए रखिए।

सच की किरनों से, जहाँ में, लगे न आग कहीं,
आतिशे दिल अभी "मुंकिर" ये बुझाए रखिए।

*****

Saturday, April 4, 2009

ग़ज़ल - - - ज़मीं पे माना है खाना ख़राब का पहलू


ग़ज़ल

ज़मीं पे माना, है ख़ाना ख़राब1 का पहलू,
मगर है अर्श पे, रौशन शराब का पहलू ।


ज़रा सा गौर से देखो, मेरी बग़ावत को,
छिपा हुआ है, किसी इन्क़ेलाब का पहलू।



नज़र झुकाने की, मोहलत तो देदे आईना,
सवाल दाबे हुए है,जवाब का पहलू।


पड़ी गिज़ा  ही, बहुत थी मेरी बक़ा के लिए,
बहुत अहेम है मगर, मुझ पे आब का पहलू।


ख़ता ज़रा सी है, लेकिन सज़ा है फ़ौलादी,
लिहाज़ में हो खुदाया, शबाब का पहलू।


खुली जो आँख तो देखा, निदा2 में हुज्जत थी,
सदाए गैब में पाया, हुबाब3 का पहलू।


तुम्हारे माजी में, मुखिया था कोई, गारों में,
अभी भी थामे हो उसके निसाब4 का पहलू।


बड़ी ही ज़्यादती की है, तेरी खुदाई ने,
तुझे भी काश हो लाज़िम हिसाब का पहलू।


ज़बान खोल न पाएँगे, आबले दिल के,
बहुत ही गहरा दबा है, इताब5 का पहलू।


सबक़ लिए है वह, बोसीदा दर्स गाहों के ,
जहाने नव को सिखाए, सवाब का पहलू।


तुम्हारे घर में फटे बम, तो तुम को याद आया,
अमान ओ अम्न पर लिक्खे, किताब का पहलू।


उधम मचाए हैं 'मुंकिर' वह दीन ओ मज़हब के ,
जुनूँ को चाहिए अब सद्दे बाब6 का पहलू..

1-  बर्बादी 2-ईश वाणी 3- बुलबुले 4- Cource 5- सज़ा 6- समाप्त  


Friday, April 3, 2009

ग़ज़ल - - - बुल हवस को मौत तक हिर्स ओ हवा ले जाएगी



ग़ज़ल 

बुल हवस को मौत तक, हिर्स ओ हवा ले जाएगी,
जश्न तक हमको क़िनाअत की अदा ले जाएगी।

बद ख़बर अख़बार का, पूरा सफ़ह ले जाएगी,
नेक ख़बरी को बलाए, हाशिया ले जाएगी।

बाँट दूँगा बुख्ल अपने खुद ग़रज़ रिश्तों को मैं,
बाद इसके जो बचेगा, दिल रुबा ले जाएगी।

रंज ओ गम, दर्द ओ अलम, सोज़ ओ ख़लिश हुज़्न ओ मलाल,
"ज़िन्दगी हम से जो रूठेगी, तो क्या ले जाएगी"।

मेरा हिस्सा ना मुरादी का, मेरे सर पे रखो,
अपना हिस्सा ऐश का, वह बे वफ़ा ले जाएगी।

गैरत "मुंकिर" को मत, काँधा लगा पुरसाने हाल,
क़ब्र तक ढो के उसे, उसकी अना ले जाएगी।

*****
*बुल हवस =लोलुपता *हिर्स ओ हवा =आकाँछा *किनाअत=संतोष *बुख्ल=कंजूसी *अना=गैरत

Thursday, April 2, 2009

ग़ज़ल - - - उस तरफ फिर बद रवी की इन्तहा ले जाएगी



ग़ज़ल

उस तरफ फिर बद रवी की, इन्तहा ले जाएगी,
फिर घुटन कोई किसी को, करबला ले जायगी।

ज़ुल्म से सिरजी ये दौलत, दस गुना ले जाएगी,
लूट कर फ़ानी ने रक्खा है, फ़ना ले जाएगी।

है तआक़ुब में ये दुन्या, मेरे नव ईजाद के,
मैं उठाऊंगा क़दम, तो नक़्श ए पा ले जाएगी।

तिफ़्ल के मानिंद, अगर घुटने के बल चलते रहे,
ये जवानी वक़्त की आँधी उड़ा ले जाएगी।

बा हुनर ने चाँद तारों पर बनाई है पनाह,
मुन्तज़िर वह हैं, उन्हें उन की दुआ ले जाएगी।

सारे ख़िलक़त का अमानत दार है, "मुंकिर" का खू,
ए तमअ तुझ पर नज़र है, कुछ चुरा ले जाएगी।

*****
*बद रवी =दूर व्योहार *तआक़ुब=पीछा करना *तिफ्ल=बच्चा *तमअ=लालच

Wednesday, April 1, 2009

ग़ज़ल - - - आबला पाई है दूरी है बहुत


ग़ज़ल


आबला पाई है, दूरी है बहुत,
है मुहिम दिल की, ज़रूरी है बहुत.

कुन कहा तूने, हुवा दन से वजूद,
दुन्या ये तेरी, अधूरी है बहुत।

रहनुमा अपनी शुजाअत में निखर,
निस्फ़ मर्दों की हुजूरी है बहुत।

देवताओं की पनाहें बेहतर,
वह खुदा, नारी ओ नूरी है बहुत।

तेरे इन ताज़ा हिजाबों की क़सम,
तेरा यह जलवा, शुऊरी है बहुत।

इम्तेहां तुम हो, नतीजा है वजूद,
तुम को हल करना ज़रूरी है बहुत।

*****

Monday, March 30, 2009

ग़ज़ल - - - तुम तो आदी हो सर झुकने के


ग़ज़ल

तुम तो आदी हो सर झुकने के,
बात सुनने के, लात खाने के।

क्या नक़ाइस हैं, पास आने के,
फ़ायदे क्या हैं, दिल दुखाने के?

क़समें खाते हो, बावले बन कर,
तुम तो झूटे हो इक ज़माने के।

लब के चिलमन से, मोतियाँ झांकें,
ये सलीक़ा है, घर दिखाने के।

ले के पैग़ाम ए सुल्ह आए हो,
क्या लवाज़िम थे, तोप ख़ाने के।

मैं ने पूछी थी खैरियत यूं ही,
आ गए दर पे, काट खाने के।

जिन के हाथों बहार बोई गईं,
हैं वह मोहताज दाने दाने के।


*****

Sunday, March 29, 2009

ग़ज़ल - - - सुब्ह उफुक़ है शाम शिफ़क़ है


ग़ज़ल

सुब्ह उफ़ुक़ है शाम शिफ़क़ है,
देख ले उसको, एक झलक है.

बात में तेरी सच की औसत,
दाल में जैसे, यार नमक है।

आए कहाँ से हो तुम ज़ाहिद?
आंखें फटी हैं, चेहरा फ़क है।

उसकी राम कहानी जैसी,
बे पर की ये ,सैर ए फ़लक़ है।

माल ग़नीमत ज़ाहिद खाए,
उसकी जन्नत एक नरक है।

काविश काविश, हासिल हासिल,
दो पाटों में जन बहक़ है।

धर्मों का पंडाल है झूमा,
भक्ति की दुन्या, मादक है।

हिंद है पाकिस्तान नहीं है,
बोल बहादर जो भी हक़ है।

कुफ़्र ओ ईमान, टेढी गलियां,
सच्चाई की, सीध सड़क है।

फ़ितरी बातें, एन सहीह हैं,
माफ़ौक़ुल फ़ितरत पर शक है।

कितनी उबाऊ हक़ की बातें,
"मुंकिर" उफ़! ये किस की झक है.

********

क्षितिज लालिमा *शिफ़क़=शाम की क्षितिज लालिमा *काविश=जतन *फितरी=लौकिक *माफौकुल=अलौकिक
उफुक़=प्रातः 


Saturday, March 28, 2009

ग़ज़ल - - - दो चार ही बहुत हैं गर सच्चे रफीक़ हैं


ग़ज़ल

दो चार ही बहुत हैं, गर सच्चे रफ़ीक़ हैं,
बज़्मे अज़ीम से, तेरे दो चार ठीक हैं।

तारीख़ से हैं पैदा, तो मशकूक है नसब,
जुग़राफ़िया ने जन्म दिया, तो अक़ीक़ हैं।

कांधे पे है जनाज़ा, शरीके हयात का,
आखें शुमार में हैं कि,  कितने शरीक हैं?

ईमान ताज़ा तर, तो हवाओं पे है लिखा,
ये तेरे बुत ख़ुदा तो, क़दीम ओ दक़ीक़ हैं।

इनको मैं हादसात पे, ज़ाया न कर सका,
आँखों की कुल जमा, यही बूँदें रक़ीक़ हैं।

रहबर मुआशरा तेरा, तहतुत्सुरा में है,
"मुंकिर" बक़ैदे सर, लिए क़ल्बे अमीक़ हैं.

*****

रफीक़=दोस्त *मशकूक=शंकित * नसब=नस्ल *जुगराफ़िया=भूगोल *दकीक़=पुरातन *तहतुत्सुरा=पाताल *क़ल्बे अमीक़ गंभीर ह्र्दैय के साथ

Friday, March 27, 2009

gazal - - - बहुत सी लग्ज़िशें ऐसी हुई हैं



ग़ज़ल 

बहुत सी लग्ज़िशें ऐसी हुई हैं,
कि सासें आज भी लरज़ी हुई हैं.

मेरे इल्मो हुनर रोए हुए हैं,
मेरी नादानियाँ हंसती हुई हैं.

ये क़द्रें जिन से तुम लिपटे हुए हो,
हमारे अज़्म की उतरी हुई हैं.

वो चादर तान कर सोया हुवा है,
हजारों गुत्थियाँ उलझी हुई हैं.

बुतों को तोड़ कर तुम थक चुके हो,
तरक्की तुम से अब रूठी हुई है.

शहादत नाम दो या फिर हलाकत,
सियासत, मौतें तेरी दी हुई हैं.

हमीं को तैरना आया न "मुंकिर",
सदफ़ हर लहर पर बिखरी हुई हैं.


Thursday, March 26, 2009

ग़ज़ल - - - रिश्ता नाता कुनबा फिरका सारा जग ये झूठा है


ग़ज़ल 

रिश्ता नाता कुनबा फ़िर्क़ा, सारा जग ये झूठा है,
जुज्व की नदिया मचल के भागी, कुल का सागर रूठा है।

ज्ञानेश्वर का पत्थर है, और दानेश्वर की लाठी है,
समझ की मटकी बचा के प्यारे, भाग्य नहीं तो फूटा है।

बन की छोरी ने लूटा है, बेच के कंठी साधू को,
बाती जली हुई मन इसका, गले में सूखा ठूठा है।

चिंताओं का चिता है मानव, मंसूबों का बंधन है,
बिरला पंछी फुदके गाए, रस्सी है न खूटा है।

सुनता है वह सारे जग की, करता है अपने मन की,
सीने के भीतर रहता है, मेरा यार अनूठा है।

लिखवाई है हवा के हाथों, माथे पर इक राह नई,
"मुंकिर" सब से बिछड़ गया है, सब से रिश्ता टूटा है।

*****

Wednesday, March 25, 2009

ग़ज़ल - - -गर एतदाल हो तो चलो गुफ्तुगू करें


ग़ज़ल

गर एतदाल हो, तो चलो गुफ्तुगू करें,
तामीर रुक गई है, इसे फिर शुरू करें.

इन कैचियों को फेकें, उठा लाएं सूईयाँ,
इस चाक दामनी को, चलो फिर रफ़ु करें।

इक हाथ हो गले में, तो दूजे दुआओं में,
आओ कि दोस्ती को, कुछ ऐसे रुजू करें।

खेती हो पुर खुलूस, मुहब्बत के बीज हों,
फ़सले बहार आएगी, हस्ती लहू करें।

रोज़ाना के अमल ही, हमारी नमाजें हों,
सजदा सदक़तों पे, सहीह पर रुकु करें।

ए रब कभी मोहल्ले के बच्चों से आ के खेल,
क़हर ओ ग़ज़ब को छोड़, तो "मुंकिर"वजू करें.

******************

*एतदाल=संतुलन *तामीर=रचना *पुर खुलूस=सप्रेम *रुकु=नमाज़ में झुकना *वजू=नमाज़ कि तय्यारी को हाथ मुंह धोना

(क़ाफ़ियाओं में हिंदी अल्फ़ाज़ मुआज़रत के साथ )



ग़ज़ल - - - ज़िन्दगी है कि मसअला है ये



ग़ज़ल 

ज़िन्दगी है कि मसअला है ये,
कुछ अधूरों का, सिलसिला है ये।

आँख झपकी तो, इब्तेदा है ये,
खाब टूटे तो, इन्तहा है ये।

वक़्त की सूईयाँ, ये सासें हैं,
वक़्त चलता कहाँ, रुका है ये।

ढूँढता फिर रहा हूँ ,खुद को मैं,
परवरिश, सुन कि हादसा है ये।

हूर ओ गिल्मां, शराब, है हाज़िर,
कैसे जन्नत में सब रवा है ये।

इल्म गाहों के मिल गए रौज़न,
मेरा कालेज में दाखिला है ये।

दर्द ए मख्लूक़ पीजिए "मुंकिर"
रूह ए बीमार की दवा ये हो।

******

*गिल्मां=दस *रौज़न =झरोखा * मख्लूक़=जीव

Monday, March 23, 2009

ग़ज़ल -सुममुम बुक्मुम उमयुन कह के फहेम के देते हो ताने


ग़ज़ल

सुममुम बुक्मुम उमयुन कह के, फ़हेम के देते हो ताने,
दिल में मरज़ बढा के मौला, चले हो हम को समझाने।

लम यालिद वलं यूलद, तुम हम जैसे मख्लूक़ नहीं,
धमकाने, फुसलाने की ये चाल कहाँ से हो जाने?

कभी अमन से भरी निदाएँ, कभी जेहादों के गमज़े,
आपस में खुद टकराते हैं, तुम्हरे ये ताने बाने।

कितना मेक अप करते हो तुम, बे सर पैर की बातों को,
मुतरज्जिम, तफ़सीर निगरो! "बड़ बड़ में भर के माने।

आज नमाजें, रोजे, हज, ख़ेरात नहीं, बर हक़ ऐ हक़!
मेहनत, ग़ैरत, इज़्ज़त, का युग आया है रब दीवाने।

बड़े मसाइल हैं रोज़ी के, इल्म बहुत ही सीखने हैं,
कहाँ है फ़ुरसत सुनने की अब, फ़लक़ ओ हशर के अफ़साने।

कैसे इनकी, उनकी समझें, अपनी समझ से बाहर है,
इनके उनके सच में "मुंकिर" अलग अलग से हैं माने।


******
नोट-पहले तीन शेरों में शायर सीधा अल्लाह से मुखातिब है , चौथे में उसके एजेंटों से और आखिरी तीन शेरों में आप सब से. अर्थ गूढ़ हैं, काश कि कोई सच्चा इस्लामी विद्वान् आप को समझा सके.

Sunday, March 22, 2009

ग़ज़ल- - - चेहरे यहाँ मुखौटे हैं और गुफ्तुगू हुनर


ग़ज़ल

चेहरे यहाँ मुखौटे हैं, और गुफ्तुगू  हुनर,
खाते रहे फ़रेब हम, कमज़ोर थी नज़र।

हैं फ़ायदे भी नहर के, पानी है रह पर,
लेकिन सवाल ये है, यहाँ डूबे कितने घर।

पाले हुए है तू इसे, अपने ख़िलाफ़ क्यूँ ,
ये खौफ़ दिल में तेरे, है अंदर का जानवर।

होकर जुदा मैं खुद से, तुहारा न बन सका,
तुम को पसंद जुमूद था, मुझ को मेरा सफ़र।

पुख्ता भी हो, शरीफ भी हो , और जदीद भी,
फिर क्यूँ अज़ीज़ तर हैं, तुम्हें कुहना रहगुज़र।

हस्ती का मेरे जाम, छलकने के बाद अब,
इक सिलसिला शुरू हो, नई रह हो पुर असर।

जुमूद=ठहराव *जदीद=नवीन *कुहना रहगुज़र=पुरातन मार्ग

Saturday, March 21, 2009

ग़ज़ल - - - खेमें में बसर कर लें इमारत न बनाएँ


ग़ज़ल 


खेमें में बसर कर लें, इमारत न बनाएँ,
जो दिल पे बने बोझ, वो दौलत न कमाएँ।

सन्देश ये आकाश के, अफ़लाक़ी निदाएँ,
हैं इन से बुलंदी पे, सदाक़त की सदाएँ।

सच्ची है ख़ुशी, इल्म की दरया को बहाएँ,
भर पूर पढें, और अज़ीज़ों को पढ़ाएँ।

संगीन के साए में हैं, रहबर कि ख़ताएँ,
मज़लूम के हिस्से में, बिना जुर्म सज़ाएँ।

तीरथ कि ज़ियारत हो,कोई पाठ पढ़ाएँ,
जायज़ है तभी, जब न मोहल्ले को सताएँ।

जलसे ये मज़ाहिब के, ये धर्मों कि सभाएँ,
"मुंकिर" न कहीं देश की, दौलत को जलाएँ।

*अफ्लाकी निदाएँ=कुरान वाणी *सदाक़त=सत्य वचन *ज़ियारत=दर्शन .

Friday, March 20, 2009

ग़ज़ल- - -तोहमत शिकस्ता पाई की मुझ पर मढे हो तुम


ग़ज़ल

तोहमत शिकस्ता पाई की, मुझ पर मढ़े हो तुम,
राहों के पत्थरों को, हटा कर ब
ढ़े हो तुम?

कोशिश नहीं है, नींद के आलम में दौड़ना,
बेदारियों की शर्त को, कितना पढ़े हो तुम?

बस्ती है डाकुओं की, यहाँ लूट के ख़िलाफ़ ,
तक़रीर ही गढे, कि जिसारत ग
ढ़े हो तुम?

अलफ़ाज़ से बदलते हो, मेहनत कशों के फल,
बाज़ारे हादसात में, कितने क
ढ़े हो तुम।

इंसानियत के फल हों? धर्मों के पेड़ में,
ये पेड़ है बबूल का, जिस पे चढ़े हो तुम।

"मुंकिर" जो मिल गया, तो उसी के सुपुर्द हो,
खुद को भी कुछ तलाशो,लिखे और पढ़े हो तुम.


शिकस्ता पाई=सुस्त चाल

Thursday, March 19, 2009

ग़ज़ल - - - उनकी हयात उसकी नमाजों के वास्ते


ग़ज़ल

उनकी हयात, उसकी नमाज़ों के वास्ते,
मेरी हयात, उसके के ही राज़ों के वास्ते।

मुर्शिद के बांकपन के, तक़ाज़ों को देखिए,
नूरानियत है, जिस्म गुदाज़ों के वास्ते।

मंज़िल को अपनी, अपने ही पैरों से तय करो,
है हर किसी का कांधा, जनाज़ों के वास्ते।

सासें तेरे वजूद की, नग़मो की नज़र हों,
जुंबिश बदन की हों, तो हों साज़ों के वास्ते।

गाने लगी है गीत वोह, नाज़िल नुज़ूल की,
बुलबुल है आसमान के, बाज़ों के वास्ते।

"मुंकिर" वहां पे छूते, छुवाते हैं पैर को,
बज़्मे अजीब, दो ही तक़ाज़ों के वास्ते।


मुर्शिद=आध्यात्मिक गुरु *जिस्म गुदजों =हसीनाओं *नाज़िल नुज़ूल =ईश वानियाँ

Wednesday, March 18, 2009

ग़ज़ल - - - काँटों की सेज पर मेरी दुन्या संवर गई


ग़ज़ल

काँटों की सेज पर, मेरी दुन्या संवर गई,
फूलों का ताज था वहां, इक गए चार गई।

रूहानी भूक प्यास में, मैं उसके घर गया,
दूभर था सांस लेना, वहां नाक भर गई।

वोह साठ साठ साल के, बच्चों का था गुरू,
सठियाए बालिगान पे, उस की नज़र गई।

लड़ के किसी दरिन्दे से, जंगल से आए हो?
मीठी जुबान, भोली सी सूरत, किधर गई?

नाज़ुक सी छूई मूई पे, क़ाज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के, ग़ैरत से मर गई।

सोई हुई थी बस्ती, सनम और खुदा लिए,
"मुंकिर" ने दी अज़ान तो, इक दम बिफर गई,

Tuesday, March 17, 2009

ग़ज़ल - - - पश्चिम हंसा है पूर्वी कल्चर को देख कर


ग़ज़ल


पश्चिम हंसा है पूर्वी, कल्चर को देख कर,
हम जिस तरह से हंसते हैं, बंदर को देख कर.

चेहरे पे नातवां के, पटख देते हैं क़ुरआन ,
रख देते हैं 
क़ुरआन, तवंगर को देख कर।

इतिहास मुन्तज़िर है, भारत की भूमि का,
दिल खोल के नाचे ये किसी नर को देख कर।

धरती का जिल्दी रोग है, इन्सान का ये सर,
फ़ितरत पनाह मांगे है, इस सर को देख कर।

यकता है वह, जो सूरत बातिन में है शुजअ,
डरता नहीं है ज़ाहिरी, लश्कर को देख कर।

झुकना न पड़ा, क़द के मुताबिक हैं तेरे दर,
"मुंकिर" का दिल है शाद तेरे घर को देख कर।


नातवां=कमज़ोर *तवंगर= ताक़तवर *फ़ितरत=पराकृति * बातिन=आंतरिक रूप में *शुजअ=बहादुर