Tuesday, December 30, 2008

पतझड़ के पात



पतझड़ के पात



हूँ मुअल्लक़1 इन्तेहा-ओ-ख़त्म शुद2 के दरमियाँ।
ऐ जवानी! अलविदा!! अब आएगी दिल पर खिज़ाँ3


ज़ेहन अब बहके गा जैसे पहले बहके थे क़दम,
कूए-जाना4 का मुसाफिर जायगा अब आश्रम।

यह वहां पाजाएगा टूटा हुवा कोई गुरू,
ज़ख्म खुर्दा5 मंडली होगी, यह होगा फिर शुरू।

धर्मो-मज़हब की किताबें फिर से यह दोहराएगा,
नव जवानो को ब्रम्ह्चर और फिकः6 समझाएगा।

फिर यह चाहेगा कोई पहचान बन जाए मेरी,
दाढ़ी,चोटी,और जटा ही शान बन जाए मेरी।

फिर ये अपना बुत तराशेगा गुरू बन जाएगा,
ये समझता है ब़का7 में आबरू बन जाएगा।


१-बीचअटका हुवा २-इतिऔर समाप्ति ३-प्रेमिका की गली ५-घायल ६-धर्म-शास्त्र ७-शेष .

घुट्ती रूहें


घुट्ती रूहें

हाय ! लावारसी में इक बूढ़ी,


तन से कुछ हट के रूह लगती है।


रूह रिश्तों का बोझ सर पे रखे ,


दर-बदर मारी मारी फिरती है।


सब के दरवाज़े  खटखटाती है,


रिश्ते दरवाज़े  खोल देते हैं,


रूह घुटनों पे आ के टिकती है,


रिश्ते बारे-गरां को तकते हैं,


वह कभी बोझ कुछ हटाते हैं,


या कभी और लाद देते हैं।



रूह उठती है इक कराह के साथ,


अब उसे अगले दर पे जाना है.


एक बोझिल से ऊँट के मानिंद,


पूरी बस्ती में घुटने टेकेगी,


रिश्ते उसका शिकार करते हैं,


रूह को बेकरार करते हैं।


साथ देते हैं बडबडाते हुए,


काट खाते हैं मुस्कुराते हुए।



Sunday, December 28, 2008

सुब्ह की पीड़ा



सुब्ह की पीड़ा

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,

लेटे-लेटे, मैं बैठ जाता हूँ ,

ध्यान,चिंतन के यत्न करता हूं,

ग़र्क़ होना भी फिर से सोना है,

कुछ भी पाना, न कुछ भी खोना है।


सुब्ह फूटी है, नींद टूटी है,

सैर करने मैं चला जाता हूँ,

तन टहलता मन ,पे बोझ लिए,

याद आते हैं ख़ल्क़ के शैतां,

रूहे-बद साथ साथ रहती है,

मेरी तन्हाइयाँ कचरती है।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,

चीख उठता है भोपू मस्जिद का,

चीख उठती है नवासी मेरी,

बस अभी चार माह की है वह,

यूँ नमाज़ी को वह जगाते है,

सोए मासूम को रुलाते हैं।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,

पत्नी टेलिविज़न को खोले है,

ढोल ताशे पे बैठा इक पंडा,

झूमता,गाता और रिझाता है।

आने वाले हमारे सतयुग को,

अपने कलि युग में लेके जाता है।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,

किसी मासूम का करूँ दर्शन,

वरना आ जायगा मिथक बूढा,

और पूछेगा खैरियत मेरी,

घंटे घडयाल शोर कर देंगे,

रस्मी दावत अजान देदेगी.

Saturday, December 27, 2008

ईद की महरूमियाँ 1


ईद की महरूमियाँ 1

कैसी हैं ईद की खुशियाँ, यह नक़ाहत की तरह,
जश्न क़र्ज़े की तरह, नेमतें क़ीमत की तरह।
ईद का चाँद ये, कैसी खुशी को लाता है,
घर के मुखिया पे नए पन के सितम ढाता है।

ज़ेब तन कपड़े नए हों तो ख़ुशी ईद है क्या?
फिकरे-गुर्बा के लिए हक़  की ये ताईद है क्या?
क़ौम पर लानतें हैं फ़ित्राओ-खैरातो-ज़कात ,
ठीकरे भीख की ठंकाए है, उमरा की जमाअत।

पॉँच वक़तों  की नमाज़ें हैं अदा रोज़ाना,
आज के रोज़ अज़ाफ़ी है सफ़र दोगाना।
इसकी कसरत से कहीं दिल में ख़ुशी होती है,
भीड़ में ज़िन्दगी तनहा सी पड़ी होती है।

ईद के दिन तो नमाज़ों से बरी करना था,
छूट इस दिन के लिए मय-ब-लबी करना था।
नव जवाँ देव परी के लिए मेले होते,
अपनी दुन्या में दो महबूब अकेले होते।

रक़्स होता, ज़रा धूम धडाका होता,
फुलझडी छूटतीं, कलियों में धमाका होता।
हुस्न के रुख़ पे शरीयत का न परदा होता,
मुत्तक़ी १०,पीर, फ़क़ीहों११, को ये मुजदा१२, होता।

हम सफ़र चुनने की यह ईद इजाज़त देती,
फ़ितरते ख़ल्क़ १३ को संजीदगी फ़ुर्सत देती।
ईद आई है मगर दिल में चुभी फांस लिए,
क़र्बे १४ महरूमी लिए, घुट्ती हुई साँस लिए।


१-वनचित्ता २-कमजोरी ३-गरीबों की चिंता ४-ईश्वर 5-समर्थन ६-दान की विधाएँ ७-धनाड्य ८-ईद की नमाज़ को दोगाना कहते ९-धर्मं विधान १०-सदा चारी  11-धर्म-शास्त्री १३-खुश खबरी १3-जीव प्रवर्ति14-वंचित की पीड़ा



सना 1


सना  1

तूने सूरज चाँद बनाया, होगा हम से क्या मतलब,
तूने तारों को चमकाया, होगा हम से क्या मतलब,
तूने बादल को बरसाया, होगा हम से क्या मतलब,
तूने फूलों को महकाया, होगा हम से क्या मतलब।



तूने क्यूं बीमारी दी है, तू ने क्यूं आजारी दी?
तूने क्यूं मजबूरी दी है, तूने क्यूं लाचारी दी?
तूने क्यूं महकूमी दी है, तूने क्यूं सलारी दी?
तूने क्यूं अय्यारी दी है, तूने क्यूं मक्कारी दी?

तूने क्यूं आमाल बनाए, तूने क्यूं तक़दीर गढा?
तूने क्यूं आज़ाद तबअ दी, तूने क्यूं ज़ंजीर गढा?
ज़न,ज़र,मय में लज़्ज़त देकर, उसमें फिर तक़सीर गढा,
सुम्मुम,बुक्मुम,उमयुन कहके, तअनो की तक़रीर गढा




बअज़ आए तेरी राहों से, हिकमत तू वापस लेले,
बहुत कसी हैं तेरी बाहें, चाहत तू वापस लेले,
काफ़िर, 'मुंकिर' से थोडी सी नफ़रत तू वापस लेले,
दोज़ख़ में तू आग लगा दे, जन्नत तू वापस लेले।




शीर्षक =ईश-गान १-आधीनता २-सेनाधिकार ३-स्वछंदता ५-सुंदरी,धन,सुरा,६-अपराध ७-अल्लाह अपनी बात न मानने वालों को गूंगे,बहरे और अंधे कह कर मना करता है कि मत समझो इनको,इनकी समझ में न आएगा


Friday, December 26, 2008

हक़ बजानिब 1


हक़ बजानिब


वहदानियत2 के बुत को गिराया तो ठीक था,


इस सेह्र किब्रिया में न आया तो ठीक था।




गर हुस्न को बुतों में उतारा तो ठीक था,


पत्थर में आस्था को तराशा तो ठीक था।




फरमूदः ए फ़लक़ ४ के तज़ादों छोड़ कर,


धरती के मूल मन्त्र को पाया तो ठीक था।




माटी सभी की जननी शिकम भरनी तू ही है,


पुरखों ने तुझ को माता पुकारा तो ठीक था।




ऐ आफ़ताब7! तेरी शुआएं  हैं ज़िन्दगी,


तुझ को किसी ने शीश नवाया तो ठीक था।




पेड़ों की बरकतों से सजी कायनात है,


उन पर खिरद१० ने पानी चढाया तो ठीक था।




आते हैं सब के काम मवेशी अज़ीज़ तर ११ ,


इन को जूनून के साथ जो चाहा तो ठीक था।




इक सिलसिला है, मर्द पयम्बर का आज तक,


औरत के हक़ को देवी बनाया तो ठीक था।




नदियों,समन्दरों, से हमे ज़िन्दगी मिली,


साहिल पे उनके जश्न मनाया तो ठीक था।



गुंजाइशें ही न हों, जहाँ इज्तेहाद१२ की,


ऐसे में लुत्फ़ ऐ कुफ़्र १३ जो भाया तो ठीक था।




फ़िर ज़िन्दगी को रक्स की आज़ादी मिल गई,


'मुंकिर' ने साज़े-नव१४ जो उठाया तो ठीक था।



१-सत्य की ओर २-एकेश्वर ३-महा ईश्वर का जादू ४-आकाश वाणी ५-दोमुही बातें ६-उदार पोषक ७-सूरज ८-किरने ०-ब्रह्मांड
१०-बुद्धि ११-प्यारे १२-संशोधन १३-कुफ्र का मज़ा १४-नया साज़.



मेरी खुशियाँ

मेरी खुशियाँ


जा पहुँचता हूँ कभी डूबे हुए सूरज तक,

ऐसा लगता है मेरी ख़ुशियाँ वहीं बस्ती हैं,

जी में आता है,वहीं जा के रिहाइश कर लूँ ,

क्या बताऊँ कि अभी काम बहुत बाक़ी हैं।

मेरी  ख़ुशियाँ मुझे तन्हाई में ले जाती हैं,

क़र्ब ए आलाम1 से कुछ देर छुड़ा लेती हैं,

पास वह आती नहीं, बातें किया करती हैं,

बीच हम दोनों के इक सिलसिला ए लासिल्की2 है।

मेरी खुशियों की ज़रा ज़ेहनी बलूग़त3 देखो,

पूछती रहती हैं मुझ से मेरी बच्ची की तरह,

सच है रौशन तो ये तारीकियाँ ग़ालिब क्यूं हैं?

ज़िन्दगी गाने में सब को ये क़बाहत क्यूं है?

एक जुंबिश सी मेरी सोई खिरद पाती है,

अपनी लाइल्मी पे मुझ को भी मज़ा आता है,

देके थपकी मैं इन्हें टुक से सुला देता हूँ ,

इस तरह लोरियां मैं उनको सुना देता हूँ ----

"ऐ मेरी खुशियों! फलो,फूलो,बड़ी हो जाओ,

अपने मेराज के पैरों पे खड़ी हो जाओ,

इल्म आने दो नई क़दरें  ज़रा छाने दो,

साज़ तैयार है, नगमो को सदा१० पाने दो,

तुम जवाँ होंगी, बहारों की फ़िज़ा छाएगी,

ज़िन्दगी फ़ितरते आदम की ग़ज़ल जाएगी".

"रौशनी इल्मे नव११ की आएगी,

सारी तारीकियाँ मिटाएगी,

जल्दी सो जाओ सुब्ह उठाना है,

कुछ नया और तुमको पढ़ना है".


१- व्याकुळ २-वायर-लेस ३-बौधिक व्यसक्ता4-अंधकार ५ -विकार ६-अक्ल ७-अज्ञानता ८-शिखर ९-मान्यताएं१०-आवाज़ ११-नई शिक्षा

तवारीखी सानेहे



तारीख़ी  सानेहे

खंडहरों में नक्श हैं माज़ी1की शरारतें,

लूटने में लुट गई हैं ज़ुल्म की इमारतें।


देख लो सफ़ीर तुम, उस सफ़र में क्या मिला,

थोड़ा सा सवाब2 था, ढेर सी हिक़ारतें3.


बात क़ायदे की है, अपनी ही ज़ुबाँ में हो,

मज़हबी किताबों की, तूल तर इबारतें।


है अज़ाबे-जरिया ज़ालिमों की क़ौम पर,

मिट गईं तमद्दुनी दौर की इमारतें।


क़ाफ़िला गुज़र गया नक्शे-पा पे धूल है,

पा सकीं न रहगुज़र सिद्क़ की हरारतें।


शर्मसार है खुदा, उम्मातें ज़लील हैं,

साज़िशी मुहिम वह थी, बेजा थीं जिसारतें१० 



१-अतीत २- पुण्य ३-अपमान ४-लम्बी ५-जरी रहने वाला प्रकोप ६-सभ्यताओं की ७-सत्य ८-अनुपालक ९-वर्ग १०-साहस


Saturday, December 20, 2008

कुफ्र और ईमान


कुफ़्र और ईमान

कुफ़्र ओ ईमान१-२दो सगे भाई,
सैकडों साल हुए बिछडे हुए,
हाद्साती हवा थी आई हुई,
एक तूफाँ ने इनको तोडा था।

कोहना क़द्रों4पे कुफ़्र था क़ायम,
इक खुदा की सदा लिए ईमां,
बस नज़रयाती इख्तिलाफ़5 के साथ,
ठन गई कुफ्र और ईमाँ में।

नाराए जंग और जेहादलिए,
भाई भाई को क़त्ल करते थे,
बरकतें लूट की ग़नीमत7थीं,
और ज़रीआ मुआश8 थे हमले।

कुफ़्र की देवियाँ लचीली थीं,
देवता बेनयाज़9 थे बैठे,
जैश१० ईमान का जो आता था,
देवता मालो-ज़र लुटाते थे।

ज़द10 में थे एशिया व् अफ्रीक़ा,
हर मुक़ामी पे क़ह्र बरपा थी,
ऐसा ईमान ने गज़ब ढाया,
आधी धरती पे मौत बरसाया।

खित्ता, इक जमीं पे भारत था,
सख्त जानी थी कुफ़्र की इस पर,
इसपे आकर रुका थका ईमां,
कुफ़्र के साथ कुछ हुवा राज़ी।

सदियों ग़ालिब रहा मगर इस पर,
कुफ्र के आधे इल्तेज़ाम11के साथ,
कुफ़्र पहुँचा सिने बलूग़त को,
फ़िर ये जमहूर्यत की ऋतू आई।

कुफ़्रको कुछ ज़रा मिली राहत ,
और उसने नतीजा अख्ज़12किया,
क्यूं न ईमान की तरह हम भी,
जौर ओ शिद्दत13की राह अपनाएं।

मेरा भी एक ही पयम्बर हो,
राम से और कौन बेहतर है,
मेरा भी सिर्फ़ एक मक्का हो,
मन को भाई अयोध्या नगरी।

काबा जैसा ही राम का मन्दिर,
बाबरी टूटे, कुफ़्र क़ायम हो,
उनका इस्लाम, अपना हो हिंद्त्व ,
सारे रद्दे-अमल14 हैं फ़ितरी15 से।

कुफ़्र में इख्तेलाफ़16 दूर हुए,
फ़ार्मूला ये ठीक था शायद,
उसकी कुछ जुज़वी कामयाबी है,
उसकी गुजरात में जवाबी है।

आज ईमां को होश आया है,
बिसरी आयत17 जान पाया है,
है लकुम-दीनकुम18 से अब मतलब,
भूले काफ़िर को क़त्ल करना अब।

अहल-ऐ-ईमां की बड़ी मुश्किल है,
आज मोहलिक१९ निज़ाम-कामिल२०,
कोई भाई भी पुरसा हाल नहीं,
करके हिजरत२१ वह कहाँ जाएँ अब।

है बहुत दूर मर्कज़े-ईमां22,
उसकी अपनी ही चूलें ढीली हैं,
हैं पडोसो में भाई बंद कई,
जिन के अपने ही बख्त23 फूटे हैं।

ईमाँ त्यागे अगर जो हट धर्मी,
कुफ्र वालों के नर्म गोशे24 हैं,
उनकी नरमी से बचा है ईमां,
वरना दस फ़ी सदी के चे-माने ?

बात 'मुंकिर' की गर सुने ईमां,
जिसकी तजवीज़25 ही मुनासिब है,
जिसका इंसानियत ही मज़हब है,
कुफ़्र की भी यही ज़रूरत है॥




1-काफिर आस्था २-मुस्लिम आस्था ३-दुर्घटना -युक्त ४-पुरानी मान्यताएं ५-दिरिष्ट -कौणिक ६-धर्म युद्ध



७-धर्म युद्ध में लूटा हुआ माल ८-जीविका-श्रोत ९-अबोध १०-लश्कर 10- nishana ११-चपेट १२-समझौता १३-निकाला



१४-ज़ुल्म,ज्यादती १५-प्रति-क्रिया १६-स्वाभाविक १७-विरोध १८-कुरानी लेख अंश



१९-तुहारा दीन तुहारे लिए,हमारा दिन हमारे लिए २०-हानि कारक २१-सम्पूर्ण जीवन शैली



२२स्वदेश त्याग २३-मक्का की ओर संकेत २४-भाग्य २५-कुञ्ज २६-उपाय .
































ईश वाणी



ईश वाणी

मैं हूँ वह ईश,

कि जिसका स्वरूप प्रकृति है,

मैं स्वंभू हूँ ,

पर भवता के विचारों से परे,

मेरी वाणी नहीं भाषा कोई,

न कोई लिपि, न कोई रस्मुल-ख़त,

मेरे मुंह, आँख, कान, नाक नहीं,

कोई ह्रदय भी नहीं, कोई समझ बूझ नहीं,

मैं समझता हूँ , न समझाता हूँ ,

पेश करता हूँ , न फ़रमाता हूँ,

हाँ! मगर अपनी ग़ज़ल गाता हूँ।

जल कि कल कल, कि हवा की सर सर,

मेरी वाणी है यही, मेरी तरफ़ से सृजित,

गान पक्षी की सुनो या कि सुनो जंतु के,

यही इल्हाम ख़ुदावन्दी1 है।

बादलों की गरज और ये बिजली की चमक,

हैं सदाएं मेरी,

चरमराते हुए, बांसों की खनक ,

हैं निदाएं मेरी.

ज़लज़ले, ज्वाला-मुखी और बे रहेम तूफाँ हैं,

मेरे वहियों3 की नमूदारी है।

ईश वाणी या ख़ुदा के फ़रमान,

जोकि कागज़ पे लिखे मिलते हैं,

मेरी आवाज़ की परतव5 भी नहीं।

मेरी तस्वीर है ,आवाज़ भी है,

दिल की धड़कन में सुनो और पढो फ़ितरत में॥



१-खुदा की आवाज़ २-आकाश वाणी ३-ईश वाणी ४-उजागर ५-छवि ६-प्रकृति

मुस्लिम राजपूतों के नाम



मुस्लिम राजपूतों के नाम

ख़ुद को कहते हो, गुलामान ए रसूले-अरबी1,
हैसियत दूसरे दर्जे के लिए हैं अजमी2,
तीसरा दर्जा हरब, रखता है 'मुंकिर', हरबी.
और फ़िर दर्जा-ऐ-जिल्लत4 पे हैं हिन्दी मिस्कीं5,
बरतरी को लिए, मग़रूर हैं काबा के अमीं,
सोच है कैसी तुम्हारी ? भला कैसा है यकीं ?


हज से लौटे हुए हाजी से हक़ीक़त पूछो,
एक हस्सास से कुछ, क़र्ब ए हिक़ारत पूछो।

है वतन जो भी तुम्हारा, है तुम्हें उसकी क़सम,
खून में पुरखो की धारा है ?तुम्हें उसकी क़सम,
नुत्फ़े१० की आन गवारा है? तुम्हें उसकी  क़सम,
ज़ेहन का कोई इशारा है ? तुम्हें उसकी क़सम,

अपने पुरखों की ख़ता क्या थी भला, हिदू थे ?
क़बले इस्लाम सभी, हस्बे ख़ुदा हिन्दू थे।
ज़ेब११ देता ही नहीं, पुरखो की अज़मत१२ भूलो,
उनको कुफ़्फ़र१३ कहो, और ये बुरी गाली दो।

क़ौमे होती हैं नसब14 की, कोई बुनियाद लिए,
अपने मीरास१५ से पाई हुई, कुछ याद लिए,
तुम बहुत ख़ुश हो, बुरे माज़ी१६ की बेदाद१७ लिए,
अरबों की ज़ेहनी गुलामी18 की, ये तादाद लिए।

अपने खूनाब19 की, नुत्फ़े की तहारत20 समझो,
जाग जाओ, नई उम्मत21 की ज़रूरत समझो।

अज़ सरे नव22, नया एहसास जगाना होगा,
इक नए बज़्म२३ का, मैदान सजाना होगा।
इक नई फ़िक्र24 का, तूफ़ान उठाना होगा,
मादरे हिंद में ही, काबा बनाना होगा।

राम और श्याम से भी, हाथ मिलाना होगा,
नानको-बुद्ध को, सम्मान में लाना होगा,
दूर तक माज़िए नाकाम25 में जाना होगा,
इस ज़मी का बड़ा इन्सान बनाना होगा।


१-मुहम्मद-दास 2-अरब गैर अरब मुस्लिम देशों को अजम कहते हैं ,वहां के रहने वालों को अजमी अर्थात गूंगा कहते हैं जोकि हीन माने जाते हैं .ठीक ऐसा ही हिंदू शब्द अरबों का दिया हुआ है जिसके माने अप शब्द हैं जिस पर कुछ लोग गर्व करते हैं .३-सभी गैर मुस्लिम देश को मुस्लिम हरब कहते हैं ।वहां के बाशिंदों को हरबी यानी हरबा (चल बाज़ी )करने वाला. ४- अपमानित श्रेणी ५-भारतीय भिखारी (ये हमारे लिए अरबियों का संबोधन है ) ६-श्रेष्टता ७-न्यास धारी ८-सच्चाई १०-शुक्र ,वीर्य ११-शोभा १२-मर्यादा १३-मूर्ति-पूजक १४-पीढी १५-दाय १६-अतीत १७-ज़ुल्म १८-मानसिक दासता 19-मर्यादित रक्त २०-पवित्रता २१-वर्ग २२-नए सिरे से २३-सभा २४-चिंतन २५-असफल २६-अतीत








Friday, December 19, 2008

और नीत्शे ने कहा


- - - और नीत्शे ने कहा - - -

ऐ पैकरे-मज़ालिम1 ! हो तेरा नाम कुछ भी,
गर तू है कार ए फ़रमाँ2, इस कायनात ए हू का?
कुछ जुन्बिशें है दिल की, इन को सबात दे दे।

क्यूं छूरियूं में तेरे, कुछ धार ही नहीं है?
इक वार वाली तेरी, तलवार ही नहीं है?
है कुंद तेरा खंजर, बरसों में रेतता है?
तीरों में तेरी नोकें कजदार क्यूं मुडी हैं?

फाँसी के तेरे फंदे क्यूं ढीले रह गए हैं?
मख़लूक़ के लिए ये, त्रिशूल क्यूं चुना है?
ये हरबा ए अज़ीयत, तुझ को पसंद क्यूं है?
यक लख्त मौत तुझ को, क्यूं कर नहीं गवारा?

ऐ ग़ैर मुअत्रिफ़  ! तू , सीधा सा तअर्रुफ़ दे,
क्या चाहता है सब से, इक साँस में बता दे।
हो सोना या कि चांदी, हीरे हों याकि मोती?
ज़ाहिर है तू कहेगा, कुछ भी नहीं ये कुछ भी,

तू चाहता है सब से, इक इक लहू की बूँदें,
जैसे दिया है तूने, वैसे ही लेगा वापस,
मय सूद ब्याज ज़ालिम, हैं तेरे मज़ालिम10,
इंसान हों कि हैवाँ, हों कितना भी परेशां,

सासों के लालची सब, हर हाल में जिएँगे,
सासों का मावज़ा दें, फ़िर तुझ को ही सदा दें।
इंसान जो ख़िरद११ है,सजदों में जी रहा है,
हैवाँ जो है तग़ाफ़ुल१२, वह तुझ पे भौन्कता है।


१-अत्याचार २-चलने वाला ३-ब्रह्माण्ड -ठहराव ५-जीव ६-वेदना यंत्र ७-एक साथ ८-अनजान ९-पिरचय 
१०-अत्याचार ११-समझ १२-गफलत.